अब जबकि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव घोषित हो चुके हैं, समाजवादी पार्टी के भीतर टकराव खत्म नहीं हुआ है। अब भी कोई नहीं जानता कि आखिर क्या होगा? उत्तर प्रदेश के करिश्माई मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी में अपनी दावेदारी दिखाई है, जोकि उनके पिता मुलायम सिंह यादव सहित पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को स्वीकार नहीं है। यदि यादव परिवार का झगड़ा खत्म नहीं होता, तो इसका स्वाभाविक लाभ भाजपा को होगा।
भाजपा के पास उसकी प्रतिद्वंद्वी सपा और बसपा की तरह राज्य स्तर का कोई लोकप्रिय नेता नहीं है। भाजपा उत्तर प्रदेश के चुनाव में जातिगत गणित और प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उनकी नीतियों के आधार पर वोट मांगना चाहेगी। क्षेत्रीय जटिलताओं से भरे राज्य में यदि भाजपा राष्ट्रीय अपील के आधार जीत हासिल करने में सफल होगी, तो इसे अप्रत्याशित ही माना जाएगा।
उत्तर प्रदेश देश का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है और राष्ट्रीय चुनावी नतीजों में इसका असंगत प्रभाव रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां की 80 में से 71 सीटें जीत ली थीं। उसके सहयोगी अपना दल ने दो सीटें जीती थीं। उत्तर प्रदेश में मिली सीटों के बिना भाजपा या एनडीए के पास सरकार बनाने के लायक बहुमत नहीं होता।
मगर उत्तर प्रदेश का महत्व सिर्फ आंकड़ों की वजह से नहीं है। 2014 के लोकसभा में विजयी होने के बावजूद पिछले दो वर्षों के दौरान हुए विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अच्छे नहीं रहे। इस दौरान सात राज्यों या केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव हुएः असम, बिहार, दिल्ली, केरल, पुड्डुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल। इनमें से सिर्फ असम में भाजपा जीत दर्ज कर सकी। उत्तर प्रदेश के चुनाव भाजपा के लिए इस रुझान को बदलने का अवसर दे रहे हैं।
प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के अब तक के कार्यकाल का निष्कर्ष यह है कि उन्होंने भाजपा के भीतर सत्ता को केंद्रीकृत किया है। उदाहरण के लिए, विमुद्रीकरण के फैसले को ही देखें, तो इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि इसकी जानकारी पार्टी के कुछ लोगों को छोड़कर किसी को भी रही हो। इस केंद्रीकरण ने मोदी की निजी लोकप्रियता में इजाफा किया है। बिहार और दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने दिखाया कि पार्टी की राज्य इकाइयों का केंद्रीय इकाई से कोई तारतम्य नहीं बैठा, नतीजतन इन राज्यों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। यहां तक कि असम में भाजपा को मिली जीत में यह आकलन करना कठिन है कि भाजपा कांग्रेस से टूटकर आए हेमंत बिस्वसरमा की लोकप्रियता के बिना कैसा प्रदर्शन कर पाती। वास्तव में उत्तर प्रदेश का चुनाव भाजपा को यह दिखाने का अवसर दे रहे हैं कि वह मोदी के पार्टी के केंद्रीकरण के जरिये एक बड़े राज्य में भी चुनाव जीत सकती है।
अखिलेश यादव को उन नेताओं की श्रेणी में रखा जा सकता है, जिन्होंने हाल के चुनावों में भाजपा को पटखनी दी है। बिहार में नीतीश कुमार-लालू प्रसाद की जोड़ी हो या फिर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, इन राज्यों के विधानसभा चुनावों ने दिखाया कि राज्य स्तर के करिश्माई नेताओं ने विकास के मुद्दे और लोकलुभावन नीतियों के जरिये किस तरह जीत दर्ज की। अखिलेश यादव ने जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर लोकप्रियता अर्जित की है, उनके कार्यकाल में कई एक्सप्रेस वे, लखनऊ मेट्रो और विद्यार्थियों को लैपटॉप बांटे जाने जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम दर्ज हैं। लेकिन यादव परिवार के हालिया झगड़े ने उनकी राह में कांटे बिछा दिए हैं। बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भ्रष्टाचार के आरोपों से उबर नहीं पाई हैं, खासतौर से उनकी निजी संपत्ति का मुद्दा उनके लिए मुसीबत का सबब बना हुआ है। ऐसे में भाजपा के लिए बिना किसी राज्य स्तर के करिश्माई नेता को आगे किए उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीतने का अच्छा अवसर है।
भारतीय राजनीति का अनुभव बताता है कि विभिन्न राज्य सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से इतने भिन्न हैं कि किसी राज्य का चुनाव जीतने के लिए राज्य स्तर के लोकप्रिय नेता के साथ ही राज्य स्तर पर पार्टी की मजबूत इकाई भी होनी चाहिए। लिहाजा लोकसभा में जीत दर्ज करने वाले गठबंधनों को जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हों, वहां के स्थानीय हितों से खुद को जोड़ना चाहिए। हालांकि लोकसभा में ऐसी पार्टियां भी जीत दर्ज कर पहुंचती हैं, जिनकी कोई राष्ट्रीय आकांक्षा नहीं होती, मगर वे केंद्र में अपनी हैसियत का इस्तेमाल केंद्र से अपने राज्यों के हितों को साधने में करती हैं। यदि नरेंद्र मोदी की भाजपा एकीकरण और केंद्रीकरण के जरिये राज्य विधानसभा के चुनावों में जीतने में सफल होती है, तब तो इस राजनीतिक अनुभव पर दोबारा विचार करने की जरूरत पड़ेगी। पार्टी के केंद्रीकरण को समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि मतदाता राज्य और केंद्र की राजनीति में कितना फर्क कर पाते हैं और राजनीतिक प्राथमिकताओं को तय करने में राज्य या केंद्र कैसी भूमिका निभाते हैं। वोट डालते समय मतदाता किस हद तक राष्ट्रीय या राज्य के मुद्दे पर विचार करता है?
सत्ता में आने के बाद से नरेंद्र मोदी के भाजपा संस्करण ने आक्रामक तरीके से देश में राजनीतिक विमर्श को राष्ट्रीय संदर्भ में परिभाषित किया है। वह फिर काले धन या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई हो या फिर विरोधियों को 'राष्ट्रद्रोही' करार देना। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राजनीतिक विमर्श का राष्ट्रीयकरण भाजपा को भ्रष्टाचार जैसे राष्ट्रीय मुद्दे पर किसी राज्य के चुनाव में जीत दिला सकता है (उत्तर प्रदेश में भाजपा इसी रणनीति पर चलती दिख रही है)।
वास्तव में उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव हमें देश में राज्य स्तर और राष्ट्रीय राजनीति के संबंधों और देश की बदलती राजनीति को समझने में मदद करेंगे।
- सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो
अब जबकि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव घोषित हो चुके हैं, समाजवादी पार्टी के भीतर टकराव खत्म नहीं हुआ है। अब भी कोई नहीं जानता कि आखिर क्या होगा? उत्तर प्रदेश के करिश्माई मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी में अपनी दावेदारी दिखाई है, जोकि उनके पिता मुलायम सिंह यादव सहित पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को स्वीकार नहीं है। यदि यादव परिवार का झगड़ा खत्म नहीं होता, तो इसका स्वाभाविक लाभ भाजपा को होगा।
भाजपा के पास उसकी प्रतिद्वंद्वी सपा और बसपा की तरह राज्य स्तर का कोई लोकप्रिय नेता नहीं है। भाजपा उत्तर प्रदेश के चुनाव में जातिगत गणित और प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उनकी नीतियों के आधार पर वोट मांगना चाहेगी। क्षेत्रीय जटिलताओं से भरे राज्य में यदि भाजपा राष्ट्रीय अपील के आधार जीत हासिल करने में सफल होगी, तो इसे अप्रत्याशित ही माना जाएगा।
उत्तर प्रदेश देश का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है और राष्ट्रीय चुनावी नतीजों में इसका असंगत प्रभाव रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां की 80 में से 71 सीटें जीत ली थीं। उसके सहयोगी अपना दल ने दो सीटें जीती थीं। उत्तर प्रदेश में मिली सीटों के बिना भाजपा या एनडीए के पास सरकार बनाने के लायक बहुमत नहीं होता।
मगर उत्तर प्रदेश का महत्व सिर्फ आंकड़ों की वजह से नहीं है। 2014 के लोकसभा में विजयी होने के बावजूद पिछले दो वर्षों के दौरान हुए विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अच्छे नहीं रहे। इस दौरान सात राज्यों या केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव हुएः असम, बिहार, दिल्ली, केरल, पुड्डुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल। इनमें से सिर्फ असम में भाजपा जीत दर्ज कर सकी। उत्तर प्रदेश के चुनाव भाजपा के लिए इस रुझान को बदलने का अवसर दे रहे हैं।
प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के अब तक के कार्यकाल का निष्कर्ष यह है कि उन्होंने भाजपा के भीतर सत्ता को केंद्रीकृत किया है। उदाहरण के लिए, विमुद्रीकरण के फैसले को ही देखें, तो इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि इसकी जानकारी पार्टी के कुछ लोगों को छोड़कर किसी को भी रही हो। इस केंद्रीकरण ने मोदी की निजी लोकप्रियता में इजाफा किया है। बिहार और दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने दिखाया कि पार्टी की राज्य इकाइयों का केंद्रीय इकाई से कोई तारतम्य नहीं बैठा, नतीजतन इन राज्यों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। यहां तक कि असम में भाजपा को मिली जीत में यह आकलन करना कठिन है कि भाजपा कांग्रेस से टूटकर आए हेमंत बिस्वसरमा की लोकप्रियता के बिना कैसा प्रदर्शन कर पाती। वास्तव में उत्तर प्रदेश का चुनाव भाजपा को यह दिखाने का अवसर दे रहे हैं कि वह मोदी के पार्टी के केंद्रीकरण के जरिये एक बड़े राज्य में भी चुनाव जीत सकती है।
अखिलेश यादव को उन नेताओं की श्रेणी में रखा जा सकता है, जिन्होंने हाल के चुनावों में भाजपा को पटखनी दी है। बिहार में नीतीश कुमार-लालू प्रसाद की जोड़ी हो या फिर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, इन राज्यों के विधानसभा चुनावों ने दिखाया कि राज्य स्तर के करिश्माई नेताओं ने विकास के मुद्दे और लोकलुभावन नीतियों के जरिये किस तरह जीत दर्ज की। अखिलेश यादव ने जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर लोकप्रियता अर्जित की है, उनके कार्यकाल में कई एक्सप्रेस वे, लखनऊ मेट्रो और विद्यार्थियों को लैपटॉप बांटे जाने जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम दर्ज हैं। लेकिन यादव परिवार के हालिया झगड़े ने उनकी राह में कांटे बिछा दिए हैं। बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भ्रष्टाचार के आरोपों से उबर नहीं पाई हैं, खासतौर से उनकी निजी संपत्ति का मुद्दा उनके लिए मुसीबत का सबब बना हुआ है। ऐसे में भाजपा के लिए बिना किसी राज्य स्तर के करिश्माई नेता को आगे किए उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीतने का अच्छा अवसर है।
भारतीय राजनीति का अनुभव बताता है कि विभिन्न राज्य सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से इतने भिन्न हैं कि किसी राज्य का चुनाव जीतने के लिए राज्य स्तर के लोकप्रिय नेता के साथ ही राज्य स्तर पर पार्टी की मजबूत इकाई भी होनी चाहिए। लिहाजा लोकसभा में जीत दर्ज करने वाले गठबंधनों को जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हों, वहां के स्थानीय हितों से खुद को जोड़ना चाहिए। हालांकि लोकसभा में ऐसी पार्टियां भी जीत दर्ज कर पहुंचती हैं, जिनकी कोई राष्ट्रीय आकांक्षा नहीं होती, मगर वे केंद्र में अपनी हैसियत का इस्तेमाल केंद्र से अपने राज्यों के हितों को साधने में करती हैं। यदि नरेंद्र मोदी की भाजपा एकीकरण और केंद्रीकरण के जरिये राज्य विधानसभा के चुनावों में जीतने में सफल होती है, तब तो इस राजनीतिक अनुभव पर दोबारा विचार करने की जरूरत पड़ेगी। पार्टी के केंद्रीकरण को समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि मतदाता राज्य और केंद्र की राजनीति में कितना फर्क कर पाते हैं और राजनीतिक प्राथमिकताओं को तय करने में राज्य या केंद्र कैसी भूमिका निभाते हैं। वोट डालते समय मतदाता किस हद तक राष्ट्रीय या राज्य के मुद्दे पर विचार करता है?
सत्ता में आने के बाद से नरेंद्र मोदी के भाजपा संस्करण ने आक्रामक तरीके से देश में राजनीतिक विमर्श को राष्ट्रीय संदर्भ में परिभाषित किया है। वह फिर काले धन या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई हो या फिर विरोधियों को 'राष्ट्रद्रोही' करार देना। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राजनीतिक विमर्श का राष्ट्रीयकरण भाजपा को भ्रष्टाचार जैसे राष्ट्रीय मुद्दे पर किसी राज्य के चुनाव में जीत दिला सकता है (उत्तर प्रदेश में भाजपा इसी रणनीति पर चलती दिख रही है)।
वास्तव में उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव हमें देश में राज्य स्तर और राष्ट्रीय राजनीति के संबंधों और देश की बदलती राजनीति को समझने में मदद करेंगे।
- सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो