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will Japan move away from United States in Fumio Kishida regime
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भरोसे का संकट: क्या फुमियो किशिदा के काल में अमेरिका से दूर जाएगा जापान?
वर्ल्ड डेस्क, अमर उजाला, टोक्यो
Published by: Harendra Chaudhary
Updated Tue, 05 Oct 2021 05:38 PM IST
सार
शिन्जो आबे की सरकार में किशिदा विदेश मंत्री थे। विश्लेषकों के मुताबिक जापान और अमेरिका के संबंध इतने गहरे हैं कि सरकारें बदलने से उन पर मोटे तौर पर कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अलग-अलग सरकारों की प्राथमिताओं से बारीक फर्क जरूर पड़ता है। किशिदा ऐसे समय प्रधानमंत्री बने हैं, जब अमेरिका जापान से ये उम्मीद रख रहा है कि वह इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सुरक्षा संबंधी अधिक बड़ी भूमिका निभाए...
फुमियो किशिदा के जापान का प्रधानमंत्री बनने की औपचारिक पुष्टि के बाद अब पर्यवेक्षकों का ध्यान इस पर है कि नए प्रधानमंत्री अमेरिका के साथ जापान के संबंधों को अपनी प्राथमिकता में कहां रखेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री शिन्जो आबे के दौरान अपनाई गई नीतियों को अमेरिका के लिए सर्वाधिक अनुकूल समझा जाता था। अमेरिका को उम्मीद है कि किशिदा उन नीतियों को जारी रखेंगे।
शिन्जो आबे की सरकार में किशिदा विदेश मंत्री थे। विश्लेषकों के मुताबिक जापान और अमेरिका के संबंध इतने गहरे हैं कि सरकारें बदलने से उन पर मोटे तौर पर कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अलग-अलग सरकारों की प्राथमिताओं से बारीक फर्क जरूर पड़ता है। किशिदा ऐसे समय प्रधानमंत्री बने हैं, जब अमेरिका जापान से ये उम्मीद रख रहा है कि वह इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सुरक्षा संबंधी अधिक बड़ी भूमिका निभाए। लेकिन पर्यवेक्षकों के मुताबिक अफगानिस्तान से जिस तरह अनियोजित ढंग से अमेरिका ने अपनी फौज लौटाई, उससे जापान में भी इस सवाल पर चर्चा चल रही है कि अमेरिका पर कितना भरोसा किया जा सकता है।
अमेरिका की जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में स्थित इलियट स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में जापान-अमेरिका संबंधों के विशेषज्ञ माइक मोचिजुकी वेबसाइट निक्कई एशिया से कहा- ‘जापान में आबे का युग निश्चित रूप से खत्म हो गया है। अब जापानी राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई है।’ आबे लगभग आठ साल तक जापान के प्रधानमंत्री रहे। उस दौरान अमेरिका के साथ जापान के संबंधों में स्थिरता आई थी। उस दौरान जापान ने अपने को ज्यादा करीबी से अमेरिकी धुरी से जोड़ा।
निवर्तमान प्रधानमंत्री योशिहिडे सुगा आबे के समय मुख्य कैबिनेट सचिव थे। अपने एक साल के कार्यकाल में उन्होंने अमेरिका के मामले में मोटे तौर पर आबे की नीतियों को जारी रखा। मुचिजुकी ने कहा- ‘अमेरिका निश्चित रूप से चाहेगा कि किशिदा का कार्यकाल आबे की नीतियों का तीसरा अध्याय साबित हो। लेकिन उसकी ये इच्छा अनुचित और यथार्थ से दूर होगी।’ उन्होंने कहा- ‘किशिदा जापान की सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी में तनाका-ओहिरा लाइन के समर्थक माने जाते हैं। ये लाइन चीन के साथ संबंध को महत्त्व देने की है। इस लाइन में जोर टकराव को बढ़ावा ना देने पर रहा है।’ काकुई तनाका 1970 के दशक में जापान के प्रधानमंत्री थे। माययोशी ओहिरा उनके विदेश मंत्री थे। चीन के साथ जापान के संबंधों को सामान्य बनाने का श्रेय उन दोनों नेताओं को ही दिया जाता है।
मीडिया विश्लेषकों ने कहा है कि किशिदा के कार्यकाल में विदेश नीति को अमेरिका बनाम चीन के नजरिए से देखने का ट्रेंड कमजोर पड़ सकता है। इसके बदले दूसरे देशों के साथ संबंधों को बढ़ाने की नीति पर जापान चल सकता है। उन देशों में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, फ्रांस, और जर्मनी शामिल हैँ।
अमेरिकी थिंक टैंक रैंड कॉर्प में राजनीतिक शास्त्री जेफरी हॉर्नंग के मुताबिक अफगानिस्तान में जो तर्जुर्बा रहा, उसका असर अब अमेरिका जापान संबंधों पर पड़ सकता है। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने जो गलत आकलन किया, उसका असर दुनिया भर में अमेरिका के सहयोगी देशों पर पड़ा है। ये देश अब पूछ रहे हैं कि अगर चीन से उनका संघर्ष हुआ, तो उनकी मदद के लिए अमेरिका किस हद तक आगे आएगा?
विस्तार
फुमियो किशिदा के जापान का प्रधानमंत्री बनने की औपचारिक पुष्टि के बाद अब पर्यवेक्षकों का ध्यान इस पर है कि नए प्रधानमंत्री अमेरिका के साथ जापान के संबंधों को अपनी प्राथमिकता में कहां रखेंगे। पूर्व प्रधानमंत्री शिन्जो आबे के दौरान अपनाई गई नीतियों को अमेरिका के लिए सर्वाधिक अनुकूल समझा जाता था। अमेरिका को उम्मीद है कि किशिदा उन नीतियों को जारी रखेंगे।
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शिन्जो आबे की सरकार में किशिदा विदेश मंत्री थे। विश्लेषकों के मुताबिक जापान और अमेरिका के संबंध इतने गहरे हैं कि सरकारें बदलने से उन पर मोटे तौर पर कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अलग-अलग सरकारों की प्राथमिताओं से बारीक फर्क जरूर पड़ता है। किशिदा ऐसे समय प्रधानमंत्री बने हैं, जब अमेरिका जापान से ये उम्मीद रख रहा है कि वह इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सुरक्षा संबंधी अधिक बड़ी भूमिका निभाए। लेकिन पर्यवेक्षकों के मुताबिक अफगानिस्तान से जिस तरह अनियोजित ढंग से अमेरिका ने अपनी फौज लौटाई, उससे जापान में भी इस सवाल पर चर्चा चल रही है कि अमेरिका पर कितना भरोसा किया जा सकता है।
अमेरिका की जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में स्थित इलियट स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में जापान-अमेरिका संबंधों के विशेषज्ञ माइक मोचिजुकी वेबसाइट निक्कई एशिया से कहा- ‘जापान में आबे का युग निश्चित रूप से खत्म हो गया है। अब जापानी राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई है।’ आबे लगभग आठ साल तक जापान के प्रधानमंत्री रहे। उस दौरान अमेरिका के साथ जापान के संबंधों में स्थिरता आई थी। उस दौरान जापान ने अपने को ज्यादा करीबी से अमेरिकी धुरी से जोड़ा।
निवर्तमान प्रधानमंत्री योशिहिडे सुगा आबे के समय मुख्य कैबिनेट सचिव थे। अपने एक साल के कार्यकाल में उन्होंने अमेरिका के मामले में मोटे तौर पर आबे की नीतियों को जारी रखा। मुचिजुकी ने कहा- ‘अमेरिका निश्चित रूप से चाहेगा कि किशिदा का कार्यकाल आबे की नीतियों का तीसरा अध्याय साबित हो। लेकिन उसकी ये इच्छा अनुचित और यथार्थ से दूर होगी।’ उन्होंने कहा- ‘किशिदा जापान की सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी में तनाका-ओहिरा लाइन के समर्थक माने जाते हैं। ये लाइन चीन के साथ संबंध को महत्त्व देने की है। इस लाइन में जोर टकराव को बढ़ावा ना देने पर रहा है।’ काकुई तनाका 1970 के दशक में जापान के प्रधानमंत्री थे। माययोशी ओहिरा उनके विदेश मंत्री थे। चीन के साथ जापान के संबंधों को सामान्य बनाने का श्रेय उन दोनों नेताओं को ही दिया जाता है।
मीडिया विश्लेषकों ने कहा है कि किशिदा के कार्यकाल में विदेश नीति को अमेरिका बनाम चीन के नजरिए से देखने का ट्रेंड कमजोर पड़ सकता है। इसके बदले दूसरे देशों के साथ संबंधों को बढ़ाने की नीति पर जापान चल सकता है। उन देशों में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, फ्रांस, और जर्मनी शामिल हैँ।
अमेरिकी थिंक टैंक रैंड कॉर्प में राजनीतिक शास्त्री जेफरी हॉर्नंग के मुताबिक अफगानिस्तान में जो तर्जुर्बा रहा, उसका असर अब अमेरिका जापान संबंधों पर पड़ सकता है। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने जो गलत आकलन किया, उसका असर दुनिया भर में अमेरिका के सहयोगी देशों पर पड़ा है। ये देश अब पूछ रहे हैं कि अगर चीन से उनका संघर्ष हुआ, तो उनकी मदद के लिए अमेरिका किस हद तक आगे आएगा?
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