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Afghanistan Crisis: अफगानिस्तान पर हुआ तालिबान का कब्जा, अब आगे क्या होगा

अमर उजाला रिसर्च टीम Published by: Jeet Kumar Updated Wed, 18 Aug 2021 07:15 AM IST
सार

  • भारी मात्रा में सैन्य साजो-सामान पर किया कब्जा, यहां भी इराक जैसा हश्र हुआ अमेरिका के साथ
  • अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा के चंद दिनों बाद ही तालिबान ने आक्रामक हमले शुरू कर दिए
  • अफगानिस्तानियों को सबसे ज्यादा डर तालिबान के निरंकुश और अराजक शासन का है

Taliban in Afghanistan: Now Taliban Will Decide The Future Of Afghanistan
तालिबान - फोटो : पीटीआई

विस्तार

अमेरिकी फौज की पूर्ण वापसी से दो हफ्ते पहले ही तालिबान ने अफगानिस्तान को अपने शिकंजे में ले लिया। उसके लड़ाकों ने महज कुछ दिनों में तमाम बड़े शहरों में घुसकर अराजकता मचा दी है। अमेरिका और अफगान सुरक्षाबलों के घुटने टेकने के बाद दुनिया बस यह सब देखने को मजबूर है। आज हर कोई जानना चाहता है कि अफगानिस्तान में अब आगे क्या। पेश है अतीत, वर्तमान और भविष्य की दास्तां...



अफगानिस्तान का वर्तमान जानने के लिए उसके अतीत पर गौर करना जरूरी है। 1990 के दशक के अंत में देश पर यही तालिबान राज कर रहा था और अब एक बार फिर उसका कब्जा हो गया है।


11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए अलकायदा के हमले के बाद वॉशिंगटन ने आतंकी ओसामा बिन लादेन और उसे शरण देने वाले तालिबान को तहस-नहस कर सत्ता से हटा दिया था।

दुनिया को लगा कि तालिबान का काम तमाम हो गया, लेकिन असल में वह अफगानिस्तान छोड़कर कभी गया ही नहीं। दो दशकों तक जान-माल के व्यापक नुकसान के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा के चंद दिनों बाद ही तालिबान ने आक्रामक हमले शुरू कर दिए। कमजोर अफगान फौज ढह गई और हारा हुआ मुंह लेकर अमेरिकी अपने मुल्क लौट गए। यह देखकर अफगानी खुद मुल्क छोड़कर भागने लगे।

अमेरिका फौज की पूर्ण वापसी की योजना अरसे से बताता आ रहा था। लेकिन राष्ट्रपति जो बाइडन ने आते ही इसे अंजाम देना शुरू कर दिया। तालिबान यह देखकर संगठित होने लगा और समर्थकों से हथियार-पैसे की आपूर्ति बढ़ने लगी। उसे मालूम था कि अमेरिकी मदद के बिना अफगान फौज लंबे समय तक उसके सामने नहीं टिक पाएगी। कई इलाकों में तो उसने बिना संघर्ष ही घुटने टेक दिए।

लिहाजा, अमेरिका के इस माह अफगानिस्तान से पूरी तरह लौटने से पहले ही काबुल पर कब्जा करने की रणनीति से तालिबान ने संदेश दिया है कि उसने महाशक्ति को धूल चटा दी। जगजाहिर है कि अमेरिका का उसका 20 साल का लंबा संघर्ष बेनतीजा रहा।
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हालांकि, 2001 में उसने अफगानिस्तान में घुसते ही तालिबान को खदेड़ दिया था पर, क्षेत्रों पर कब्जा कायम रखना और अरसे से युद्धग्रस्त देश को फिर से खड़ा करना चुनौतीपूर्ण बना रहा। ऐसे में पिछले साल तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान छोड़ने का एलान कर दिया था।

अफगान सेना पल भर में कैसे ढेर हो गई
इसका मोटे तौर पर एक ही जवाब है-भ्रष्टाचार। अमेरिका और नाटो सहयोगियों ने अफगान सुरक्षाबलों को प्रशिक्षित करने के लिए खरबों रुपये खर्च डाले पर पश्चिम समर्थित अफगान सरकार भ्रष्टाचार में डूबी रही। अफगान कमांडरों ने संसाधनों में हेरफेर करने के लिए सैनिकों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर पेश की।

जब युद्ध की नौबत आई तो सैनिकों के पास गोला-बारूद और खाने-पीने तक की चीजों की कमी हो गई। अमेरिका लौटने लगा तो अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी बिना संघर्ष खुद भाग खड़े हुए। नतीजा मुल्क की हार के रूप में सबके सामने है। बाइडन ने कहा, इसका अंदाजा नहीं था कि अफगान सरकार इतनी जल्दी घुटने टेक देगी।

अफगानिस्तानियों को सबसे ज्यादा डर तालिबान के निरंकुश और अराजक शासन का है, जो वह पहले भुगत चुके हैं। जाहिर है वे नई पीढ़ी को उसके शरिया राज में फंसते नहीं देखना चाहते। बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने इस आतंकी गुट के खिलाफ सरकार और अमेरिका की मदद की है। अब वे तालिबानी बदले को लेकर खौफजदा हैं।

हालांकि, तालिबान दोहराता रहा है कि वह पहले जैसे हालात पैदा नहीं करेगा। वह बदला नहीं लेगा और महिलाओं-बेटियों की सुरक्षा करेगा। लेकिन उसकी बात पर शायद ही कोई अफगानिस्तानी नागरिक भरोसा करे। ऐसे में आजाद जिंदगी के लिए उनके पास देश को अलविदा कहने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

अब अफगान में आगे क्या 

फिलहाल तो तालिबान का ही राज है और इससे ज्यादा कहने-समझने को कुछ नहीं है। यह कट्टरपंथी गुट दावा तो समावेशी सरकार का कर रहा है, लेकिन इस्लामिक राज स्थापित होने से कोई इनकार नहीं कर सकता। बताया जा रहा है कि तालिबानी सरकार के मौजूदा और पूर्व वरिष्ठ नेताओं से बातचीत कर रहे हैं।

तालिबान का कहना है कि इस्लामिक कानून के साथ महिलाओं को सरकार में भागीदारी देगा। लेकिन खुद अफगानिस्तानियों को उसके हिंसक, अराजक और शोषक बर्ताव की पुरजोर आशंका है। वजह भी साफ है क्योंकि कुछेक क्षेत्रों में उन्होंने नौजवान और विधवा महिलाओं की सूची मांगनी शुरू कर दी है।




साथ ही वह देश का नाम इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान रखना चाहता है। यही सोच 90 के दशक में भी थी। तो ऐसे में वहां समावेशी सरकार फिलहाल सपना ही है।

क्या अलकायदा और आईएस फिर से उभरेंगे
अफगानिस्तान में डर सिर्फ तालिबान से ही नहीं है बल्कि उसके राज में अलकायदा के फिर से खड़े होने का भी है। अमेरिकी सेना की बड़ी चिंता यही है। वैसे, दोहा समझौते में तालिबान ने अमेरिका से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का वादा किया था। लेकिन अमेरिका को इसमें जरा-भी भरोसा नहीं है क्योंकि अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएस) से जुड़े गुट सक्रिय हैं और वे शियाओं पर हमला करते रहे हैं।

हालांकि, तालिबान ने इन हमलों की निंदा की है और वह आईएस से क्षेत्रों पर कब्जे के लिए लड़ता रहा है। ऐसे में देखने वाली बात होगी कि तालिबान अपने राज में आईएस को कितना काबू में रख पाता है।     

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