Movie Review: कागज
कलाकार: पंकज त्रिपाठी, एम मोनल गुज्जर, मीता वशिष्ठ, नेहा चौहान, संदीपा धर, ब्रिजेंद्र काला और सतीश कौशिक
पटकथा और संवाद: इम्तियाज हुसैन
कथा, निर्देशक: सतीश कौशिक
रेटिंग: ***1/2
कोरोना महामारी जिन दिनों अपने चरम पर रही, देश के तमाम बुजुर्ग जिनमें से बहुतों की उम्र मेरे पिता की तरह 80 साल से ऊपर भी रही होगी, अपने अपने जिलों के मुख्यालय का इस बात के लिए चक्कर लगाते रहे कि सरकारी कागजों में उनके जीवित होने का प्रमाण दर्ज हो जाए। ये काम इन बुजुर्गों को देश में हर साल करना होता है। इंसान को खुद हाजिर होकर बताना होता है कि वह जिंदा है, सरकार इसके बाद ही उसकी पेंशन जारी रखती है। लेकिन, क्या बीती होगी उन सैकड़ों लोगों पर जिनको उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों में 25-30 साल पहले थोक के भाव कागजों पर मुर्दा घोषित कर दिया गया। भूमाफियों ने लोगों की जमीनें हड़पने के लिए शहर से लेकर गांव देहात तक सब जगह ये सामूहिक अभियान चलाया, बस एक ‘आम आदमी’ की ताकत उन्होंने नजर अंदाज कर दी। शाहरुख खान ने भी तो थोड़ा देर से ही कहा ना, 'डोंट अंडर एस्टिमेट द पॉवर ऑफ ए कॉमन मैन।’
तो ये कहानी है एक कॉमन मैन की। आपने कभी गौर किया कि कैसे सिनेमा से कॉमन मैन यानी कि एक आम आदमी को धीरे धीरे हाशिये पर पहुंचा दिया गया है। अब कहानियां उन लोगों की दिखती हैं जिनके बारे में सिनेमा बनाने वाले जानते हैं। जो सिनेमा को जानते हैं, उनकी कहानियों का क्या? कभी कभार एक ‘परीक्षा’, एक ‘मट्टू की साइकिल’ या एक ‘अनारकली ऑफ आरा’ आ जाती है, और फिर लाइन लग जाती है ऐसी फिल्मों की जिनमें कहने को तो आम आदमी की कहानी होती है, लेकिन ये आम आदमी आम लोगों को अपने बीच कम ही दिखता है। सतीश कौशिक ने भी अपनी फिल्म ‘कागज’ का ये आम आदमी 17 साल पहले तलाशा था और दाद देनी चाहिए उनके जीवट, जिद और जज्बात की कि वह लगातार इस कहानी को परदे पर पहुंचाने के लिए प्रयास करते रहे।
सतीश कौशिक की सुझाई कहानी पर ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘परिंदा’, ‘वास्तव’ और ‘अस्तित्व’ जैसी कालजयी फिल्मों के संवाद लिखने वाले इम्तियाज हुसैन ने एक शानदार पटकथा लिखी है फिल्म ‘कागज’ के लिए। फिल्म में बयां की गई कहानी के असली किरदारों लाल बिहारी ‘मृतक’ आदि के साथ बैठकर की गई हफ्तों की रिसर्च का असर फिल्म की बुनावट पर दिखता है। कुछ संवाद फिल्म के आखिर तक कानों में गूंजते रह जाते हैं, ‘कर्ज लेना कुत्ता पालने जैसा है। रोज रोटी देना पड़ता है। रोज उसका भौंकना सुनना पड़ता है और कभी कभी रोटी न दो तो वह काटने भी दौड़ता है।’
सतीश कौशिक की कलाकारी इसी में रही है कि वह आम जन जीवन के अनुभूतियों को बहुत बारीकी से पकड़ते हैं और उन्हें न सिर्फ अपने अभिनय बल्कि बतौर निर्देशक फिल्म बनाते समय अपने कलाकारों के अभिनय में भी पिरो देने में कामयाब रहते हैं। वह पैसे बनाने वाले निर्माताओं के निर्देशक नहीं हैं। वह सिनेमा बनाने की चाह रखने वाले लोगों के फिल्म निर्देशक हैं, ये फिल्म ‘कागज’ से उन्होंने एक बार फिर साबित किया है।
लेखन और निर्देशन के बाद फिल्म में जो कुछ है तो वह पंकज त्रिपाठी हैं। देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि हिंदी सिनेमा में फिर से पंकज त्रिपाठी जैसे अभिनय संपन्न कलाकारों को लीड रोल में लेकर फिल्में बनती हैं और रिलीज भी होती हैं। अमोल पालेकर बहुत याद आते हैं पंकज त्रिपाठी को देखकर। ये तो ओटीटी की बलिहारी है कि फिल्म सर्वसुलभ हो सकी। नहीं तो सतीश कौशिक शायद ही ये फिल्म वहां तक पहुंचा पाते, जहां के लिए उन्होंने इसे बनाया है।