जितेंद्र भारद्वाज, अमर उजाला, नई दिल्ली
Updated Tue, 23 Jul 2019 07:44 PM IST
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कारगिल युद्ध में देश की टॉप इंटेलीजेंस एजेंसियां फेल हो गई थी। आंतरिक घटनाक्रम पर नजर रखने वाली आईबी, बाहरी मामलों को ट्रैक कर रही रॉ और आर्मी की अपनी थ्री इन्फेंटरी की इंटेलीजेंस यूनिट को पाकिस्तानी सेना के ऑपरेशन की भनक नहीं लग सकी। जून 1998 से लेकर अप्रैल 1999 तक इन सभी एजेंसियों ने एक जैसी रिपोर्ट दी कि पाकिस्तान की ओर से विभिन्न सीमाओं पर जेहादियों की घुसपैठ कराई जा सकती है। पाकिस्तानी आर्मी की तैयारियों और युद्ध जैसी स्थिति पर किसी भी एजेंसी ने कोई इनपुट नहीं दिया। वजह, उस वक्त किसी भी एजेंसी का सीमा पार कोई मजबूत नेटवर्क नहीं था। साथ ही एलओसी के आसपास बसे गांवों में भी स्थानीय लोगों और वर्दी (सेना, पुलिस व इंटेलीजेंस यूनिट) के बीच तनावपूर्ण संबंध थे।
कारगिल युद्ध के दौरान आर्मी चीफ रहे जन. वीपी मलिक (सेवानिवृत) ने अपनी किताब 'फ्रॉम सरप्राइज टू विक्टरी' के चेप्टर 'दा डार्क विंटर' में उक्त तथ्यों का जिक्र किया है। जन. मलिक लिखते हैं कि उस वक्त पाकिस्तानी मिलिट्री को ट्रैक करने की जिम्मेदारी रॉ को दी गई थी। करीब एक साल तक पाकिस्तान के फोर्स कमांडर नॉर्दन एरिया (एफसीएनए) से जुड़ी कोई सूचना नहीं मिल पाई। पाकिस्तान ने किस तरह धीरे-धीरे दो अतिरिक्त बटालियन और हैवी ऑर्टिलरी गिलगिट क्षेत्र की ओर बढ़ाई, यह जानकारी भारतीय इंटेलीजेंस एजेंसियों के पास नहीं थी। आईबी से रिपोर्ट मांगी गई तो वहां से भी जेहादी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने का अलर्ट आता रहा।
जून-1998 में आईबी ने एक अन्य रिपोर्ट दी। इसमें बताया गया कि पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के कैंप से 50-150 किलोमीटर उत्तर की ओर यानी द्रास कारगिल के सामने वाले क्षेत्र में जेहादियों की हलचल हो सकती है। रणनीतिक तौर पर इस रिपोर्ट का मतलब यह लगाया गया कि जेहादी समूह कश्मीर घाटी या द्रास कारगिल की ओर घुसपैठ कर सकते हैं। इस रिपोर्ट में मिलिट्री ऑपरेशन का जिक्र नहीं था। अत्याधित ऊंचाई पर स्थित भारतीय चौकियों के आसपास क्या कुछ चल रहा है, इस बाबत कोई स्टीक सूचना नहीं दी गई। आईबी की यह सूचना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और डीजीएमओ (डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशन), रक्षा मंत्रालय व गृह मंत्रालय को भेजी गई थी। इन सब सूचनाओं से यही संकेत निकाला गया कि जेहादी एलओसी के पार किसी भूभाग पर कब्जा करने की मंशा से नहीं आते, बल्कि वे हिट एंड रन की नीति फॉलो करते हैं।
ज्वाइंट इंटेलीजेंस सेंटर ने एक रिपोर्ट दी, लेकिन उसका संदर्भ कुछ और बता दिया गया...
जन. मलिक के मुताबिक, जुलाई 1998 में ज्वाइंट इंटेलीजेंस सेंटर (जेआईसी) ने एक खुफिया रिपोर्ट दी। इसमें पाकिस्तानी आर्मी का जिक्र था। एलओसी के आसपास छोटे हथियारों के पहुंचने का भी अलर्ट मिला। फायरिंग की बात भी कही गई। अंतिम तौर से जब इस सूचना का निष्कर्ष निकाला गया तो उसमें पाकिस्तानी सेना का ऑपरेशन, यह शब्द कहीं गायब हो गया। केवल यह बात कही गई कि पाक की ओर से हो रही फायरिंग का मकसद आतंक फैलाकर श्रीनगर-कारगिल-लेह हाइवे को बाधित कराना है। जम्मू क्षेत्र के लिए इस रिपोर्ट में यह कह दिया गया कि फायरिंग का लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा पर चल रहे फेसिंग कार्य में बाधा पहुंचाना है। जुलाई 1998 में ही यूएस और पाक के बीच हुई वार्ता में जब पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने कहा, भारत के साथ खराब संबंधों की जड़ कश्मीर समस्या है। उन्होंने इस समस्या को कोर इश्यू बताया था। इतना ही नहीं, पाक प्रतिनिधि ने यह भी कह दिया कि दोनों देशों के बीच चल रही टेंशन परमाणु युद्ध की ओर बढ़ सकती है।
अप्रैल 1999, यानी कारगिल युद्ध से पहले तक पाकिस्तानी सेना के ऑपरेशन की भनक नहीं लग सकी...
जेआईसी ने अप्रैल 1999 में एक और रिपोर्ट दी। इसमें लाहौर घोषणा के बाद की स्थिति का भी जिक्र था। भारत ने अग्नि-2 मिसाइल का परीक्षण किया तो पाकिस्तान ने भी गौरी और शाहीन मिसाइल का परीक्षण कर दिया। इंटेलीजेंस रिपोर्ट में उक्त बातों का विश्लेषण कर नई रिपोर्ट तैयार की गई। इसके बाद आईबी ने एक अलग रिपोर्ट जारी की। इसमें लिखा था कि सीमा पार कुछ नए आतंकी समूह तैयार हो रहे हैं। वे किसी भी वक्त घुसपैठ कर सकते हैं। हालांकि इस रिपोर्ट में संभावित क्षेत्रों का जिक्र नहीं किया गया। पिछले दिनों सीमा पर हुई फायरिंग की बात तो अलर्ट में कह दी गई, मगर उसमें भी आर्मी टेंशन जैसा कोई खतरा नहीं बताया गया। आईबी की रिपोर्ट से डायरेक्ट मिलिट्री कॉन्फ्लिक्ट जैसी सूचना नदारद थी। 14 जून 1999 को नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सिस्टम (एनएससीएस) की रिपोर्ट आई। इसमें लिखा था कि पाकिस्तान लड़ाई कर सकता है, तैयारी कर लें। यहां भी शॉर्ट टर्म वॉर शब्दों का इस्तेमाल किया गया। यहां तक कि जून में आईबी की रिपोर्ट घुसपैठ के आसपास घूमती रही।
भारतीय इंटेलीजेंस एजेंसियों को सूचनाएं क्यों नहीं मिली, यह रही असली वजह...
'दा डार्क विन्टर' चेप्टर में लिखा है कि सीमा पार हमारी इंटेलीजेंस एजेंसियों का कोई खास प्रभाव नहीं था। उनके सूत्र ऐसे नहीं थे कि जिनकी मदद से अंदर की बात यानी पाकिस्तानी आर्मी की तैयारियों और ऑपरेशन की जानकारी मिल सके। पाकिस्तान में भारतीय इंटेलीजेंस एजेंसियों के वालंटियर नहीं थे। द्रास कारगिल तक पाकिस्तान की दो बटालियन पहुंच गई हैं और उनके मिलिट्री ऑपरेशन की रणनीति, ये सूचनाएं भारतीय एजेंसियों को नहीं मिल सकी। जन. वेद प्रकाश मलिक ने अपनी किताब में इस बात का खासतौर पर जिक्र किया है कि 3 इंफेंटरी डिवीजन की इंटेलीजेंस विंग को भी सही जानकारी नहीं मिल सकी। उसकी जानकारी काफी बिखरी हुई थी। तथ्य आपस में जुड़ नहीं पा रहे थे। कारगिल युद्ध के बाद यह महसूस किया गया कि सीमा पर स्थानीय लोगों और आर्मी या दूसरे सुरक्षा बलों के बीच संबंध बहुत जरूरी हैं। कारगिल की लड़ाई से पहले किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। हालांकि युद्ध के बाद सभी एजेंसियों ने लोकल और वर्दी के बीच के अंतर को पाटने में जी जान लगा दी। सीमा पर सिविल ऐक्शन प्रोग्राम इसी रणनीति का हिस्सा है।
कारगिल युद्ध में देश की टॉप इंटेलीजेंस एजेंसियां फेल हो गई थी। आंतरिक घटनाक्रम पर नजर रखने वाली आईबी, बाहरी मामलों को ट्रैक कर रही रॉ और आर्मी की अपनी थ्री इन्फेंटरी की इंटेलीजेंस यूनिट को पाकिस्तानी सेना के ऑपरेशन की भनक नहीं लग सकी। जून 1998 से लेकर अप्रैल 1999 तक इन सभी एजेंसियों ने एक जैसी रिपोर्ट दी कि पाकिस्तान की ओर से विभिन्न सीमाओं पर जेहादियों की घुसपैठ कराई जा सकती है। पाकिस्तानी आर्मी की तैयारियों और युद्ध जैसी स्थिति पर किसी भी एजेंसी ने कोई इनपुट नहीं दिया। वजह, उस वक्त किसी भी एजेंसी का सीमा पार कोई मजबूत नेटवर्क नहीं था। साथ ही एलओसी के आसपास बसे गांवों में भी स्थानीय लोगों और वर्दी (सेना, पुलिस व इंटेलीजेंस यूनिट) के बीच तनावपूर्ण संबंध थे।
कारगिल युद्ध के दौरान आर्मी चीफ रहे जन. वीपी मलिक (सेवानिवृत) ने अपनी किताब 'फ्रॉम सरप्राइज टू विक्टरी' के चेप्टर 'दा डार्क विंटर' में उक्त तथ्यों का जिक्र किया है। जन. मलिक लिखते हैं कि उस वक्त पाकिस्तानी मिलिट्री को ट्रैक करने की जिम्मेदारी रॉ को दी गई थी। करीब एक साल तक पाकिस्तान के फोर्स कमांडर नॉर्दन एरिया (एफसीएनए) से जुड़ी कोई सूचना नहीं मिल पाई। पाकिस्तान ने किस तरह धीरे-धीरे दो अतिरिक्त बटालियन और हैवी ऑर्टिलरी गिलगिट क्षेत्र की ओर बढ़ाई, यह जानकारी भारतीय इंटेलीजेंस एजेंसियों के पास नहीं थी। आईबी से रिपोर्ट मांगी गई तो वहां से भी जेहादी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने का अलर्ट आता रहा।
जून-1998 में आईबी ने एक अन्य रिपोर्ट दी। इसमें बताया गया कि पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के कैंप से 50-150 किलोमीटर उत्तर की ओर यानी द्रास कारगिल के सामने वाले क्षेत्र में जेहादियों की हलचल हो सकती है। रणनीतिक तौर पर इस रिपोर्ट का मतलब यह लगाया गया कि जेहादी समूह कश्मीर घाटी या द्रास कारगिल की ओर घुसपैठ कर सकते हैं। इस रिपोर्ट में मिलिट्री ऑपरेशन का जिक्र नहीं था। अत्याधित ऊंचाई पर स्थित भारतीय चौकियों के आसपास क्या कुछ चल रहा है, इस बाबत कोई स्टीक सूचना नहीं दी गई। आईबी की यह सूचना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और डीजीएमओ (डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशन), रक्षा मंत्रालय व गृह मंत्रालय को भेजी गई थी। इन सब सूचनाओं से यही संकेत निकाला गया कि जेहादी एलओसी के पार किसी भूभाग पर कब्जा करने की मंशा से नहीं आते, बल्कि वे हिट एंड रन की नीति फॉलो करते हैं।
ज्वाइंट इंटेलीजेंस सेंटर ने एक रिपोर्ट दी, लेकिन उसका संदर्भ कुछ और बता दिया गया...
जन. मलिक के मुताबिक, जुलाई 1998 में ज्वाइंट इंटेलीजेंस सेंटर (जेआईसी) ने एक खुफिया रिपोर्ट दी। इसमें पाकिस्तानी आर्मी का जिक्र था। एलओसी के आसपास छोटे हथियारों के पहुंचने का भी अलर्ट मिला। फायरिंग की बात भी कही गई। अंतिम तौर से जब इस सूचना का निष्कर्ष निकाला गया तो उसमें पाकिस्तानी सेना का ऑपरेशन, यह शब्द कहीं गायब हो गया। केवल यह बात कही गई कि पाक की ओर से हो रही फायरिंग का मकसद आतंक फैलाकर श्रीनगर-कारगिल-लेह हाइवे को बाधित कराना है। जम्मू क्षेत्र के लिए इस रिपोर्ट में यह कह दिया गया कि फायरिंग का लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा पर चल रहे फेसिंग कार्य में बाधा पहुंचाना है। जुलाई 1998 में ही यूएस और पाक के बीच हुई वार्ता में जब पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने कहा, भारत के साथ खराब संबंधों की जड़ कश्मीर समस्या है। उन्होंने इस समस्या को कोर इश्यू बताया था। इतना ही नहीं, पाक प्रतिनिधि ने यह भी कह दिया कि दोनों देशों के बीच चल रही टेंशन परमाणु युद्ध की ओर बढ़ सकती है।
अप्रैल 1999, यानी कारगिल युद्ध से पहले तक पाकिस्तानी सेना के ऑपरेशन की भनक नहीं लग सकी...
जेआईसी ने अप्रैल 1999 में एक और रिपोर्ट दी। इसमें लाहौर घोषणा के बाद की स्थिति का भी जिक्र था। भारत ने अग्नि-2 मिसाइल का परीक्षण किया तो पाकिस्तान ने भी गौरी और शाहीन मिसाइल का परीक्षण कर दिया। इंटेलीजेंस रिपोर्ट में उक्त बातों का विश्लेषण कर नई रिपोर्ट तैयार की गई। इसके बाद आईबी ने एक अलग रिपोर्ट जारी की। इसमें लिखा था कि सीमा पार कुछ नए आतंकी समूह तैयार हो रहे हैं। वे किसी भी वक्त घुसपैठ कर सकते हैं। हालांकि इस रिपोर्ट में संभावित क्षेत्रों का जिक्र नहीं किया गया। पिछले दिनों सीमा पर हुई फायरिंग की बात तो अलर्ट में कह दी गई, मगर उसमें भी आर्मी टेंशन जैसा कोई खतरा नहीं बताया गया। आईबी की रिपोर्ट से डायरेक्ट मिलिट्री कॉन्फ्लिक्ट जैसी सूचना नदारद थी। 14 जून 1999 को नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सिस्टम (एनएससीएस) की रिपोर्ट आई। इसमें लिखा था कि पाकिस्तान लड़ाई कर सकता है, तैयारी कर लें। यहां भी शॉर्ट टर्म वॉर शब्दों का इस्तेमाल किया गया। यहां तक कि जून में आईबी की रिपोर्ट घुसपैठ के आसपास घूमती रही।
भारतीय इंटेलीजेंस एजेंसियों को सूचनाएं क्यों नहीं मिली, यह रही असली वजह...
'दा डार्क विन्टर' चेप्टर में लिखा है कि सीमा पार हमारी इंटेलीजेंस एजेंसियों का कोई खास प्रभाव नहीं था। उनके सूत्र ऐसे नहीं थे कि जिनकी मदद से अंदर की बात यानी पाकिस्तानी आर्मी की तैयारियों और ऑपरेशन की जानकारी मिल सके। पाकिस्तान में भारतीय इंटेलीजेंस एजेंसियों के वालंटियर नहीं थे। द्रास कारगिल तक पाकिस्तान की दो बटालियन पहुंच गई हैं और उनके मिलिट्री ऑपरेशन की रणनीति, ये सूचनाएं भारतीय एजेंसियों को नहीं मिल सकी। जन. वेद प्रकाश मलिक ने अपनी किताब में इस बात का खासतौर पर जिक्र किया है कि 3 इंफेंटरी डिवीजन की इंटेलीजेंस विंग को भी सही जानकारी नहीं मिल सकी। उसकी जानकारी काफी बिखरी हुई थी। तथ्य आपस में जुड़ नहीं पा रहे थे। कारगिल युद्ध के बाद यह महसूस किया गया कि सीमा पर स्थानीय लोगों और आर्मी या दूसरे सुरक्षा बलों के बीच संबंध बहुत जरूरी हैं। कारगिल की लड़ाई से पहले किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। हालांकि युद्ध के बाद सभी एजेंसियों ने लोकल और वर्दी के बीच के अंतर को पाटने में जी जान लगा दी। सीमा पर सिविल ऐक्शन प्रोग्राम इसी रणनीति का हिस्सा है।