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अध्ययन : दुर्लभ बीमारियों का इलाज तलाशने में जुटे 18 संस्थान, शोधार्थी तैयार करेंगे मरीजों का डाटाबेस

अमर उजाला ब्यूरो, नई दिल्ली। Published by: Amit Mandal Updated Fri, 03 Feb 2023 06:13 AM IST
सार

हरियाणा के सोनीपत स्थित अशोक विश्वविद्यालय ने देश के 18 संस्थानों के कुल 38 शोधार्थियों के साथ मिलकर दुर्लभ बीमारियों पर अध्ययन शुरू किया है।

Study: 18 institutes engaged in finding cure for rare diseases, researchers will prepare database of patients
सांकेतिक फोटो - फोटो : istock

विस्तार

देश में करीब 10 लाख लोगों को अपनी चपेट में लेने वाली दुर्लभ बीमारियों के इलाज की खोज के लिए 18 संस्थानों के शोधार्थी एक साथ आए हैं। इनका उद्देश्य तीन गंभीर दुर्लभ बीमारियों के लिए जीन या फिर एमआरएनए थेरेपी आधारित उपचार विकसित करना है। इसके शुरुआती चरण में देश में पांच क्लीनिक सेंटर खोले गए हैं, जहां इनका डाटाबेस तैयार किया जाएगा।


हरियाणा के सोनीपत स्थित अशोक विश्वविद्यालय ने देश के 18 संस्थानों के कुल 38 शोधार्थियों के साथ मिलकर दुर्लभ बीमारियों पर अध्ययन शुरू किया है। इसमें ड्यूकेन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी, जीएनई मायोपैथी और लिंब-गर्डल मस्कुलर डिस्ट्रॉफी (एलजीएमडी) नामक बीमारियों के उपचार की खोज की जा रही है। ब्यूरो


सरकार से मांगी मदद
शोधकर्ताओं के अनुसार, अध्ययन के लिए आर्थिक सहायता के लिए सरकार से मदद भी मांगी है।

ये 3 दुर्लभ बीमारियां...
1.    ड्यूकेन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी
2.    जीएनई मायोपैथी
3.    लिंब-गर्डल मस्कुलर डिस्ट्रॉफी (एलजीएमडी)

रोगी पर असर
  • यह बीमारियां मांसपेशियों को कमजोर कर देती हैं और रोगी के स्थायी विकलांगता का कारण बन सकती हैं।
  • मुंबई, बंगलूरू, चेन्नई, दिल्ली और गुजरात में सेंटर खोले
  • अशोक विवि के प्रो. आलोक भट्टाचार्य ने बताया, उनका लक्ष्य व्यापक डाटाबेस तैयार करना और रोग की प्रगति पर शोध करना है। पहले चरण में मुंबई, बंगलूरू, चेन्नई, दिल्ली और आणंद में क्लीनिक सेंटर खोले जा रहे हैं, जहां इन रोगियों का उपचार होगा।
95% का अभी नहीं है इलाज
  • शोधकर्ताओं के अनुसार, लगभग 95 प्रतिशत दुर्लभ बीमारियों का इलाज नहीं होता है।
  • ज्यादातर मामलों में रोगियों को विकलांगता के साथ रहना पड़ता है, जो अक्सर 20 वर्ष की आयु से अधिक मृत्यु का कारण बनता है।
  • पांच प्रतिशत बीमारियों के इलाज पर करोड़ों रुपये खर्च आता है। अधिकांश दवाएं विदेशों में बनाई जाती हैं। इसलिए देश में इन रोगियों का एक बड़ा समूह इलाज से वंचित रहता है।

 
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