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Amar Ujala Interview with Australia former Minister for Communications Paul Fletcher
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Interview: ऑस्ट्रेलिया के पूर्व संचार मंत्री बोले- डिजिटल मीडिया से जुड़े फैसले सरकार करे, न कि टेक कंपनियां
Amar Ujala Interview-DNPA: पॉल फ्लेचर ऑस्ट्रेलिया के संचार मंत्री रहे हैं। उनके कार्यकाल में ऑस्ट्रेलिया में ऐसा कानून बना, जिसकी वजह से अब वहां बड़ी टेक कंपनियों के लिए आमदनी को डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स के साथ साझा करना जरूरी हो गया।
ऑस्ट्रेलिया के पूर्व संचार मंत्री पॉल फ्लेचर से खास बातचीत।
- फोटो : Amar Ujala
ऑनलाइन कंटेंट से होने वाली कमाई में किसका कितना हिस्सा रहे, इसे लेकर दुनियाभर में लंबे समय से बहस जारी है। ...लेकिन एक देश ऐसा भी है, जिसने इस पर कानून बनाकर बड़ी टेक कंपनियों को नियमों के दायरे में ला दिया। यह देश है ऑस्ट्रेलिया और इस तरह के कानून को आकार देने में अहम भूमिका निभाई पॉल फ्लेचर ने। पॉल 2020 से 2022 तक ऑस्ट्रेलिया के संचार मंत्री रहे। उनके बनाए न्यूज मीडिया बारगेनिंग कोड का असर यह रहा कि ऑस्ट्रेलिया के डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स के लिए बड़ी टेक कंपनियों से मुनाफे में अपनी वाजिब हिस्सेदारी मांगना आसान हो गया।
डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स एसोसिएशन यानी DNPA और एक्सचेंज फॉर मीडिया की डिजिटल कॉन्क्लेव में हिस्सा लेने भारत आए ऑस्ट्रेलिया के सांसद पॉल फ्लेचर से 'अमर उजाला' ने विशेष बातचीत की। वे कहते हैं कि डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स और बड़ी टेक कंपनियों के बीच समानता, निष्पक्षता और पारदर्शिता के लिए सरकार को निर्णय लेने चाहिए, न कि यह नियंत्रण टेक कंपनियों के हाथ में होना चाहिए। पढ़ें, इस मुद्दे पर उनके अनुभव...
1. ऑस्ट्रेलिया में डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स की मदद के लिए कानून बनाने का सफर कैसा रहा? यह कितना मुश्किल था?
पॉल फ्लेचर: मैं तब प्रधानमंत्री मॉरिसन के साथ काम कर रहा था। 2017 से हमने काम शुरू किया था। हमने प्रतिस्पर्धी नियामक से कहा था कि इसकी रूपरेखा तय करें। 2020 में हमने घोषणा की कि हम एक कानून लेकर आएंगे। हमने एक तरफ गूगल-फेसबुक जैसी कंपनियों और दूसरी तरफ समाचार मीडिया के साथ बातचीत शुरू की। कंपनियों और मीडिया को इस पर राय रखने का मौका दिया। 2021 में न्यूज मीडिया बारगेनिंग कोड बना, लेकिन सफर आसान नहीं था। गूगल ने हमसे कहा कि वे सर्च सर्विसेस को वापस ले सकते हैं। तब हमने माइक्रोसॉफ्ट से Bing को ऑस्ट्रेलिया में विस्तार देने की संभावनाओं पर चर्चा की। इसके बाद गूगल से कोई दिक्कत नहीं आई। उधर, फेसबुक ने भी ऑस्ट्रेलियाई न्यूज मीडिया के फेसबुक पेज बंद कर दिए थे। दुर्भाग्य की बात है कि उन्होंने एंबुलेंस, रेप क्राइसिस सेंटर जैसी जरूरी जन सुविधाओं के अहम पेज भी बंद कर दिए। यह आम लोगों के हिसाब से अच्छा कदम नहीं था, लेकिन हम मजबूती से खड़े रहे। हमारे पास मजबूत राजनीतिक नेतृत्व था। इसके बाद से टेक कंपनियों ने न्यूज मीडिया पब्लिशर्स के साथ बातचीत शुरू की।
2. ऑस्ट्रेलिया का डिजिटल मार्केट भारत से थोड़ा अलग है, वहां जो बारगेनिंग कोड बना, क्या वह भारत के लिए भी उपयोगी है?
पॉल फ्लेचर: भारत में मीडिया को लेकर नीतियां क्या होंगी, यह भारत सरकार को देखना है। हम ऑस्ट्रेलिया में हमारे अनुभव को यहां साझा कर सकते हैं। यह जरूर कहूंगा कि भारत के आईटी सेक्टर ने असाधारण सफलता हासिल की है। टीसीएस, इन्फोसिस और विप्रो जैसी कंपनियों की ऑस्ट्रेलिया में बड़े पैमाने पर मौजूदगी है। भारत ने आम नागरिकों तक सेवाएं पहुंचाने में भी आईटी की बड़ी मदद ली है। यह असाधारण है। यह मोदी सरकार, आईटी सेक्टर और मोबाइल सेवा प्रदाताओं की सफलता है।
3. क्या बड़ी टेक कंपनियों की एकाधिकारवादी नीतियां डिजिटल न्यूज मीडिया के लिए चिंता का सबसे बड़ा विषय है?
पॉल फ्लेचर: दरअसल, यह प्रतिस्पर्धा से जुड़ी नीतियों का मसला है। गूगल-फेसबुक ने डिजिटल विज्ञापनों के मामले में असाधारण सफलता हासिल की है। उनकी प्रतिस्पर्धा डिजिटल न्यूज मीडिया से है। उन्हें विज्ञापनों से कमाई का हिस्सा साझा करना चाहिए। वो लोगों को आकर्षित करने के लिए जिस कंटेंट का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह न्यूज मीडिया बनाता है। उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया में अगर किसी वीडियो या खबर पर पाठक आ रहे हैं और अगर इससे विज्ञापनों के जरिए टेक कंपनियां सफलतापूर्वक पैसे कमा रही हैं, तो वह कंटेंट मूल रूप से वहां के टीवी मीडिया या डिजिटल मीडिया का है। यह विषय सिर्फ ऑस्ट्रेलिया का नहीं है। यह भारत, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका जैसे देशों में भी डिजिटल मीडिया का ज्वलंत मुद्दा है। हर देश को अपने कानून बनाने हैं। महत्वपूर्ण बात है कि इससे जुड़े फैसले वहां की संप्रभु सरकारों को करने चाहिए, न कि फैसला लेने का नियंत्रण टेक कंपनियों के हाथ में होना चाहिए। ऑस्ट्रेलिया में गूगल-फेसबुक और न्यूज पब्लिशर्स के बीच क्या संबंध होंगे, इसकी निगरानी सरकार ही करती है।
ऑस्ट्रेलिया के पूर्व संचार मंत्री पॉल फ्लेचर।
- फोटो : Amar Ujala
4. डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स और टेक कंपनियों के बीच समानता और निष्पक्षता के लिए क्या होना चाहिए?
पॉल फ्लेचर: भारत में क्या होना चाहिए, इसे यहां की सरकार को देखना चाहिए। यह जरूर है कि ऑस्ट्रेलिया में जो दिक्कत आई, वही समस्या भारत और तमाम देशों के सामने भी मौजूद है। भारत बड़ा लोकतंत्र है और यहां का मीडिया काफी सक्रिय और जागरूक है। हम यह तो नहीं बता सकते कि भारत को क्या करना चाहिए, लेकिन हम ऑस्ट्रेलिया के अनुभव साझा कर सकते हैं। भारत में वैश्विक स्तर का आईटी सेक्टर है। यहां की डिजिटल अर्थव्यवस्था में सुधार आया है। पूरी दुनिया भारत से सीख सकती है।
5. डीएनपीए जैसी संस्थाओं के जरिए किसी आम सहमति पर पहुंचना कितना मददगार साबित होगा?
पॉल फ्लेचर: डीएनपीए मुद्दा उठाने में सक्षम है। वह मुद्दे को परिभाषित कर सकता है और नीतियां क्या होनी चाहिए, इसकी पैरवी कर सकता है। मुझे खुशी है कि यहां न्यूज मीडिया बारगेनिंग कोड से जुड़ी बातें साझा करने के लिए बुलाया गया है। यहां की सरकार को तय करना है कि वह यहां के साझेदारों और डीएनपीए के विचारों के आधार पर आगे क्या करती है।
6. बड़ी टेक कंपनियों के लिए बतौर विशेषज्ञ आपका संदेश क्या है?
पॉल फ्लेचर: आर्थिक विकास, समेकित विकास और खुशहाली के लिए तकनीक सबसे महत्वपूर्ण है। भारत में टेक्नोलॉजी सबसे अलग है। अगर ऑस्ट्रेलिया में संचार मंत्री के तौर पर अपने काम को याद करूं तो मैं कहूंगा कि बुनियादी सिद्धांत यही है कि सूचना प्रौद्योगिकी को बढ़ावा मिलना चाहिए ताकि दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह बन सके। दूसरी बात यह है कि सरकारों की भूमिका सबसे अहम है। अगर टेक कंपनियां किसी भी देश में जा रही हैं, तो उन्हें वहां के कानून मानने चाहिए। इन दोनों बातों में कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए।
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