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अहिंसा और भाईचारे के प्रतिनिधि थे सीमांत गांधी

उदय प्रकाश अरोड़ा Updated Fri, 29 Jan 2016 08:03 PM IST
Simant Gandhi was representative of truth & non voilence

‘मेरी मुलाकात होने से बहुत पहले बादशाह खां अहिंसा को स्वीकार कर चुके थे। बादशाह खां की मान्यता है कि अहिंसा का अनुसरण करने के सिवाय पठानों के सामने अपना भविष्य बनाने के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इसके बिना और कुछ नहीं, तो उनके बीच होने वाला आपसी रक्तपात ही उनकी प्रगति के मार्ग को रोके रहेगा। वे मानते हैं कि निश्चित रूप से अहिंसा उनके सामने मुक्तिदूत के रूप  प्रकट हुई है। पठान लोग सीमा प्रांत में अपने पांव तभी जमा पाए, जब वे अहिंसा को स्वीकार कर ‘खुदाई खिदमतगार’ (खुदा के सेवक) बन गए।'-ये महात्मा गांधी के शब्द हैं। दुखद है कि जिस शख्स ने अपनी सारी जिंदगी पख्तूनों की आजादी की लड़ाई लड़ने में बिताई, उन्हीं में से कुछ तालिबान से जुड़े कट्टरवादियों ने उनकी स्मृति में बने बाचा खान विश्वविद्यालय को अपनी हिंसा का शिकार बनाया।



कभी पख्तूनों ने बाचा खान के नेतृत्व में अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए अहिंसा को चुना था। अपने भाई के साथ मिलकर खान अब्दुल गफ्फार खां ने पठान सीमा प्रांत में खुदाई खिदमतगारों की एक बड़ी अहिंसक फौज खड़ी की थी, जिसका मकसद कबीलों के बीच हिंसक लड़ाइयों को रोकना था। धीरे-धीरे यह साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध भी खड़ी हुई। 1942 के आंदोलन में जब गांधी के नेतृत्व के बावजूद हिंदुस्तानी अहिंसक नहीं रह सके, तब मात्र पठानों ने अहिंसा कायम रखी।


बादशाह खान ने अहिंसा की शिक्षा गांधी से नहीं, कुरान से ग्रहण की थी। बादशाह खान उस दौर के बाकी लोगों से ज्यादा राष्ट्रवादी थे। राजेंद्र प्रसाद जब संविधान सभा के अध्यक्ष बने, तब उनके स्वागत में आठ भाषण दिए गए थे। उनमें अकेले बादशाह खान थे, जो हिंदुस्तानी में बोले। राष्ट्रीय आंदोलन में इस शर्त पर वह कांग्रेस के साथ रहे कि जब हिंदुस्तान आजाद होगा, तो पठानों को भी आज़ादी मिलेगी। पर जब वह घड़ी आई, तब पठानों को उनकी इच्छा के विरुद्ध पाकिस्तान में मिला दिया गया। बादशाह खान ने कांग्रेस से कहा कि तुमने हमें भेड़ियों के बीच छोड़ दिया। पठानों के सामने विकल्प हिंदुस्तान व पाकिस्तान के बीच नहीं, बल्कि पाकिस्तान और पख्तूनिस्तान के बीच रखा जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ। बादशाह खां विभाजन के विरोधी थे, तो दूसरी ओर सभी राष्ट्रीय नेताओं ने विभाजन का फॉर्मूला मान लिया था। गांधी जी भी कुछ न कर सके। स्वतंत्रता की लड़ाई के आखिरी दौर में बादशाह खान अकेले ही सत्य, अहिंसा और भाईचारे के प्रतिनिधि थे।

विभाजन के बाद भी वह पख्तूनिस्तान के लिए लड़ते रहे। नेहरू, गांधी और कांग्रेस से उनके संबंधों का जो इतिहास था, उसे देखते हुए इस्लामी पाकिस्तान में बाचा खान के लिए जगह नहीं थी। उन्होंने अपने जीवन के 42 साल जेल में काटे, जो गांधी, नेल्सन मंडेला और आंग सान सू की की कैद से बहुत अधिक है।

खुदाई खिदमतगारों ने अब अवामी नेशनलिस्ट पार्टी का रूप ले लिया है। बाचा खां के प्रपौत्र असफंदगार वली खान इस समय पार्टी के अध्यक्ष हैं। 2008-13 के बीच इस दल को पख्तूनी प्रांत में सत्ता में आने का अवसर मिला। तब विभिन्न संस्थाओं को बाचा खां के नाम से जोड़कर उनकी स्मृतियों को ताजा किया गया। वर्तमान बाचा खां विश्वविद्यालय उसी दौर की देन है। यह गर्व की बात है कि गांधी और सीमांत गांधी के संपर्क से जिस विचारधारा ने जन्म लिया है, उसे इस इलाके में नोबल पुरस्कार से सम्मानित मलाला यूसुफजई और विगत 20 जनवरी को आतंकी हमले में शहीद रसायन शास्त्र के प्रोफेसर सैयद हामिद हुसैन ने एक आदर्श उदाहरण की तरह पेश किया है।

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