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झारखंड में रहने वाली कमला देवी (नाम बदला हुआ है) बहुत परेशान हैं। उन्होंने मार्च और अप्रैल, 2018 में सात सप्ताह अपने गांव में कूप निर्माण में काम किया था। सात महीने बाद भी उनको मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ है। पहले छह महीने (अक्तूबर महीने तक) आधार से जॉब कार्ड जुड़ने में दिक्कत के कारण मजदूरी का भुगतान नहीं हो पाया। उसके बाद राज्य की हेल्पलाइन पर शिकायत करने पर जब आधार की समस्या दूर हुई, तो पता चला कि राज्य के मनरेगा खाते में पैसा ही खत्म हो गया।
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कमला देवी अकेली नहीं हैं। देश के करोड़ों ग्रामीण मजदूर ऐसे ही पेट भरने और गांव के विकास के लिए मनरेगा योजना के तहत मेहनत और मजदूरी करते हैं, परंतु कभी आधार संबंधित दिक्कतों के कारण, तो कभी पैसा समाप्त हो जाने के कारण उन्हें महीनों तक मजदूरी नहीं मिलती।
भले ही, राजस्थान, उत्तराखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, जम्मू-कश्मीर और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मनरेगा मजदूरों की मजदूरी का भुगतान नहीं रुका है। मगर भारत सरकार की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, असम में 20 सितंबर से, पश्चिम बंगाल में 10 सितंबर से, हरियाणा में 19 अक्तूबर से, हिमाचल प्रदेश में चार अक्तूबर से, कर्नाटक में 24 अक्तूबर से, केरल में 11 सितंबर से, ओडिशा में चार अक्तूबर से, पंजाब में 22 अक्तूबर से लगभग सभी मजदूरों की मजदूरी केंद्र सरकार द्वारा रोक दी गई है। सरकार एक दिवंगत राजनेता की मूर्ति बनाने पर 3,000 करोड़ रुपये खर्च सकती है, परंतु करोड़ों मजदूरों की 4,000 करोड़ रुपये से कम की लंबित मजदूरी नहीं दे सकती!
वर्षा के बाद का यही समय है, जब खेतों में काम बंद हो जाता है, और ग्रामीण मजदूरों को काम की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है। काम के अभाव में बहुत से मजदूर पलायन करते हैं, और जो पलायन नहीं कर सकते हैं, वे भूख का शिकार हो जाते हैं। ऐसे में देश के करीब 25 करोड़ ग्रामीण मजदूरों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अंतर्गत अपने गांव में रोजगार मिलता है। इस योजना ने पिछले 12 वर्षों में देश भर के करोड़ों ग्रामीणों के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
परंतु मजदूरी भुगतान के लिए धन राशि की कमी और मजदूरी भुगतान में भारी देरी के कारण देश भर के मनरेगा मजदूरों में निराशा छाई हुई है। करीब 18 राज्यों की मनरेगा मजदूरी दर तो राज्य की न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है, जो अपने आप में कानून का उल्लंघन है। केंद्र सरकार पिछले दो वर्षों से दावा कर रही है कि मनरेगा के अंतर्गत अभूतपूर्व राशि का आवंटन हुआ है। 2016-17 के बजट में मनरेगा के लिए मूल आवंटन 38,500 करोड़ रुपये था। राशि जल्द खत्म होने के कारण ग्रामीण विकास मंत्रालय को अतिरिक्त धनराशि की मांग करनी पड़ी थी। मांग करने पर नौ हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन मनरेगा के लिए किया गया।
नरेगा संघर्ष मोर्चा नामक देश व्यापी मनरेगा मजदूरों के संगठन का आकलन है कि कम से कम 80,000 करोड़ रुपये के आवंटन की जरूरत है। 2018-19 में भी बजटीय आवंटन 55,000 करोड़ रुपये था, जो पिछले वर्ष के कुल बजट के समान है। परंतु महंगाई दर और पिछले वर्ष की लंबित राशि को ध्यान में रखने पर हम पाते हैं कि मनरेगा के लिए आवंटित राशि पिछले वर्ष से भी कम है।
इसका नतीजा है कि अक्तूबर का महीना आते-आते लगभग 80 फीसदी राशि समाप्त हो जाती है और केंद्र सरकार राज्यों को धन राशि की मंजूरी देना बंद कर देती है। इसका सीधा असर गांव में रोजगार सृजन, मजदूरी भुगतान और कार्य पूर्ति में दिखाई पड़ता है। क्या केंद्र की मोदी सरकार, जो अपने आप को गरीबों का सेवक बताती है, मजदूरों की दलील सुनेगी?
-दोनों लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।