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विस्तार
हमारी राजनीतिक व्यवस्था के आधार स्तंभ चुनावों में मुद्दे तो तमाम उठते रहे हैं, लेकिन भाषाओं को लेकर शायद ही कभी चुनावी चर्चा हुई। हां, उपराष्ट्रीयता की प्रतिनिधि भाषाएं मसलन तमिल और बांग्ला इसका अपवाद रहीं। शायद गुजरात विधानसभा चुनाव अपनी तरह का पहला अवसर है, जब जाने-अनजाने हिंदी भी मुद्दा बन गई। एक चुनावी इंटरव्यू के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री के सामने जब यह सवाल उठा कि मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में करने को लेकर एक वर्ग को आपत्ति है, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वैसा जवाब कम ही राजनेता दे पाते हैं।
अमित शाह ने साफ कहा कि अगर कोई अंग्रेजी बोलता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह ज्ञानी है। इसी तरह अगर किसी की जुबान हिंदी है, तो वह अज्ञानता का परिचायक नहीं है। गृहमंत्री ही राजभाषा विभाग का भी प्रमुख होता है, लिहाजा अमित शाह के इस बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता। भारत में अंग्रेजी की पढ़ाई की शुरुआत भले ही मैकाले के 1835 के चार्टर के बाद हुई, लेकिन जिन तीन प्रेसिडेंसी में अंग्रेजी शासन स्थापित हो गया था, वहां ईसाई मिशनरियों ने अंग्रेजी की पढ़ाई को प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर शुरू कर दिया था।
ये तीन प्रेसिडेंसी बंगाल, बंबई और मद्रास थीं। अंग्रेजी सत्ता के असर में स्थानीय रजवाड़ों में भी अंग्रेजी की हवा बहने लगी। उसी दौरान अंग्रेजी के वर्चस्व और श्रेष्ठता की अवधारणा भी विकसित की गई। यह औपनिवेशिक सोच आज भी हावी है। दिलचस्प यह है कि उदारीकरण के दौर में नव आर्थिकी से संचालित होने वाला मीडिया भी इसी सोच को आगे बढ़ा रहा है। ज्ञान और सूचना अभिव्यक्ति का एक भाग तो हो सकते हैं, लेकिन संपूर्ण संरचना नहीं है।
अंग्रेजी जानना ही ज्ञानवान होने की पहचान की अवधारणा ही है कि गांव- देहात तक अधकचरी ही सही, अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों की बाढ़ आ गई। औपनिवेशिक दौर से विकसित हुई मानसिकता का ही असर रहा कि आजादी के बाद भी रोजगार और बेहतर जीवन-यापन की सहूलियतें उन्हें ही मिलीं, जो अंग्रेजी माध्यम से पढ़े-लिखे थे और बोलना जानते थे। इसका असर यह हुआ कि अंग्रेजी को लेकर औपनिवेशिक सोच समाज के निचले तबके के मानस तक में पुष्ट होकर बैठ गई।
लेकिन सोशल मीडिया के विस्तार के दौर में ज्ञान और सूचनाओं की बाढ़ के चलते अब अवधारणाएं बदलने लगी हैं। पश्चिम से लेकर देसी विचारकों तक के अनुभव और विचारों से दुनिया परिचित होने लगी है। लोगों को अब पता लगने लगा है कि ज्ञान, माध्यम और सूचनाएं अलग-अलग हैं। अब लोगों को समझ आने लगा है कि भाषा चाहे जो भी हो, वह अपनी संस्कृति और अपने परिवेश की सहज अभिव्यक्ति का बेहतर माध्यम है। इसलिए अब कोई भाषा खुद के श्रेष्ठता बोध का दावा नहीं कर सकती।
सवाल उठ सकता है कि अमित शाह के पहले उनके कद का दूसरे नेताओं को क्या औपनिवेशिक वर्चस्व वाली इस सोच के खोखलेपन की जानकारी नहीं थी? निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इसका जवाब ना में है। भारत में एक से एक योग्य शख्सियतों ने राजभाषा और गृह मंत्रालय का दायित्व संभाला है। शिक्षा और मानव संसाधन मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली है। लेकिन उन्होंने भारतीयता को लेकर हिम्मत नहीं दिखाई। कई बार पिछड़ा और अतीतोन्मुखी होने का भी खतरा होता था।
फिर अंग्रेजी लॉबी का भी असर होता था। वे निशाने पर लेने से नहीं चूकती थीं। इसका उदाहरण 1994 में दिल्ली के कार्यकारी मुख्यमंत्री के तौर पर लिया गया साहिब सिंह वर्मा का एक फैसला भी है, जिसमें उन्होंने प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में करने का आदेश दिया था, जिसे बाद में दबाव में वापस लेना पड़ा था। इन संदर्भों में देखें, तो अमित शाह और नरेंद्र मोदी अलग मिट्टी के बने प्रतीत होते हैं। भाषायी स्वाभिमान और भाषायी राष्ट्रबोध उनमें गहरा है।
इसीलिए वे हिंदी को स्थापित करने की खुलेआम कोशिश करने से नहीं हिचकते। हिंदी के समर्थन का मतलब, अंग्रेजी या अन्य भारतीय भाषाओं का विरोध नहीं है। हर भाषा अपने परिवेश और संस्कृति के मुताबिक श्रेष्ठ होती है। वर्चस्ववाद किसी का भी हो, वह अस्वीकार्य होना चाहिए। भाषायी लोकतंत्र, भाषाओं के विकास की पहली शर्त है। भारतीय परंपरा में भाषा को बहता नीर इसीलिए कहा गया है।