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विस्तार
बात भारत के स्वतंत्रता संग्राम की हो तो, 1817 में जन्मे अमेरिकी दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो परिदृश्य से करीब-करीब विस्मृत दिखते हैं। थोरो को उनके जीवन काल में कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। वह खुद भी हंसी-हंसी में अक्सर कहा करते थे कि उनकी लाइब्रेरी की एक हजार किताबों में सात सौ तो उनकी अपनी हैं। यानी थोरो की किताबों का समाज में कोई मूल्य नहीं था। थोरो ने एक बार सरकार से अपनी असहमति के प्रदर्शन के तौर पर सिटी टैक्स न देने का फैसला लिया।
उन्होंने बाकायदा लेख लिखकर अपने फैसले की घोषणा की और दूसरों से भी अपील की कि वे भी ऐसा करें। अमेरिका में ऐसा लिखना कानूनन जुर्म था। लिहाजा उन्हें सजा काटनी पड़ी। थोरो का कहना था कि राज्य का संचालन उन व्यक्तियों के हाथ में होना चाहिए जिनमें मनुष्य के कल्याण और कर्तव्यपरायणता की भावना हो। यह व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए निजी हितों का त्याग करने को भी तत्पर होना चाहिए। किसी ने कहा, यदि ऐसा नहीं हुआ तो? थोरो ने पलट कर जवाब दिया- तो हमें ऐसी राज्य सत्ता का सहयोग नहीं करना चाहिए। फिर चाहे इसके लिए कितना भी कष्ट क्यों न उठाना पड़े। अमेरिकी बौद्धिक हल्के के बीच थोरो को कोई अहमियत नहीं मिली और अंततः वह एक गुमनाम मौत मर गए।
थोरो ने ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा कि सुदूर भारत में एक ऐसा शख्स पैदा होगा, जो उनके विचारों से प्रेरणा लेते हुए प्रतिरोध के नए हथियार रचेगा और ब्रिटिश साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा देगा। सविनय अवज्ञा सहित थोरो के दूसरे तमाम विचारों के सहारे गांधी ने भारत में एक ऐसी चेतना का विकास किया जिसके सामने आखिर अंग्रेजों को घुटने टेकने पड़े। यहीं आकर थोरो और उनके जैसे बेहतर दुनिया बनाने के लिए प्रयास करने वाले दूसरे तमाम, नाम या गुमनाम, व्यक्तियों और संगठनों की अहमियत समझ में आने लगती है।
आज दुनिया का परिदृश्य बदला हुआ है। विक्रम के कंधे से कूदकर डाल पर जा बैठा नियो नॉर्मल दौर का बेताल खुली चुनौती दे रहा है- हा हा हा.. मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं सब नष्ट कर दूंगा। कुछ नहीं बचेगा। न सौहार्द, न बराबरी की इच्छा, न भाईचारा, न इंसाफ की अदालतें, न साहित्य और संगीत। न ज्ञान के केंद्र। न विद्रूपताओं से मुक्ति की अभिलाषा! क्या वाकई? इतिहास के विस्मृत हो चुके पन्नों को पलट कर देखें, तो नाउम्मीदी की कोई वजह नजर नहीं आती। धारा के विरुद्ध चलते हुए समय का चक्का अपने मन मुताबिक मोड़ने की इच्छा रखने वाले ऐसे लोगों को अभी भले तवज्जो न मिल रही हो, लेकिन आने वाले दिनों में यही इतिहास के नायक होंगे। इतिहास बार-बार यही साबित करता रहा है। आगे भी करेगा।
क्या यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं है कि 1789 की फ्रांसीसी क्रांति पूरी तरह नाकाम रही थी? विद्रोह अराजकतावाद में तब्दील हो गया था और दोनों ही पक्षों के क्रांतिकारियों ने एक दूसरे के गले काट दिए थे? इसकी परिणति नेपोलियन बोनापार्ट जैसे तानाशाह के उदय के रूप में हुई। लेकिन, यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि फ्रांसीसी क्रांति से समानता और भ्रातत्व जैसे जो मूल्य जन्मे उन्होंने देखते ही देखते पूरी दुनिया को अपने असर में ले लिया। आज भी पूरी दुनिया में इस बात पर आम सहमति है कि इन मूल्यों की रक्षा की जानी चाहिए।
फ्रांसीसी क्रांति ने दुनिया को लोकतांत्रिक व्यवस्था का रास्ता भी दिखाया। इंग्लैंड में मैग्ना कार्टा का घोषणापत्र भले ही 12वीं शताब्दी में अस्तित्व में आ गया हो, लेकिन राजा-महाराजाओं की सत्ता को कोई आंच नहीं आई थी। फ्रांसीसी क्रांति के बाद राजा-महाराजाओं की सत्ता के ध्वस्त होने का दुनिया भर में जो सिलसिला शुरू हुआ, तो आने वाले कुछ सालों में वे या तो अतीत की वस्तु हो गए या फिर किसी दुकान के शोकेस में रखे सजावटी पुतले में बदल गए।
ईसा से करीब 100 वर्ष पूर्व शक्तिशाली रोमन साम्राज्य के खिलाफ गुलामों की ओर से छेड़ी गई जंग की परिणति भी पराजय के रूप में हुई थी। लेकिन, दासों का यह संघर्ष आखिर में रंग लाया। आज हम नहीं जानते कि काम के आठ घंटे या फिर सप्ताह में एक दिन के अवकाश की मांग को हासिल करने के लिए इतिहास में कितने लोगों ने कुर्बानी दी है। 1816 में शिकागो में पुलिस की गोलियों से मरने वाले उन आंदोलनकारी श्रमिकों के नाम भी हमें नहीं पता, जिसकी याद में मजदूर दिवस मनाया जाता है।
जब नाउम्मीदी का अंधेरा लगातार घना होता जा रहा हो, जब वर्चस्ववादी ताकतें पूरी बेशर्मी से दावा कर रही हों कि सूरज को सरेशाम छुरी मारी जा चुकी है, उजाले अब नहीं लौटेंगे, तब अमेरिका में काले लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर के उस ऐतिहासिक भाषण को भी नहीं भुलाया जा सकता जिसमें उन्होंने कहा था, 'लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं, संघर्ष कितना लंबा चलेगा?
अभी और कितना दमन सहना पड़ेगा? जीत कब होगी? तब मैं जवाब देता हूं- मुझे नहीं पता। लेकिन मुझे इतना जरूर पता है कि इंसाफ का पलड़ा धीरे-धीरे ही सही, पर हमारी ओर ही झुकेगा।' आज हम देखते हैं कि अमेरिका में काले लोगों को पूरी तरह समानता भले ही न मिली हो, लेकिन एक व्यापक स्वीकृति और सम्मान उन्हें हासिल हुआ है। यानी तत्कालिक पराजय मायने नहीं रखती और जीत का पड़ला अंततः इंसाफ की ओर ही झुकता है।