बच्चों के गोद लेने की प्रक्रिया कहने-सुनने में सामान्य लगती है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसमें इतनी बाधाएं और इतने विवाद हैं कि इन सबको सुलझाए बिना बात नहीं बन सकती। इन विवादों पर एक नजर तब गई, जब हाल ही में राजधानी दिल्ली में अडॉप्शन से जुड़ी तीसरी इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस का आयोजन हुआ। इसमें केंद्र ने राज्यों को निर्देश दिया कि वे गोद लेने यानी अडॉप्शन की नीति और प्रक्रिया को सहज बनाएं।
एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन में सरकार की तरफ से ऐसे आह्वान का तब कोई औचित्य समझ में नहीं आता, जब देश में इससे संबंधित कानूनों का अभाव हो और इस कारण विदेशों में गोद दिए भारतीय बच्चों के साथ अनहोनी की घटनाएं प्रकाश में आ रही हों। देश में अनाथ व बेघरबार बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है। इन्हें सही परवरिश और माहौल मिले-इसका एक तरीका अडॉप्शन हो सकता है।
विकसित देशों से ऐसे दंपति भारी संख्या में भारत आते भी हैं, जो बच्चों को गोद लेना चाहते हैं। पर एक तो अपने यहां बच्चों को गोद देने के मामले में कानूनी बाधाएं ज्यादा हैं। यानी अपने बच्चे को गोद देने वाले अभिभावकों के पास भी बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र, उसकी नागरिकता यानी राशन कार्ड में उसके नाम का उल्लेख तथा अन्य संबंधित वैध दस्तावेज नहीं होते। ऐसे में बच्चे को गोद देने की प्रक्रिया वैध तरीके से संपन्न नहीं कराई जा सकती।
ऐसी स्थिति में यदि बच्चा विदेशी दंपति को गोद दे दिया जाए, तो उसके भविष्य को लेकर काफी दुविधा बनी रहती है। बड़ा संकट तब पैदा होता है, जब बच्चे को विदेशी मां-बाप अपने यहां ले जाने के बाद किसी कारणवश घर से बाहर कर देते हैं। विकसित देशों के मानवाधिकारवादी भी पूछ रहे हैं कि तीसरी दुनिया के देशों से गोद लिए गए बच्चों की सही परवरिश की गारंटी क्या है। इस संदर्भ में अमेरिकी पॉप गायिका मैडोना और हॉलिवुड स्टार ऐंजलीना जोली व ब्रैड पिट जैसी हस्तियों के इरादों को भी संदेह के दायरे में रखा गया है, जिन्होंने ऐसे बच्चे गोद लिए हैं।
मामला सिर्फ गोद लिए बच्चों के बेहतर पालन-पोषण का ही नहीं है। वर्ष 2005 में अपने यहां बच्चों की सौदेबाजी के एक बड़े रैकेट का पता चला था। दरअसल दुनिया के जिन 10 देशों से बच्चे सबसे ज्यादा गोद लिए जाते हैं, उनमें भारत भी है। अमेरिका से बच्चों की भारी मांग रहती है और इसकी आड़ में जबर्दस्त रैकेट चलता है।
कोई कानून न होने की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने जो थोड़े-बहुत दिशा-निर्देश दे रखे हैं, उनका भी उल्लंघन होता है। व्यवस्था यह है कि किसी बच्चे को पहले घरेलू अडॉप्शन के लिए पेश किया जाएगा, उसके बाद ही उसका इंटर कंट्री अडॉप्शन होगा।
अनुमानतः देश में हर साल दो-ढाई हजार बच्चे ही गोद लिए जा रहे हैं, पर चूंकि बाहर से गोद लेने के इच्छुक दंपतियों के आवेदन अधिक होते हैं, ऐसे में लगता है कि सुप्रीम कोर्ट और सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्सेज एजेंसी (कारा) के दिशा-निर्देशों की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा जाता होगा। इसकी वजह यह है कि विदेशी दंपति बच्चे के बदले मोटी रकम चुकाते हैं।
हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि विदेशी मां-बाप को भारतीय बच्चे गोद देने की प्रक्रिया रोक दी जाए। ऐसी मांग स्वयंसेवी संगठन और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता उठा रहे हैं। पर रोक लगाना इसलिए उचित नहीं होगा, क्योंकि दोष समाज, गोद देने वाले मां-बाप और संबंधित एजेंसी का भी है।
हमारे देश में अब भी कुछ लोग बच्चे गोद लेने के बजाय निःसंतान रहने को प्राथमिकता देते हैं। जबकि पर्यावरणीय कारणों और भागदौड़ व तनाव भरी जीवन-शैली की वजह से निःसंतान रहने के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। फिर ऐसा भी नहीं है कि विदेशी दंपतियों द्वारा गोद लेने वाले हर बच्चे के साथ बदसुलूकी ही होती है।
ऐसे मामले ज्यादा बताए जाते हैं, जिनमें गोद देने वाले मां-बाप या एजेंसी बच्चे की सेहत या बीमारी से जुड़े मामले छिपाती हैं। कुछ मौकों पर तो विदेशी दंपत्तियों ने यह शिकायत तक दर्ज कराई है कि उन्हें अडॉप्शन के लिए ज्यादा पैसे देने को बाध्य किया गया। जाहिर है, बच्चों के अडॉप्शन के मामले में दोतरफा सुधार की जरूरत है, सिर्फ विदेशियों दंपतियों को कोसने से कुछ हासिल नहीं होगा।
बच्चों के गोद लेने की प्रक्रिया कहने-सुनने में सामान्य लगती है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसमें इतनी बाधाएं और इतने विवाद हैं कि इन सबको सुलझाए बिना बात नहीं बन सकती। इन विवादों पर एक नजर तब गई, जब हाल ही में राजधानी दिल्ली में अडॉप्शन से जुड़ी तीसरी इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस का आयोजन हुआ। इसमें केंद्र ने राज्यों को निर्देश दिया कि वे गोद लेने यानी अडॉप्शन की नीति और प्रक्रिया को सहज बनाएं।
एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन में सरकार की तरफ से ऐसे आह्वान का तब कोई औचित्य समझ में नहीं आता, जब देश में इससे संबंधित कानूनों का अभाव हो और इस कारण विदेशों में गोद दिए भारतीय बच्चों के साथ अनहोनी की घटनाएं प्रकाश में आ रही हों। देश में अनाथ व बेघरबार बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है। इन्हें सही परवरिश और माहौल मिले-इसका एक तरीका अडॉप्शन हो सकता है।
विकसित देशों से ऐसे दंपति भारी संख्या में भारत आते भी हैं, जो बच्चों को गोद लेना चाहते हैं। पर एक तो अपने यहां बच्चों को गोद देने के मामले में कानूनी बाधाएं ज्यादा हैं। यानी अपने बच्चे को गोद देने वाले अभिभावकों के पास भी बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र, उसकी नागरिकता यानी राशन कार्ड में उसके नाम का उल्लेख तथा अन्य संबंधित वैध दस्तावेज नहीं होते। ऐसे में बच्चे को गोद देने की प्रक्रिया वैध तरीके से संपन्न नहीं कराई जा सकती।
ऐसी स्थिति में यदि बच्चा विदेशी दंपति को गोद दे दिया जाए, तो उसके भविष्य को लेकर काफी दुविधा बनी रहती है। बड़ा संकट तब पैदा होता है, जब बच्चे को विदेशी मां-बाप अपने यहां ले जाने के बाद किसी कारणवश घर से बाहर कर देते हैं। विकसित देशों के मानवाधिकारवादी भी पूछ रहे हैं कि तीसरी दुनिया के देशों से गोद लिए गए बच्चों की सही परवरिश की गारंटी क्या है। इस संदर्भ में अमेरिकी पॉप गायिका मैडोना और हॉलिवुड स्टार ऐंजलीना जोली व ब्रैड पिट जैसी हस्तियों के इरादों को भी संदेह के दायरे में रखा गया है, जिन्होंने ऐसे बच्चे गोद लिए हैं।
मामला सिर्फ गोद लिए बच्चों के बेहतर पालन-पोषण का ही नहीं है। वर्ष 2005 में अपने यहां बच्चों की सौदेबाजी के एक बड़े रैकेट का पता चला था। दरअसल दुनिया के जिन 10 देशों से बच्चे सबसे ज्यादा गोद लिए जाते हैं, उनमें भारत भी है। अमेरिका से बच्चों की भारी मांग रहती है और इसकी आड़ में जबर्दस्त रैकेट चलता है।
कोई कानून न होने की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने जो थोड़े-बहुत दिशा-निर्देश दे रखे हैं, उनका भी उल्लंघन होता है। व्यवस्था यह है कि किसी बच्चे को पहले घरेलू अडॉप्शन के लिए पेश किया जाएगा, उसके बाद ही उसका इंटर कंट्री अडॉप्शन होगा।
अनुमानतः देश में हर साल दो-ढाई हजार बच्चे ही गोद लिए जा रहे हैं, पर चूंकि बाहर से गोद लेने के इच्छुक दंपतियों के आवेदन अधिक होते हैं, ऐसे में लगता है कि सुप्रीम कोर्ट और सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्सेज एजेंसी (कारा) के दिशा-निर्देशों की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा जाता होगा। इसकी वजह यह है कि विदेशी दंपति बच्चे के बदले मोटी रकम चुकाते हैं।
हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि विदेशी मां-बाप को भारतीय बच्चे गोद देने की प्रक्रिया रोक दी जाए। ऐसी मांग स्वयंसेवी संगठन और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता उठा रहे हैं। पर रोक लगाना इसलिए उचित नहीं होगा, क्योंकि दोष समाज, गोद देने वाले मां-बाप और संबंधित एजेंसी का भी है।
हमारे देश में अब भी कुछ लोग बच्चे गोद लेने के बजाय निःसंतान रहने को प्राथमिकता देते हैं। जबकि पर्यावरणीय कारणों और भागदौड़ व तनाव भरी जीवन-शैली की वजह से निःसंतान रहने के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। फिर ऐसा भी नहीं है कि विदेशी दंपतियों द्वारा गोद लेने वाले हर बच्चे के साथ बदसुलूकी ही होती है।
ऐसे मामले ज्यादा बताए जाते हैं, जिनमें गोद देने वाले मां-बाप या एजेंसी बच्चे की सेहत या बीमारी से जुड़े मामले छिपाती हैं। कुछ मौकों पर तो विदेशी दंपत्तियों ने यह शिकायत तक दर्ज कराई है कि उन्हें अडॉप्शन के लिए ज्यादा पैसे देने को बाध्य किया गया। जाहिर है, बच्चों के अडॉप्शन के मामले में दोतरफा सुधार की जरूरत है, सिर्फ विदेशियों दंपतियों को कोसने से कुछ हासिल नहीं होगा।