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तीन दशक से ज्यादा अर्से से भारतीय राजनीति का सबसे अहम और भगवा सियासत के लिए सर्वाधिक मुददा अयोध्या मामला सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले और उसके बाद देश में उसकी स्वीकार्यता के बावजूद देश की राजनीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। यह आगे भी इसी तरह केंद्रीय भूमिका में बना रहेगा।
भाजपा श्रेय लेना चाहे तब भी और न लेना चाहे तब भी अन्य दल भाजपा को श्रेय न लेने की नसीहतें दे देकर भाजपा को श्रेय दिलाती रहेंगी, भले आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर भाजपा की प्रचंड ताकत से जीत से तामीर हुई मोदी 2.0 सरकार नाकाम नजर आ रही हो।
ताजा मामला सुप्रीम कोर्ट के आदेश में वर्णित का गठन तय समय सीमा तीन माह के चार दिन पहले यानी पांच फरवरी बुधवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के जरिए कर दिए जाने का है। सरकार के पास संसद में ऐलान करने का 7 फरवरी शुक्रवार तक का समय था, उसने दो दिन पहले ही कर दिया।
इसे लेकर कांग्रेस और दिल्ली में उसे पांच साल पहले सत्ता से हटाकर शून्य विधायक संख्या पर पहुंचा चुकी आम आदमी पार्टी ने इसे आठ फरवरी को हो रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश करार दिया।
जाहिर है सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल तो सरकार को करना ही था, भाजपा को शाहीन बाग के नैरेटिव के बरअक्स एक और श्रेय लेने का मुद्दा लेने का अवसर था ही। लेकिन अपने काम के नाम पर मैदान में उतरकर आम आदमी पार्टी भाजपा पर भारी पड़ने के हालात के बावजूद इस मुददे पर वैसे ही घिर गई जैसी वो शाहीन बाग के समर्थन या विरोध से बचने की मुद्रा में नजर आ रही थी।
2014 में लोकसभा की सातों सीट जीतकर भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में 2015 में महज तीन सीट ही जीत सकी भाजपा को 2019 में भी सातों सीट जीतने के बावजूद विधानसभा चुनाव मेें केजरीवाल के सामने कोई चेहरा तक न उतार सकने की विफलता का आसन्न खतरा था।
श्रीराम मंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के गठन के ऐलान को विधानसभा चुनाव से जोड़कर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दोनों ने एक बार फिर भाजपा को श्रेय लेने का अवसर दे दिया है। देखना यह है कि इसका आठ फरवरी को मतदान में क्या असर होता है।
सियासत और अयोध्या आंदोलन
अयोध्या में राममंदिर जन्म भूमि मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद का विवाद सदियों पुराना है। इसे लेकर अयोध्या और आसपास के लोग मुगलकाल से ही लगातार संघर्ष करते रहे हैं। यह संघर्ष खूनी भी होता रहा। लेकिन यह अखिल भारतीय मुद्दा तब नहीं बना था।
ऐसा ही ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भी चलता रहा। अदालती लड़ाई भी उसी काल में शुरू हुई, लेकिन अंग्रेजों की मंशा और उनका अपने लाभ के लिए ही बनाया गया न्याय तंत्र इस मुद्दे का अपनी हुकूमत के लाभ के लिए इस्तेमाल करता रहा।
अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति के आंदोलन के आखिरी दिनों में मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्नाह ने कांग्रेस को हिंदूओं की पार्टी बताना शुरू किया और मुसलमानों के बीच कांग्रेस की छवि हिंदू पार्टी की बना दी।
हालांकि हिंदू महासभा और आरएसएस ऐसा नहीं मानते थे और खुद कांग्रेस ने देश के विभाजन को स्वीकार करके तथा इसके बाद धर्म निरपेक्षता को अंगीकार करके साबित भी किया। आजादी हासिल होने के बाद देश के पुनर्निर्माण, रियासतों के विलीनीकरण और नए राज्याें के गठन और देश के सामने अन्य चुनौतियां भी थीं। कांग्रेस ने खुद को सेक्युलर स्थापित कर लिया और जनसंघ ने खुद को हिंदूवादी होने की छवि स्थापित करने की कवायद शुरू कर दी। तब भी अयोध्या का मुद्दा स्थानीय मुद्दा ही बना रहा।
विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए मुसलमानों ने कांग्रेस को ही अपना समर्थन दिया। लेकिन जनसंघ के नए अवतार भाजपा के उभार के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने दल के कमजोर होने की भरपाई के इरादे से हिंदुओं का दिल जीतने की कोशिश में अयोध्या जन्म भूमि मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद इमारत के बंद ताले खुलवाकर सियासत ही बदल दी। इससे कांग्रेस को फायदे के बजाए नुकसान हो गया।
दरअसल, मुसलमान खासकर उप्र के मुसलमान जनता दल से अलग हुए मुलायम सिंह यादव की नई पार्टी सपा को अपनी पार्टी मानने लगे और भाजपा के राम मंदिर आंदोलन को मुख्य अभियान बनाकर अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मिल गया।
इसमें उप्र की मुलायम सरकार के दौरान कारसेवकों पर गोलीचालन और केंद्र में कांग्रेस की पीवी नरसिंहराव सरकार और उप्र में भाजपा की कल्याण सिंह सरकार के कार्यकाल में विवादित ढांचे का विंध्वस भाजपा के लिए तूफानी ताकत साबित हो गया। गुजरात में साबरमती एक्सप्रेस में कारसेवकाें को जिंदा जलाने और प्रतिक्रिया में गुजरात के दंगे भी भाजपा की ताकत को और बढ़ाने वाले साबित हुए।
कांग्रेस अपने सबसे बुरे वक्त में भी एक बार फिर हिंदुवादी होने या दिखने की समय-समय पर चेष्टा करती रहती है। गुजरात, मप्र, राजस्थान, महाराष्ट्र या कर्नाटक के बीते चार सालों के विधानसभा चुनावों को देख लीजिए।
कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर आज के मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ तक सब मंदिर यात्राएं, हनुमान चालीसा पाठ आदि के आयोजन कर बार-बार यह कहते हैं कि हिंदुत्व भाजपा का कॉपीराइट नहीं है। जिस हिंदुत्व को नकारा जाता रहा अब वही लगभग सभी सियाती जमातों का प्रिय विषय बन रहा है। इसमें नवदुर्गा विसर्जन पर रोक तक लगाने वाली बंगाली की मुख्यमंत्री तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी भी शामिल हैं।
ट्रस्ट को लेकर सियासत
श्रीराममंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का ऐलान होते ही गठन भी कर दिया गया है। लेकिन इसे लेकर भी सियासत तेज हो गई है। ट्रस्ट में एक शंकराचार्य को जगह दी गई है, लेकिन जिन शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती का नाम शामिल किया गया है, उनके शंकराचार्य होने को लेकर भी सवाल और विवाद चर्चा में है। वैसे भी एक कोई पहली बार नहीं है कि शंकराचार्य पद को लेकर विवाद हो। विभिन्न पीठों के आचार्य पद को लेकर मामले अदालतों में चलते रहे हैं।
इसके अलावा ट्रस्ट में एक दलित को रखने का प्रावधान किए जाने को लेकर भी सियासत हो रही है। हालांकि मोदी सरकार और पूरा संघ परिवार हिंदुओं की एकता के प्रयास करते रहे हैं, संघ तो पूरा एक साल सामाजिक समरसता के रूप में मना चुका है। उसके समाज और समरसता में केवल वही हैं जो हिंदू हैं या जो हिंदू नहीं हैं लेकिन हिंदुत्व को भारतीयता की तरह मानने को राजी हैं।
चंदे और सामग्री को लेकर भी हैं कई सवाल, जिनके उत्तर चाहिए
तीन दशक पहले शुरू हुए विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन के दौरान राम शिला पूजा से लेकर चंदा इकट्ठा करने के कई अभियान चले। न्यास भी बना और भूमि पूजन भी किया गया। मंदिर निर्माण की बड़े पैमाने पर तैयारी भी पूरी हो चुकी थी, लेकिन मामला अदालत में होने की वजह से यह सामग्री और धन अब तक कम ही उपयोग में आ सका है।
गैर भाजपा दल और विहिप तथा राम जन्मभूमि न्यास के विरोधी संत समुदाय इस धन और उसके हिसाब किताब को लेकर समय समय पर सवाल उठाते रहे हैँ। सरकार ने अभी ट्रस्ट गठन किया है, अब उसका बोर्ड बनेगा और उसके उद्देश्य तय किए जाएंगे।
सवाल यह है कि अब तक का हिसाब-किताब भी क्या श्रीराम मंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट रखेगा और देश की जनता को भी बताएगा? इसी तरह के कई सवाल हैं जिनका उत्तर आना अभी बाकी है। यह तय है कि जब तक मंदिर बनकर तैयार नहीं हो जाता तब तक विवाद और सवाल थमेंगे नहीं हैं और न ही सियासत ही।
सवाल काशी और मथुरा का
रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे नारे को लेकर सत्ता के उत्तुंग शिखर पर बैठी भाजपा से विरोधी दल अक्सर यह तंज करते रहे हैं कि -तारीख नहीं बताएंगे। कोर्ट का फैसला और अब ट्रस्ट गठन के बाद भाजपा से काशी और मथुरा के बारे में सवाल पूछे जाने लगे हैं और भाजपा उनसे किनारा कर रही है।
हालांकि वह राममंदिर से भी किनारा समय-समय पर करती रही है यह कहते हुए कि यह विहिप का आंदोलन है, हम समर्थन करते हैं और संविधान के दायरे में कोर्ट का फैसला हमें मान्य होगा? लेकिन क्या अब वह काशी और मथुरा पर भी अयोध्या सरीखा रुख अपनाएगी?
क्या यह सियासत नहीं होगी? सवाल कई हैं फिलहाल तो भाजपा श्रेय लेना चाहती है, लेकिन कह नहीं रही लेकिन विपक्ष उसे श्रेय न लेने की नसीहत देकर जनता से उसे श्रेय दिलाना को उद्यत लग रहा है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें
[email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
तीन दशक से ज्यादा अर्से से भारतीय राजनीति का सबसे अहम और भगवा सियासत के लिए सर्वाधिक मुददा अयोध्या मामला सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले और उसके बाद देश में उसकी स्वीकार्यता के बावजूद देश की राजनीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। यह आगे भी इसी तरह केंद्रीय भूमिका में बना रहेगा।
भाजपा श्रेय लेना चाहे तब भी और न लेना चाहे तब भी अन्य दल भाजपा को श्रेय न लेने की नसीहतें दे देकर भाजपा को श्रेय दिलाती रहेंगी, भले आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर भाजपा की प्रचंड ताकत से जीत से तामीर हुई मोदी 2.0 सरकार नाकाम नजर आ रही हो।
ताजा मामला सुप्रीम कोर्ट के आदेश में वर्णित का गठन तय समय सीमा तीन माह के चार दिन पहले यानी पांच फरवरी बुधवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के जरिए कर दिए जाने का है। सरकार के पास संसद में ऐलान करने का 7 फरवरी शुक्रवार तक का समय था, उसने दो दिन पहले ही कर दिया।
इसे लेकर कांग्रेस और दिल्ली में उसे पांच साल पहले सत्ता से हटाकर शून्य विधायक संख्या पर पहुंचा चुकी आम आदमी पार्टी ने इसे आठ फरवरी को हो रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश करार दिया।
जाहिर है सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल तो सरकार को करना ही था, भाजपा को शाहीन बाग के नैरेटिव के बरअक्स एक और श्रेय लेने का मुद्दा लेने का अवसर था ही। लेकिन अपने काम के नाम पर मैदान में उतरकर आम आदमी पार्टी भाजपा पर भारी पड़ने के हालात के बावजूद इस मुददे पर वैसे ही घिर गई जैसी वो शाहीन बाग के समर्थन या विरोध से बचने की मुद्रा में नजर आ रही थी।
राम मंदिर ट्रस्ट के ऐलान का असर चुनाव पर होगा?
- फोटो : Social Media
2014 में लोकसभा की सातों सीट जीतकर भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में 2015 में महज तीन सीट ही जीत सकी भाजपा को 2019 में भी सातों सीट जीतने के बावजूद विधानसभा चुनाव मेें केजरीवाल के सामने कोई चेहरा तक न उतार सकने की विफलता का आसन्न खतरा था।
श्रीराम मंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के गठन के ऐलान को विधानसभा चुनाव से जोड़कर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दोनों ने एक बार फिर भाजपा को श्रेय लेने का अवसर दे दिया है। देखना यह है कि इसका आठ फरवरी को मतदान में क्या असर होता है।
सियासत और अयोध्या आंदोलन
अयोध्या में राममंदिर जन्म भूमि मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद का विवाद सदियों पुराना है। इसे लेकर अयोध्या और आसपास के लोग मुगलकाल से ही लगातार संघर्ष करते रहे हैं। यह संघर्ष खूनी भी होता रहा। लेकिन यह अखिल भारतीय मुद्दा तब नहीं बना था।
ऐसा ही ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भी चलता रहा। अदालती लड़ाई भी उसी काल में शुरू हुई, लेकिन अंग्रेजों की मंशा और उनका अपने लाभ के लिए ही बनाया गया न्याय तंत्र इस मुद्दे का अपनी हुकूमत के लाभ के लिए इस्तेमाल करता रहा।
अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति के आंदोलन के आखिरी दिनों में मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्नाह ने कांग्रेस को हिंदूओं की पार्टी बताना शुरू किया और मुसलमानों के बीच कांग्रेस की छवि हिंदू पार्टी की बना दी।
हालांकि हिंदू महासभा और आरएसएस ऐसा नहीं मानते थे और खुद कांग्रेस ने देश के विभाजन को स्वीकार करके तथा इसके बाद धर्म निरपेक्षता को अंगीकार करके साबित भी किया। आजादी हासिल होने के बाद देश के पुनर्निर्माण, रियासतों के विलीनीकरण और नए राज्याें के गठन और देश के सामने अन्य चुनौतियां भी थीं। कांग्रेस ने खुद को सेक्युलर स्थापित कर लिया और जनसंघ ने खुद को हिंदूवादी होने की छवि स्थापित करने की कवायद शुरू कर दी। तब भी अयोध्या का मुद्दा स्थानीय मुद्दा ही बना रहा।
विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए मुसलमानों ने कांग्रेस को ही अपना समर्थन दिया। लेकिन जनसंघ के नए अवतार भाजपा के उभार के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने दल के कमजोर होने की भरपाई के इरादे से हिंदुओं का दिल जीतने की कोशिश में अयोध्या जन्म भूमि मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद इमारत के बंद ताले खुलवाकर सियासत ही बदल दी। इससे कांग्रेस को फायदे के बजाए नुकसान हो गया।
दरअसल, मुसलमान खासकर उप्र के मुसलमान जनता दल से अलग हुए मुलायम सिंह यादव की नई पार्टी सपा को अपनी पार्टी मानने लगे और भाजपा के राम मंदिर आंदोलन को मुख्य अभियान बनाकर अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मिल गया।
इसमें उप्र की मुलायम सरकार के दौरान कारसेवकों पर गोलीचालन और केंद्र में कांग्रेस की पीवी नरसिंहराव सरकार और उप्र में भाजपा की कल्याण सिंह सरकार के कार्यकाल में विवादित ढांचे का विंध्वस भाजपा के लिए तूफानी ताकत साबित हो गया। गुजरात में साबरमती एक्सप्रेस में कारसेवकाें को जिंदा जलाने और प्रतिक्रिया में गुजरात के दंगे भी भाजपा की ताकत को और बढ़ाने वाले साबित हुए।
कांग्रेस अपने सबसे बुरे वक्त में भी एक बार फिर हिंदुवादी होने या दिखने की समय-समय पर चेष्टा करती रहती है। गुजरात, मप्र, राजस्थान, महाराष्ट्र या कर्नाटक के बीते चार सालों के विधानसभा चुनावों को देख लीजिए।
कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर आज के मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ तक सब मंदिर यात्राएं, हनुमान चालीसा पाठ आदि के आयोजन कर बार-बार यह कहते हैं कि हिंदुत्व भाजपा का कॉपीराइट नहीं है। जिस हिंदुत्व को नकारा जाता रहा अब वही लगभग सभी सियाती जमातों का प्रिय विषय बन रहा है। इसमें नवदुर्गा विसर्जन पर रोक तक लगाने वाली बंगाली की मुख्यमंत्री तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी भी शामिल हैं।
श्रीराममंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का ऐलान होते ही गठन भी कर दिया गया है।
- फोटो : फाइल फोटो
ट्रस्ट को लेकर सियासत
श्रीराममंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का ऐलान होते ही गठन भी कर दिया गया है। लेकिन इसे लेकर भी सियासत तेज हो गई है। ट्रस्ट में एक शंकराचार्य को जगह दी गई है, लेकिन जिन शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती का नाम शामिल किया गया है, उनके शंकराचार्य होने को लेकर भी सवाल और विवाद चर्चा में है। वैसे भी एक कोई पहली बार नहीं है कि शंकराचार्य पद को लेकर विवाद हो। विभिन्न पीठों के आचार्य पद को लेकर मामले अदालतों में चलते रहे हैं।
इसके अलावा ट्रस्ट में एक दलित को रखने का प्रावधान किए जाने को लेकर भी सियासत हो रही है। हालांकि मोदी सरकार और पूरा संघ परिवार हिंदुओं की एकता के प्रयास करते रहे हैं, संघ तो पूरा एक साल सामाजिक समरसता के रूप में मना चुका है। उसके समाज और समरसता में केवल वही हैं जो हिंदू हैं या जो हिंदू नहीं हैं लेकिन हिंदुत्व को भारतीयता की तरह मानने को राजी हैं।
चंदे और सामग्री को लेकर भी हैं कई सवाल, जिनके उत्तर चाहिए
तीन दशक पहले शुरू हुए विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन के दौरान राम शिला पूजा से लेकर चंदा इकट्ठा करने के कई अभियान चले। न्यास भी बना और भूमि पूजन भी किया गया। मंदिर निर्माण की बड़े पैमाने पर तैयारी भी पूरी हो चुकी थी, लेकिन मामला अदालत में होने की वजह से यह सामग्री और धन अब तक कम ही उपयोग में आ सका है।
गैर भाजपा दल और विहिप तथा राम जन्मभूमि न्यास के विरोधी संत समुदाय इस धन और उसके हिसाब किताब को लेकर समय समय पर सवाल उठाते रहे हैँ। सरकार ने अभी ट्रस्ट गठन किया है, अब उसका बोर्ड बनेगा और उसके उद्देश्य तय किए जाएंगे।
सवाल यह है कि अब तक का हिसाब-किताब भी क्या श्रीराम मंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट रखेगा और देश की जनता को भी बताएगा? इसी तरह के कई सवाल हैं जिनका उत्तर आना अभी बाकी है। यह तय है कि जब तक मंदिर बनकर तैयार नहीं हो जाता तब तक विवाद और सवाल थमेंगे नहीं हैं और न ही सियासत ही।
सवाल काशी और मथुरा का
रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे नारे को लेकर सत्ता के उत्तुंग शिखर पर बैठी भाजपा से विरोधी दल अक्सर यह तंज करते रहे हैं कि -तारीख नहीं बताएंगे। कोर्ट का फैसला और अब ट्रस्ट गठन के बाद भाजपा से काशी और मथुरा के बारे में सवाल पूछे जाने लगे हैं और भाजपा उनसे किनारा कर रही है।
हालांकि वह राममंदिर से भी किनारा समय-समय पर करती रही है यह कहते हुए कि यह विहिप का आंदोलन है, हम समर्थन करते हैं और संविधान के दायरे में कोर्ट का फैसला हमें मान्य होगा? लेकिन क्या अब वह काशी और मथुरा पर भी अयोध्या सरीखा रुख अपनाएगी?
क्या यह सियासत नहीं होगी? सवाल कई हैं फिलहाल तो भाजपा श्रेय लेना चाहती है, लेकिन कह नहीं रही लेकिन विपक्ष उसे श्रेय न लेने की नसीहत देकर जनता से उसे श्रेय दिलाना को उद्यत लग रहा है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें
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