Dev Uthani Ekadashi 2021: परमेश्वर श्रीहरि के शयन करने की अवधि चातुर्मास का पर्व समापन कार्तिक शुक्ल एकादशी 14 नवंबर, रविवार को मनाया जाएगा। इसी दिन श्री विष्णु निद्रा को त्यागते हैं जिसके परिणामस्वरूप जड़ता में भी चेतनता का संचार हो जाता है। यह एकादशी परमेश्वर श्रीविष्णु को सर्वाधिक प्रिय है और इसी के प्रभाव स्वरूप सृष्टि में नई ऊर्जा-स्फूर्ति का संचार होता है। देवताओं में भी सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने की नूतन शक्ति का संचार हो जाता है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के मध्य श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और भौदों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं। प्राणियों के पापों का नाश करके पुण्य वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को निद्रा से जागते हैं। तभी सभी शास्त्रों ने इस एकादशी को अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है।
इसी दिन से शादी-विवाह जैसे सभी मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते हैं। पद्मपुराण के अनुसार 'अश्वमेध सहस्राणि राजसूय शतानि च। अर्थात हरिप्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने वाले को हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करने के बराबर फल मिलता है। उत्तम शिक्षा प्राप्ति, मान-सम्मान की वृद्धि, कार्य-व्यापार में उन्नति, सुखद दाम्पत्य जीवन, पुत्र-पौत्र एवं बान्धवों की अभिलाषा रखने वाले गृहस्थों और मोक्ष की इच्छा रखने वाले संन्यासियों के लिए यह एकादशी अमोघ फलदाई कही गयी है।
एकादशी का महत्व
एकादशी का महत्व बताते हुए गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, तिथियों में मैं एकादशी हूँ। अतः एकादशी के दिन श्रीकृष्ण का आवाहन-पूजन आदि करने से उस प्राणी के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता। श्रीविष्णु के शयन के फलस्वरूप देवताओं की शक्तियां तथा सूर्य देव का तेज क्षीण हो जाता हैं। सूर्य कमजोर होकर अपनी नीचराशि में चले जाते हैं या नीचा-भिलाषी हो जाते है जिसके परिणामस्वरूप ग्रह मंडल की व्यवस्था बिगड़ने लगती है। प्राणियों पर अनेकों प्रक्रार की व्याधियों का प्रकोप होता है। इस एकादशी से श्रीविष्णु निद्रा त्यागकर पुनः सुप्त सृष्टि में नूतनप्राण का संचार कर देते हैं। भक्तगण को इस दिन श्रीविष्णु की क्षीरसागर में शयन करनेवाली मूर्ति-छायाचित्र को घर के मध्यभाग या उत्तर-पूर्व भाग में स्थापित करें। ध्यान, आवाहन, आसन, पाद प्रच्छालन, स्नान आदि कराकर वस्त्र, यज्ञोपवीत, चंदन, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, लौंग, इलायची, पान, सुपारी, ऋतूफल, गन्ना, केला, अनार, आवंला, सिंघाड़ा अथवा जो भी उपलब्द्ध सामग्री हो वो अर्पण करते हुए 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' या ॐ नमो नारायणाय' मंत्र का जप करे। श्रीविष्णु सहस्त्रनाम, नारायण कवच, श्रीमद्भागवत महापुराण, पुरुषसूक्त और श्रीसूक्त का पाठ अथवा श्रवण करने से प्राणी अपनी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करके दैहिक, दैविक, एवं भौतिक तीनों तापों से मुक्त हो जाता है ।
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Dev Uthani Ekadashi 2021: परमेश्वर श्रीहरि के शयन करने की अवधि चातुर्मास का पर्व समापन कार्तिक शुक्ल एकादशी 14 नवंबर, रविवार को मनाया जाएगा। इसी दिन श्री विष्णु निद्रा को त्यागते हैं जिसके परिणामस्वरूप जड़ता में भी चेतनता का संचार हो जाता है। यह एकादशी परमेश्वर श्रीविष्णु को सर्वाधिक प्रिय है और इसी के प्रभाव स्वरूप सृष्टि में नई ऊर्जा-स्फूर्ति का संचार होता है। देवताओं में भी सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने की नूतन शक्ति का संचार हो जाता है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के मध्य श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और भौदों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं। प्राणियों के पापों का नाश करके पुण्य वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को निद्रा से जागते हैं। तभी सभी शास्त्रों ने इस एकादशी को अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है।
इसी दिन से शादी-विवाह जैसे सभी मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते हैं। पद्मपुराण के अनुसार 'अश्वमेध सहस्राणि राजसूय शतानि च। अर्थात हरिप्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने वाले को हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करने के बराबर फल मिलता है। उत्तम शिक्षा प्राप्ति, मान-सम्मान की वृद्धि, कार्य-व्यापार में उन्नति, सुखद दाम्पत्य जीवन, पुत्र-पौत्र एवं बान्धवों की अभिलाषा रखने वाले गृहस्थों और मोक्ष की इच्छा रखने वाले संन्यासियों के लिए यह एकादशी अमोघ फलदाई कही गयी है।
एकादशी का महत्व
एकादशी का महत्व बताते हुए गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, तिथियों में मैं एकादशी हूँ। अतः एकादशी के दिन श्रीकृष्ण का आवाहन-पूजन आदि करने से उस प्राणी के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता। श्रीविष्णु के शयन के फलस्वरूप देवताओं की शक्तियां तथा सूर्य देव का तेज क्षीण हो जाता हैं। सूर्य कमजोर होकर अपनी नीचराशि में चले जाते हैं या नीचा-भिलाषी हो जाते है जिसके परिणामस्वरूप ग्रह मंडल की व्यवस्था बिगड़ने लगती है। प्राणियों पर अनेकों प्रक्रार की व्याधियों का प्रकोप होता है। इस एकादशी से श्रीविष्णु निद्रा त्यागकर पुनः सुप्त सृष्टि में नूतनप्राण का संचार कर देते हैं। भक्तगण को इस दिन श्रीविष्णु की क्षीरसागर में शयन करनेवाली मूर्ति-छायाचित्र को घर के मध्यभाग या उत्तर-पूर्व भाग में स्थापित करें। ध्यान, आवाहन, आसन, पाद प्रच्छालन, स्नान आदि कराकर वस्त्र, यज्ञोपवीत, चंदन, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, लौंग, इलायची, पान, सुपारी, ऋतूफल, गन्ना, केला, अनार, आवंला, सिंघाड़ा अथवा जो भी उपलब्द्ध सामग्री हो वो अर्पण करते हुए 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' या ॐ नमो नारायणाय' मंत्र का जप करे। श्रीविष्णु सहस्त्रनाम, नारायण कवच, श्रीमद्भागवत महापुराण, पुरुषसूक्त और श्रीसूक्त का पाठ अथवा श्रवण करने से प्राणी अपनी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करके दैहिक, दैविक, एवं भौतिक तीनों तापों से मुक्त हो जाता है ।