एक साधारण मनुष्य अपने जीवन में दो परिस्तिथियों को मानता, जानता और समझता है और वो है किसी का आपके प्रति अनुकूल होना या प्रतिकूल हो जाना। एक सामान्य मनुष्य जब भी अपनी किसी प्रिय वस्तु को प्राप्त करता है तो उसे लगता है कि ईश्वर उसके अनुकूल है लेकिन सोचिए की अगर कहीं उसके मन का नहीं हुआ या उसकी पसंद की चीज उसे प्राप्त नहीं हुई तो क्या वो भगवान् को नहीं कोसेगा?
सोचिए, भगवान की कृपा तो सब पर होती है और निरंतर होती है और वो सभी अवस्था में समान होती है, लेकिन मनुष्य की बुद्धि उन भोग पदार्थों में रहती है जो उसके मन को भाते हैं। सत्य यह है की ये सभी सांसारिक सुख और भोग आपको मोह और माया के बंधन में बांध देते हैं इसलिए अगर हमें कुछ प्राप्त हो रहा है जो हमें चरम सुख प्रदान कर रहा है तो उसमें ईश्वर की कृपा कैसी?
दरअसल जब मनुष्य भगवान विष्णु की सेवा करता है, जप करता है और उसके बाद उसे संसार के भोग प्राप्त होते हैं तो वो ये सोचता है कि मेरी इस कामना को ईश्वर ने पूरा कर दिया है। वह अक्सर उस सुख और भोग को विष्णु कृपा मानता है जो दिन ब दिन उसे मोह और माया में खींच रहे है।
इसी का उल्टा होने पर वह यह भी कहता हुआ आपको मिल जाएगा कि ईश्वर होते तो मेरा यह काम क्यों रुकता? ईश्वर होते तो क्या मेरी पूजा का फल मुझे नहीं देते? मैंने उस कामना से जो यज्ञ किया वो मुझे प्राप्त नहीं हुई? कई तो आपको ऐसे भी लोग मिलेंगे जो इतना तक आपसे कह देंगे की ईश्वर तो सिर्फ कोरी कल्पना है!
दरअसल होता ये है की अनुकूल और प्रतिकूल दोनों अवस्था किसी भी संत, ज्ञानी और विद्वान के लिए नहीं होती। रामचरित मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं कि राम कृपा उसी पर होती है जो समदर्शी होता है। समदर्शी इच्छा कछु नाही ! हर्ष शोक भय नहीं मन माहि।
सोचिए, भगवान की कृपा तो सब पर होती है और निरंतर होती है और वो सभी अवस्था में समान होती है, लेकिन मनुष्य की बुद्धि उन भोग पदार्थों में रहती है जो उसके मन को भाते हैं। सत्य यह है की ये सभी सांसारिक सुख और भोग आपको मोह और माया के बंधन में बांध देते हैं इसलिए अगर हमें कुछ प्राप्त हो रहा है जो हमें चरम सुख प्रदान कर रहा है तो उसमें ईश्वर की कृपा कैसी?
दरअसल जब मनुष्य भगवान विष्णु की सेवा करता है, जप करता है और उसके बाद उसे संसार के भोग प्राप्त होते हैं तो वो ये सोचता है कि मेरी इस कामना को ईश्वर ने पूरा कर दिया है। वह अक्सर उस सुख और भोग को विष्णु कृपा मानता है जो दिन ब दिन उसे मोह और माया में खींच रहे है।
इसी का उल्टा होने पर वह यह भी कहता हुआ आपको मिल जाएगा कि ईश्वर होते तो मेरा यह काम क्यों रुकता? ईश्वर होते तो क्या मेरी पूजा का फल मुझे नहीं देते? मैंने उस कामना से जो यज्ञ किया वो मुझे प्राप्त नहीं हुई? कई तो आपको ऐसे भी लोग मिलेंगे जो इतना तक आपसे कह देंगे की ईश्वर तो सिर्फ कोरी कल्पना है!
दरअसल होता ये है की अनुकूल और प्रतिकूल दोनों अवस्था किसी भी संत, ज्ञानी और विद्वान के लिए नहीं होती। रामचरित मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं कि राम कृपा उसी पर होती है जो समदर्शी होता है। समदर्शी इच्छा कछु नाही ! हर्ष शोक भय नहीं मन माहि।