सर्वोच्च अदालत की एक बेंच ने जब पिछले वर्ष 16 दिसंबर को जस्टिस वीरेंद्र सिंह की उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त के रूप में नियुक्ति की थी, उसके तुरंत बाद ही स्पष्ट हो गया था कि उनकी नियुक्ति रद्द भी की जा सकती है, क्योंकि उनका नाम आते ही उनसे जुड़े विवाद भी सामने आ गए थे। यही वजह है कि नियुक्ति के बावजूद सर्वोच्च अदालत ने ही उनके शपथ ग्रहण पर रोक लगा दी थी।
उनकी नियुक्ति को रद्द करके जस्टिस संजय मिश्रा को सर्वोच्च अदालत द्वारा उत्तर प्रदेश का नया लोकायुक्त नियुक्त करने तक का पूरा घटनाक्रम बताता है कि राज्य की अखिलेश सरकार ने अदालती आदेशों तक को कैसे हल्के में लिया है। यह विडंबना ही है कि 20 महीने से भी अधिक समय से लोकायुक्त जैसे अहम पद पर नियुक्ति राजनीतिक कारणों से अटकी हुई थी और उससे भी दुखद यह है कि इसके लिए सर्वोच्च अदालत को आगे आने पड़ा है! लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर गुजरात सहित कुछ अन्य राज्यों में भी विवाद रहे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश का मामला सबसे गंभीर कहा जा सकता है, जिसमें सर्वोच्च अदालत तक को गुमराह किया गया।
पहले तो लोकायुक्त पद के लिए किसी नाम पर सहमति नहीं बनी, और जब सर्वोच्च अदालत ने नाम मांगे, तो उनमें ऐसे नाम शामिल किए गए, जिन पर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आपत्ति जता चुके थे। इससे सरकार की मंशा पर ही सवाल उठते हैं। यदि राजनीतिक आधार पर लोकायुक्त जैसे पदों पर नियुक्ति होगी, तो समझा जा सकता है कि इस तरह नियुक्ति प्राप्त कोई व्यक्ति उच्च स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ किस तरह कार्रवाई कर सकेगा!
इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस पूरे मामले में सिर्फ राज्य सरकार ही अकेली जिम्मेदार नहीं है, क्योंकि पिछले सवा साल के दौरान कम से कम पांच बार राज्यपाल सरकार की लोकायुक्त से संबंधित फाइलें लौटा चुके थे। वास्तव में सांविधानिक संस्थाएं और ऐसे पदों पर बैठे व्यक्ति जब तक एक-दूसरे का सम्मान नहीं करेंगे, तब तक ऐसे टकराव भी होते ही रहेंगे। इस सबके बावजूद लोकायुक्त की समय पर नियुक्ति की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकार की ही बनती है, लिहाजा इस प्रकरण में उसकी साख को ही सबसे अधिक धक्का लगा है।