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कट्टरता का विरोध, पुरस्कार लौटाना विकल्प नहीं: विनोद कुमार शुक्ल
बढ़ती असहिष्णुता के आरोप में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त अनेक लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा की है। इसकी पृष्ठभूमि में कन्नड़ लेखक और तर्कशास्त्री एम एम कलबुर्गी और शिवाजी की जीवनी लेखक गोविंद पनसारे की हत्या तथा दादरी में कथित रूप से गोमांस खाने के आरोपी इकलाख की भीड़ द्वारा की गई हत्या भी शामिल है।
इन साहित्यकारों का आरोप है कि नरेंद्र मोदी सरकार बढ़ती असहिष्णुता को रोकने में नाकाम रही है। इन साहित्यकारों में अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल जैसे वरिष्ठ कवि-कथाकार शामिल हैं। वहीं वरिष्ठ कवि कथाकार विनोद कुमार शुक्ल ने साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लौटाने का फैसला किया है। वह कहते हैं कि वह कट्टरता का विरोध करते हैं, लेकिन पुरस्कार लौटाने को वह विरोध का विकल्प नहीं मानते। उनकी दृष्टि में मनुष्यता सबसे बड़ी राजनीति है। इन्हीं सब मुद्दों पर उनसे सुदीप ठाकुर ने बातचीत की।आगे की स्लाइड में पढ़िए उनका पूरा इंटरव्यू।
साहित्यकारों के विरोध पर विनोद कुमार शुक्ल की सोच
प्रश्न: साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं, आप भी इससे सम्मानित हैं। आपकी प्रतिक्रिया क्या है?
मैं पुरस्कार लौटा नहीं रहा हूं। जिस तरह की कट्टरता दिखाई दे रही है, जिसमें अब तो हत्याएं भी हो रही हैं, मैं उसका विरोध करता हूं। लेकिन विरोध के रूप में पुरस्कार लौटाने को मैं विकल्प की तरह नहीं देखता। जिस वक्त मुझे पुरस्कार मिला था, तब मैंने उसे तमगे की तरह लिया था। अब मीडिया में जिस तरह की बातें हो रही हैं, उससे लगता है जैसे यह कोई दाग है और इसको वापस कर देंगे, तो बेदाग हो जाएंगे। 1999 में मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था और अब पंद्रह-सोलह वर्ष तो हो ही गए हैं इस पुरस्कार से गौरवान्वित हुए। इस गौरवान्वित होने को कैसे वापस किया जाएगा? मुझे यह पुरस्कार मिला है, यह तो रहा ही आएगा। इस सचाई को कैसे झुठलाया जाए।
मुझे लगा कि लेखकों के लिए साहित्य अकादमी एक अच्छी संस्था है। पुरस्कार की राशि तो अधिक नहीं थी, शायद पच्चीस या तीस हजार रुपये थे। पर रुपये की कीमत तो होती ही है। पुरस्कार लौटाते हुए अकादमी के अध्यक्ष का भी विरोध किया गया है कि उन्होंने सही समय में अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी। अध्यक्ष तो आते जाते रहते हैं। साहित्य अकादमी तो एक संस्थान है, मीडिया ने ऐसा धमाका बना दिया है कि उसमें भी दरारें पड़ने लगी हैं। लेखकों के प्रति भी तरह तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। यदि यह मान लिया जाए कि पुरस्कार न लौटाकर मैंने कोई गलती की है, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि मैं इस गलती को सलीब की तरह आजीवन ढोता रहूंगा। मैंने तो तय कर लिया है कि मैं यह पुरस्कार नहीं लौटाऊंगा।
पुरस्कार और कट्टरपंथ
प्रश्न: अब इसमें तीन पक्ष हो गए हैं, एक जिन्होंने पुरस्कार लौटाए हैं या लौटा रहे हैं, एक वे जो उनकी निंदा कर रहे हैं और एक वे जो पुरस्कार लौटाए जाने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन कट्टरपंथ के खिलाफ हैं। क्या आपको ऐसी कोई आशंका है कि पुरस्कार नहीं लौटाने का फैसला करने पर आपको कट्टरपंथ के साथ खड़ा देखा जाएगा?
मैंने तो यह कहा ही है कि जिन कारणों से पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं, उन कारणों को मैं ठीक मानता हूं। जिस तरह की कट्टरता बढ़ रही है, मैं तो उसकी निंदा ही करता हूं। मुझसे यह पूछा गया कि सुर्खियों के बारे में मेरी क्या राय है। लेखक तो कहानियों या अपना रचना का शीर्षक देता है, जिन सुर्खियों की बात की जा रही है, उसे बनाने वाले तो मीडिया के लोग होते हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई लेखक सुर्खियां बनाने के लिए पुरस्कार लौटा रहा हो।
प्रश्न: इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध के रूप में भी देखा जा रहा है। लोकसभा चुनाव के समय भी लेखकों के एक वर्ग ने बयान जारी कर नरेंद्र मोदी का विरोध किया था। पुरस्कार लौटाने वालों में ऐसे लेखक भी हैं। क्या इस विरोध के पीछे भाजपा और संघ का विरोध है या फिर यह देश की बहुलता के लिए रचनात्मक विरोध है?
कट्टरपंथ का विरोध है, यह तो मुझे समझ में आ रहा है। लेकिन पुरस्कार का लौटाना मुझे उचित नहीं लगता। जब मैंने यह पुरस्कार लिया था, तब इसे कोई उधार या कर्ज के रूप में नहीं लिया था, जिसे लौटाने की कोई बाध्यता हो। लेखक की नैतिकता तो उसके लेखन में होती है। पुरस्कार को लौटा कर हम क्या नैतिकता बचाएंगे, या नहीं लौटाकर कैसे अनैतिक हो जाएंगे। रचना ही अपने पक्ष को रखने का एकमात्र तरीका है। विमर्श एक तरीका है। मैं तो इतनी दूर रहता हूं, कि राजनीति के रोज-रोज के जो उतार-चढ़ाव होते हैं, मैं उससे बिल्कुल अलग-थलग हूं। मेरा जो बचा हुआ एकांत है, मैं उसमें तो रचना ही कर सकता हूं। राजनीति की यह समुद्री सुनामी मुझ तक पहुंच नहीं पाती।
राजनीति और साहित्य
प्रश्न: इस विमर्श में एक चीज यह भी आ रही है कि राजनीति एक खराब चीज है। क्या साहित्यकार का किसी राजनीतिक विचारधारा की ओर झुकाव या किसी भी रूप में उसका राजनीतिक होने को आप सही मानते हैं या गलत। क्या साहित्यकार अराजनीतिक हो सकता है?
राजनीति एक बहुत बड़ी ताकत है। यदि यह गलत लोगों के हाथ में आ जाती है, तो इसका दुरुपयोग होने का बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है। राजनीति में अच्छे लोगों के आने का रास्ता तो बनना ही चाहिए। चूंकि हम वोट देते हैं, इसलिए हमारी कुछ तो राजनीति बन जाती है। मेरी दृष्टि में तो मनुष्यता सबसे बड़ी राजनीति है। किसी भी तरीके से मनुष्यता का पक्ष लेना भी राजनीति है। लेखक लेखन के जरिये ही ऐसा कर सकता है। मैं सड़क पर नहीं उतर सकता।
प्रश्न: कोई साहित्यकार राजनीति से निरपेक्ष रह सकता है क्या?
राजनीति में रहना तो एक पक्ष है। निरपेक्ष राजनीति में नहीं रहा जा सकता। अगर आप राजनीति में हैं, तो आपका कोई एक पक्ष बनता है।
प्रश्न:राजनीतिक पार्टियों के दायरे से बाहर, भी क्या किसी साहित्यकार को कोई राजनीतिक विचारधारा बांधती है या वह उससे जुड़ता है?
एक ऐब्सलूट किस्म का विकल्प तो नहीं है। हमारी राजनीति सिर्फ वोट देने तक ही सीमित है। उसके बाद हमारे पास जो कुछ भी बचता है, वह सिर्फ लिखने के लिए ही बचता है। और लिखने में अगर कहीं आप मनुष्यता के बारे में बात करते हैं, तो उसे उस राजनीति के साथ मिलाकर नहीं देखा जाना चाहिए। मैं मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन मानता हूं। मनुष्य ही हिंसा करता है। कोई और हिंसा नहीं करता। शेर अगर आदमी को खा लेता है, तो वह हिंसा नहीं कहलाएगी। चिड़िया अगर कोई जीव जंतु को खा ले तो वह हिंसा नहीं कहलाएगी। समझ तो हमारे पास में है, इसलिए हमारी समझदारी तो मनुष्यता के लिए होनी चाहिए।
प्रश्न: इस विवाद के शुरू होने पर किसी ने आपसे संपर्क किया क्या कि आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा देना चाहिए या नहीं लौटाना चाहिए?
मुझसे इस तरह का संपर्क नहीं किया गया कि मुझे पुरस्कार लौटा चाहिए या नहीं लौटाना चाहिए।
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