हर माता-पिता का ख्वाब होता है कि उसका बच्चा बड़ा होकर या तो डॉक्टर बने या फिर इंजीनियर लेकिन ऐसे बहुत कम ही परिजन होते हैं जिनका यह सपना पूरा होता है। इसके पीछे बड़ी वजह यह है कि इन पाठ्यक्रमों में मेरिट के आधार पर एडमिशन होता है। लेकिन टीवी पर अक्सर ऐसे विज्ञापन दिखाई दे जाते हैं जिनमें एमबीबीएस के पाठ्यक्रमों में सीधी भर्ती का दावा किया जाता है तो फिर इन बच्चों का दाखिला होता क्यों नहीं है?
दरअसल, इसकी आड़ में काला बाजारी का एक बहुत बड़ा धंधा चलाया जाता है जहां से सलाना हजारों करोड़ की कमाई होती है। मेडिकल के सीटों पर दाखिला दिलाने के लिए कई लोग अलग-अलग तरह के दावे करते मिल जाते हैं जो कहते हैं कि वे सीधे एमबीबीएस के पाठ्यक्रम में आपका दाखिला करवा देंगे। अब इसमें यह बात समझ में नहीं आती कि जब भारत में मौजूद एमबीबीएस की सीटों पर मेरिट के आधार पर दाखिला होता है तो ये लोग सीधी भर्ती का दावा कैसे कर सकते हैं? दरअसल मेडिकल कॉलेजों में सीधी भर्ती करवाने का यह पूरा खेल ही काला बाजारी पर टीका है।
इन वादों के पीछे एक बहुत बड़ा काला बाजार काम करता है जो दलालों और कॉलेज मैनेजमेंट की सांठगांठ से चलता है। ये लोग मिलकर हर साल करीब 30 हजार से ज्यादा एमबीबीएस और 9,600 के करीब पोस्ट ग्रेजुएट सीटों पर सीधी भर्ती करवाते हैं। इसके एवज में छात्रों वसूली जाती है मोटी रकम।
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक इस कालाबाजारी के धंधे में हर साल करीब 12 हजार करोड़ रुपये का व्यापार होता है जिसमें नकद भुगतान किया जाता है।
भारत में मौजूद 422 मेडिकल कॉलेजों में से 224 प्राइवेट कॉलेज हैं जो जिनके पास 53 फीसदी मेडिकल सीटें है। इनमें से ज्यादातर कॉलेज तो ऐसे हैं जिनमें सुविधाओं की कमी है या फिर है ही नहीं। इन मेडिकल कॉलेजों ने फर्जी फैकल्टी बना रखे हैं जिनमें कोई मरीज भी नहीं है।
मोटी रकम देकर अपनी सीट बुक कराने वाले विद्यार्थियों को तो प्रवेश परीक्षा तक देने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर सीटें खाली नहीं होती तो मेरिट में आए लड़कों को डरा धमकाकर या भी किसी और तरीके से सीटें खाली करवा ली जाती हैं और बाद में उन्हें ज्यादा पैसे देने वाले लड़को को दे दी जाती हैं।
इसके अलावा कॉलेज मैनेजमेंट के जिम्मे भी कुछ सीटें होती हैं जिनको वह ऐसे ही छात्रों को आवंटित कर देते हैं। हर राज्य में मैनेजमेंट कोटे का प्रतिशत अलग-अलग है। महाराष्ट्र में मैनेजमेंट कोटे के तहत 43 फीसदी सीटें आरक्षित हैं और एनआरआई सीटों के कोटे को मिलाकर यह आंकड़ा 60 फीसदी के करीब पहुंच जाता है।
एक अनुमान के मुताबिक मेडिकल में पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में दाखिले के लिए जितनी भी सीटें होती हैं उनमें से 40 फीसदी तो बेच दी जाती हैं। इनसे सालाना लगभग 2,900 करोड़ रुपये की कमाई होती है। इसके अलावा एमबीबीएस की सीटों का काला बाजार भी काफी बड़ा है। सभी मेडिकल पाठ्यक्रमों को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 12 हजार करोड़ के आस-पास पहुंच जाता है।
जब बात होती है दाखिले की रकम की तो यह अलग-अलग राज्यों में कम ज्यादा हैं। बैंगलोर में जहां एमबीबीएस की एक सीट की कीमत 1 करोड़ रुपये हैं तो यूपी में 25 से 30 लाख। वहीं एमडी इन रेडियोलॉजी और डर्मेटोलॉजी में दाखिले के लिए 3 करोड़ रुपये तक की वसूली होती है।
दाखिले की रकम इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप कितने पहले अपनी सीट बुक कराते हैं। अगर आपने अग्रिम बुकिंग करा रखी है तो आपको बेहतर छूट मिल सकता है। मेडिकल प्रवेश परीक्षा के रिजल्ट आ जाने के बाद यह रकम दोगुनी हो जाती है।
हर माता-पिता का ख्वाब होता है कि उसका बच्चा बड़ा होकर या तो डॉक्टर बने या फिर इंजीनियर लेकिन ऐसे बहुत कम ही परिजन होते हैं जिनका यह सपना पूरा होता है। इसके पीछे बड़ी वजह यह है कि इन पाठ्यक्रमों में मेरिट के आधार पर एडमिशन होता है। लेकिन टीवी पर अक्सर ऐसे विज्ञापन दिखाई दे जाते हैं जिनमें एमबीबीएस के पाठ्यक्रमों में सीधी भर्ती का दावा किया जाता है तो फिर इन बच्चों का दाखिला होता क्यों नहीं है?
दरअसल, इसकी आड़ में काला बाजारी का एक बहुत बड़ा धंधा चलाया जाता है जहां से सलाना हजारों करोड़ की कमाई होती है। मेडिकल के सीटों पर दाखिला दिलाने के लिए कई लोग अलग-अलग तरह के दावे करते मिल जाते हैं जो कहते हैं कि वे सीधे एमबीबीएस के पाठ्यक्रम में आपका दाखिला करवा देंगे। अब इसमें यह बात समझ में नहीं आती कि जब भारत में मौजूद एमबीबीएस की सीटों पर मेरिट के आधार पर दाखिला होता है तो ये लोग सीधी भर्ती का दावा कैसे कर सकते हैं? दरअसल मेडिकल कॉलेजों में सीधी भर्ती करवाने का यह पूरा खेल ही काला बाजारी पर टीका है।
इन वादों के पीछे एक बहुत बड़ा काला बाजार काम करता है जो दलालों और कॉलेज मैनेजमेंट की सांठगांठ से चलता है। ये लोग मिलकर हर साल करीब 30 हजार से ज्यादा एमबीबीएस और 9,600 के करीब पोस्ट ग्रेजुएट सीटों पर सीधी भर्ती करवाते हैं। इसके एवज में छात्रों वसूली जाती है मोटी रकम।
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक इस कालाबाजारी के धंधे में हर साल करीब 12 हजार करोड़ रुपये का व्यापार होता है जिसमें नकद भुगतान किया जाता है।