भोजपुरी के शेक्सपियर और ‘बिदेशिया’ के रचयिता भिखारी ठाकुर किसी परियच के मोहताज नहीं है। भोजपुरी संस्कृति को समृद्ध करने में उनका कोई जोड़ नहीं है।
उनके द्वारा रचित नाटक काफी लोकप्रिय रहे हैं। भिखारी ठाकुर के अमर नृत्य-नाटक बिदेशिया पर सन् 1963 में एक फिल्म बनी, जिसका संगीत बहुत हिट हुआ।
भिखारी ठाकुर का लिखा एक गीत 'हंसी-हंसी पनवा खियौलस बेइमनवा, अ रे बसेला परदेस' जिसे एसएन त्रिपाठी ने संगीतबद्द किया था और मन्ना डे गाया था। वह काफी प्रसिद्ध हुआ था।
18 दिसंबर 1887 को छपरा के कुतुबपुर दियारा गांव में एक निम्नवर्गीय नाई परिवार में जन्म लेने वाले भिखारी ठाकुर ने विमुख होती भोजपुरी संस्कृति को नया जीवन दिया।
भिखारी ठाकुर ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, उसके बावजूद उन्होंने कई कृतियों की रचना की। उनके द्वारा रचित नाटक बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी-बेचवा बेटी-बियोग, बिदेसिया की प्यारी सुंदरी, नशाखोर पति आदि आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितना पहले हुआ करते थे।
भिखारी ठाकुर के नाटकों का मजबूत पक्ष उनके स्त्री पात्र रहे। 'बिदेसिया' की नायिका नवविवाहित बिरहिनी उन लाखों भोजपुरियों की व्यथा उजागर करती है जिनके पति रोजी-रोटी कमाने पूरब के तरफ कलकत्ता और असम गए।
भिखारी ठाकुर अंतिम समय तक सामाजिक चेतना की अलख जगाते रहे। कोई उन्हें भरतमुनि की परंपरा का पहला नाटककार मानता हैं, तो कोई भोजपुरी का भारतेंदू हरिश्चंद्र।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर की उपाधि दे दी। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया। इतना सम्मान मिलने पर भी भिखारी गर्व से फूले नहीं। उन्होंने बस अपना नाटककार ज़िंदा रखा।
भोजपुरियां और पूर्वांचल आज भी भिखारी ठाकुर के नाटकों से गुलज़ार है। ये बात अलग है कि सरकारी उपेक्षा का शिकार इनके गांव तक अब भी नाव से ही जाना पड़ता है।
भोजपुरी के शेक्सपियर और ‘बिदेशिया’ के रचयिता भिखारी ठाकुर किसी परियच के मोहताज नहीं है। भोजपुरी संस्कृति को समृद्ध करने में उनका कोई जोड़ नहीं है।
उनके द्वारा रचित नाटक काफी लोकप्रिय रहे हैं। भिखारी ठाकुर के अमर नृत्य-नाटक बिदेशिया पर सन् 1963 में एक फिल्म बनी, जिसका संगीत बहुत हिट हुआ।
भिखारी ठाकुर का लिखा एक गीत 'हंसी-हंसी पनवा खियौलस बेइमनवा, अ रे बसेला परदेस' जिसे एसएन त्रिपाठी ने संगीतबद्द किया था और मन्ना डे गाया था। वह काफी प्रसिद्ध हुआ था।
18 दिसंबर 1887 को छपरा के कुतुबपुर दियारा गांव में एक निम्नवर्गीय नाई परिवार में जन्म लेने वाले भिखारी ठाकुर ने विमुख होती भोजपुरी संस्कृति को नया जीवन दिया।
भिखारी ठाकुर ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, उसके बावजूद उन्होंने कई कृतियों की रचना की। उनके द्वारा रचित नाटक बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी-बेचवा बेटी-बियोग, बिदेसिया की प्यारी सुंदरी, नशाखोर पति आदि आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितना पहले हुआ करते थे।
भिखारी ठाकुर के नाटकों का मजबूत पक्ष उनके स्त्री पात्र रहे। 'बिदेसिया' की नायिका नवविवाहित बिरहिनी उन लाखों भोजपुरियों की व्यथा उजागर करती है जिनके पति रोजी-रोटी कमाने पूरब के तरफ कलकत्ता और असम गए।
भिखारी ठाकुर अंतिम समय तक सामाजिक चेतना की अलख जगाते रहे। कोई उन्हें भरतमुनि की परंपरा का पहला नाटककार मानता हैं, तो कोई भोजपुरी का भारतेंदू हरिश्चंद्र।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर की उपाधि दे दी। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया। इतना सम्मान मिलने पर भी भिखारी गर्व से फूले नहीं। उन्होंने बस अपना नाटककार ज़िंदा रखा।
भोजपुरियां और पूर्वांचल आज भी भिखारी ठाकुर के नाटकों से गुलज़ार है। ये बात अलग है कि सरकारी उपेक्षा का शिकार इनके गांव तक अब भी नाव से ही जाना पड़ता है।