-निर्माताः विशाल भारद्वाज
-निर्देशकः मेघना गुलजार
-सितारेः इरफान खान, नीरज कबी, कोंकणा सेनशर्मा, तब्बू
रेटिंग ***1/2
इस साल भारत से निर्देशक चैतन्य तम्हाणे की फिल्म कोर्ट ऑस्कर में भेजी जा रही है, जो देश की न्याय व्यवस्था की कार्य प्रणाली को आईना दिखाती है। मेघना गुलजार की तलवार पुलिस और जांच एजेंसियों के काम करने के ढंग पर से पर्दा उठाती है।
फिल्म का एक संवाद याद दिलाता है कि आंखों पर पट्टी बांधे हुए न्याय की देवी के हाथों में केवल तराजू नहीं तलवार भी है। हमारी पुलिस यह तलवार है, मगर इस तलवार को जंग लग चुका है। जंग लगा लोहा जानलेवा घाव देता है। तलवार ऐसे ही एक जख्म का पोस्टमार्टम करती है।
मेघना की फिल्म 2008 में पूरे देश को चौंका देने वाले नोएडा के आरुषि हत्याकांड की जांच प्रक्रिया का एक किस्म से तथ्यात्मक सिनेमाई विवरण है। आप देखते हैं कि पुलिस किस तरह संवेदनहीन और लापरवाह होकर जांच करती है। अधिकारी अपनी कुर्सी बचाने के लिए कैसे मन से ‘अपराध के सिद्धांत’ गढ़ लेते हैं।
कैसे वे किसी केस में तथ्यों को नजरअंदाज करके अपराध का ‘पर्दाफाश’ करते हैं। हालांकि मेघना ने किरदारों के नाम बदले हैं और सीबीआई को सीडीआई कहा है। लेकिन क्यों उन्होंने उत्तर प्रदेश पुलिस और गाजियाबाद जिला न्यायालय को ज्यों का त्यों रखा?
फिल्म एक माता-पिता द्वारा अपनी पुत्री श्रुति और नौकर खेमपाल की हत्या का केस सीबीआई को सौंपे जाने के साथ शुरू होती है। यह मामला अफसर अश्विनी कुमार (इरफान) को दिया जाता है जो अपनी पत्नी (तब्बू) से तलाक के केस में उलझा है।
दंत चिकित्सक रमेश टंडन (नीरज कबी) और नूतन टंडन (कोंकणा सेन शर्मा) को पुलिस अपनी लापरवाही और मनगढंत ढंग से तैयार रिपोर्ट में दोषी ठहरा चुकी है और मीडिया अपना ट्रायल चला रहा है। मगर अश्विनी कुमार इस मामले को तथ्यों की नई रोशनी में देखता है और एक-एक करके हत्याकांड के संदिग्ध नए चेहरे उभरने लगते हैं।
ये हैं खेमपाल के दोस्त। एक डॉ टंडन के क्लीनिक में काम करने वाला नौकर और दूसरा ड्राइवर। अश्विनी की रिपोर्ट जल्द ही विभागीय ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता का शिकार हो जाती है। जांच करने को नए अधिकारी आते हैं और देखते ही देखते टंडन दंपति को दोषी साबित करने वाले नए सुबूत और नई थ्योरी गढ़ ली जाती है। निर्देशक ने पूरे प्रकरण में आंशिक रूप से ही न्यायिक प्रक्रिया को छुआ है। वह उसकी गहराई में नहीं उतरी हैं।
आरुषि और हेमराज हत्याकांड की सच्चाई कोहरे में ढंकी है और राजेश-नूपुर के सिवा असली सच किसी को नहीं पता। वास्तव में आरुषि के माता-पिता दोनों ही स्थितियों में बेहद दुर्भाग्यशाली हैं। अगर जांच और अदालत द्वारा माता-पिता के हाथों 14 वर्षीया बेटी की हत्या की बात सच है तब भी और निरपराध होने के बावजूद कलंक तथा जेल की सजा पाए होने की स्थिति में भी।
फिल्म में एक जांच अधिकारी अपने साथियों से कहता है कि उन्हें काम करते हुए भावनाओं में नहीं बहना चाहिए और तटस्थ होकर कर्म करना चाहिए। लेकिन मेघना और विशाल भारद्वाज का झुकाव तलवार दंपति के पक्ष में साफ दिखता है। फिल्म उन संजीदा दर्शकों के लिए है, जिनकी दिलचस्पी यह जानने में है कि आखिर हमारी पुलिस तथा जांच एजेंसियां कैसे काम करती हैं।
-निर्माताः विशाल भारद्वाज
-निर्देशकः मेघना गुलजार
-सितारेः इरफान खान, नीरज कबी, कोंकणा सेनशर्मा, तब्बू
रेटिंग ***1/2
इस साल भारत से निर्देशक चैतन्य तम्हाणे की फिल्म कोर्ट ऑस्कर में भेजी जा रही है, जो देश की न्याय व्यवस्था की कार्य प्रणाली को आईना दिखाती है। मेघना गुलजार की तलवार पुलिस और जांच एजेंसियों के काम करने के ढंग पर से पर्दा उठाती है।
फिल्म का एक संवाद याद दिलाता है कि आंखों पर पट्टी बांधे हुए न्याय की देवी के हाथों में केवल तराजू नहीं तलवार भी है। हमारी पुलिस यह तलवार है, मगर इस तलवार को जंग लग चुका है। जंग लगा लोहा जानलेवा घाव देता है। तलवार ऐसे ही एक जख्म का पोस्टमार्टम करती है।
मेघना की फिल्म 2008 में पूरे देश को चौंका देने वाले नोएडा के आरुषि हत्याकांड की जांच प्रक्रिया का एक किस्म से तथ्यात्मक सिनेमाई विवरण है। आप देखते हैं कि पुलिस किस तरह संवेदनहीन और लापरवाह होकर जांच करती है। अधिकारी अपनी कुर्सी बचाने के लिए कैसे मन से ‘अपराध के सिद्धांत’ गढ़ लेते हैं।
और एक-एक करके हत्याकांड के संदिग्ध नए चेहरे उभरने लगते हैं
कैसे वे किसी केस में तथ्यों को नजरअंदाज करके अपराध का ‘पर्दाफाश’ करते हैं। हालांकि मेघना ने किरदारों के नाम बदले हैं और सीबीआई को सीडीआई कहा है। लेकिन क्यों उन्होंने उत्तर प्रदेश पुलिस और गाजियाबाद जिला न्यायालय को ज्यों का त्यों रखा?
फिल्म एक माता-पिता द्वारा अपनी पुत्री श्रुति और नौकर खेमपाल की हत्या का केस सीबीआई को सौंपे जाने के साथ शुरू होती है। यह मामला अफसर अश्विनी कुमार (इरफान) को दिया जाता है जो अपनी पत्नी (तब्बू) से तलाक के केस में उलझा है।
दंत चिकित्सक रमेश टंडन (नीरज कबी) और नूतन टंडन (कोंकणा सेन शर्मा) को पुलिस अपनी लापरवाही और मनगढंत ढंग से तैयार रिपोर्ट में दोषी ठहरा चुकी है और मीडिया अपना ट्रायल चला रहा है। मगर अश्विनी कुमार इस मामले को तथ्यों की नई रोशनी में देखता है और एक-एक करके हत्याकांड के संदिग्ध नए चेहरे उभरने लगते हैं।
और राजेश-नूपुर के सिवा असली सच किसी को नहीं पता
ये हैं खेमपाल के दोस्त। एक डॉ टंडन के क्लीनिक में काम करने वाला नौकर और दूसरा ड्राइवर। अश्विनी की रिपोर्ट जल्द ही विभागीय ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता का शिकार हो जाती है। जांच करने को नए अधिकारी आते हैं और देखते ही देखते टंडन दंपति को दोषी साबित करने वाले नए सुबूत और नई थ्योरी गढ़ ली जाती है। निर्देशक ने पूरे प्रकरण में आंशिक रूप से ही न्यायिक प्रक्रिया को छुआ है। वह उसकी गहराई में नहीं उतरी हैं।
आरुषि और हेमराज हत्याकांड की सच्चाई कोहरे में ढंकी है और राजेश-नूपुर के सिवा असली सच किसी को नहीं पता। वास्तव में आरुषि के माता-पिता दोनों ही स्थितियों में बेहद दुर्भाग्यशाली हैं। अगर जांच और अदालत द्वारा माता-पिता के हाथों 14 वर्षीया बेटी की हत्या की बात सच है तब भी और निरपराध होने के बावजूद कलंक तथा जेल की सजा पाए होने की स्थिति में भी।
फिल्म में एक जांच अधिकारी अपने साथियों से कहता है कि उन्हें काम करते हुए भावनाओं में नहीं बहना चाहिए और तटस्थ होकर कर्म करना चाहिए। लेकिन मेघना और विशाल भारद्वाज का झुकाव तलवार दंपति के पक्ष में साफ दिखता है। फिल्म उन संजीदा दर्शकों के लिए है, जिनकी दिलचस्पी यह जानने में है कि आखिर हमारी पुलिस तथा जांच एजेंसियां कैसे काम करती हैं।