मंदी को लेकर आमतौर पर धारणा यही है कि मंदी में रोजगार के अवसरों में कटौती होती है और आर्थिक विकास प्रभावित होता है, पर बात महज इतनी-सी नहीं है। प्लान इंटरनेशनल ऐंड ओवरसीज संस्था का हालिया शोध बताता है कि दुनिया भर में मंदी की मार सबसे ज्यादा महिलाओं और लड़कियों पर पड़ती है।
आंकड़े बताते हैं कि मंदी के कारण दुनिया में लड़कियों को अपनी प्राथमिक शिक्षा अधूरी छोड़नी पड़ती है। प्राथमिक स्कूलों में 27 प्रतिशत बच्चियों को बीच में पढ़ाई छोड़कर मां के साथ चूल्हे-चौके में हाथ बंटाना पड़ता है, जबकि इसके मुकाबले लड़कों की संख्या 22 फीसदी है। विकास की दौड़ का सच यह भी है कि आर्थिक रूप से पिछड़े देशों में यह समस्या ज्यादा है।
बदलती दुनिया में परिवार की परिभाषाएं बदल रही हैं। अब 'जेंडर कंवर्जेंस' जैसे शब्द समाज द्वारा स्थापित लिंग अपेक्षाओं को तोड़ रहे हैं, जिसमें किसी लिंग विशेष से यह उम्मीद की जाती है कि वह समाज द्वारा स्थापित लिंग मान्यताओं के अनुरूप अपना आचरण करेगा। लेकिन यह संपूर्ण विश्व पर लागू नहीं होता। कई अल्पविकसित देश अब भी इन समस्याओं से जूझ रहे हैं।
विश्व बैंक द्वारा दुनिया के 59 देशों में किए गए सर्वे से यह नतीजा निकला है कि यदि अर्थव्यवस्था एक प्रतिशत लुढ़कती है, तो प्रति हजार बच्चों में मरने वाली नवजात बच्चियों का प्रतिशत 7.4 होता है, जबकि लड़कों का 1.5 फीसदी। यानी मंदी का असर लड़कियों के अस्तित्व पर भी पड़ रहा है।
भारत जैसे देश में लड़कियों को गर्भ में मार देने की सोच के पीछे वित्त का मनोविज्ञान जिम्मेदार है। यह मनोविज्ञान इस आधार पर काम करता है कि पुरुष ही आमदनी का मुख्य स्रोत है। ऐसे में उसकी सुख-सुविधा में कमी उत्पादकता पर असर डालेगी, लिहाजा महिलाएं अपनी जरूरतों में कटौती कर लेती हैं और बाद में यह क्रिया पीढ़ियों का हिस्सा बन जाती है।
रिपोर्ट बताती है कि मंदी लड़कियों की थाली से निवाले की संख्या भी घटा देती है। जिस वजह से महिलाओं को पोषक तत्वों से भरपूर खाना नहीं मिलता, जो गर्भवती महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा घातक सिद्ध होता है। भारतीय रसोइयों में तो वैसे भी घर के मुखिया और पुरुषों को खिला देने के बाद बचे खाने में महिलाओं का नंबर आता है। इन सबका परोक्ष असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
महिलाओं की स्थिति भारत में भी बदतर है। महिलाओं पर पड़ने वाला यह असर महज आर्थिक न होकर बहुआयामी होता है, जो एक ऐसे दुष्चक्र का निर्माण करता है, जिससे किसी भी देश का सामजिक-आर्थिक ढांचा प्रभावित होता है और आर्थिक असंतुलन के वक्त इसका सबसे बड़ा शिकार महिलाएं होती हैं।
सीवन एंडरसन और देवराज रे नामक दो अर्थशास्त्रियों ने अपने शोधपत्र 'मिसिंग वूमेन एज ऐंड डिजीज' में आकलन किया है कि भारत में हर साल बीस लाख से ज्यादा महिलाएं लापता हो जाती हैं। इस मामले में दो राज्य हरियाणा और राजस्थान अव्वल हैं।
शोधपत्र के अनुसार, ज्यादातर महिलाओं की मौत जख्मों से होती है, जिससे यह पता चलता है कि उनके साथ हिंसा होती है। वर्ष 2011 के पुलिस आंकड़े बताते हैं कि देश में लड़कियों के अपहरण के मामले 19.4 प्रतिशत बढ़े हैं, जबकि दहेज मामलों में महिलाओं की मौत में 2.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि लड़कियों की तस्करी के मामले 122 प्रतिशत बढ़े हैं।
रिपोर्ट के अनुसार मंदी के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और उनकी जरूरतों को नजरंदाज करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। लड़कियों की कम उम्र में शादी इसलिए कर दी जा रही है, ताकि उनके खाने का खर्चा बचाया जा सके।
भारत में इस समस्या से निपटने के लिए जेंडर बजटिंग की शुरुआत की है, पर कई राज्यों में अभी इस तरह की पहल होनी बाकी है, जिससे जमीनी स्तर पर बड़ा बदलाव दिखे। नन्हे हाथों से बर्तनों की कालिख छुड़ाती, बचपन की कमर पर पानी का मटका भरकर लाती और सारे घर को बुहारती बिटिया हो या घर का सारा काम निपटाती गृहिणी, फिलवक्त दोनों ही बदलाव के इंतजार में हैं। अगर हम वास्तव में बराबरी और समृद्धि का समाज चाहते हैं, तो हमें इस आधी आबादी को उसका हक देना ही होगा।
मंदी को लेकर आमतौर पर धारणा यही है कि मंदी में रोजगार के अवसरों में कटौती होती है और आर्थिक विकास प्रभावित होता है, पर बात महज इतनी-सी नहीं है। प्लान इंटरनेशनल ऐंड ओवरसीज संस्था का हालिया शोध बताता है कि दुनिया भर में मंदी की मार सबसे ज्यादा महिलाओं और लड़कियों पर पड़ती है।
आंकड़े बताते हैं कि मंदी के कारण दुनिया में लड़कियों को अपनी प्राथमिक शिक्षा अधूरी छोड़नी पड़ती है। प्राथमिक स्कूलों में 27 प्रतिशत बच्चियों को बीच में पढ़ाई छोड़कर मां के साथ चूल्हे-चौके में हाथ बंटाना पड़ता है, जबकि इसके मुकाबले लड़कों की संख्या 22 फीसदी है। विकास की दौड़ का सच यह भी है कि आर्थिक रूप से पिछड़े देशों में यह समस्या ज्यादा है।
बदलती दुनिया में परिवार की परिभाषाएं बदल रही हैं। अब 'जेंडर कंवर्जेंस' जैसे शब्द समाज द्वारा स्थापित लिंग अपेक्षाओं को तोड़ रहे हैं, जिसमें किसी लिंग विशेष से यह उम्मीद की जाती है कि वह समाज द्वारा स्थापित लिंग मान्यताओं के अनुरूप अपना आचरण करेगा। लेकिन यह संपूर्ण विश्व पर लागू नहीं होता। कई अल्पविकसित देश अब भी इन समस्याओं से जूझ रहे हैं।
विश्व बैंक द्वारा दुनिया के 59 देशों में किए गए सर्वे से यह नतीजा निकला है कि यदि अर्थव्यवस्था एक प्रतिशत लुढ़कती है, तो प्रति हजार बच्चों में मरने वाली नवजात बच्चियों का प्रतिशत 7.4 होता है, जबकि लड़कों का 1.5 फीसदी। यानी मंदी का असर लड़कियों के अस्तित्व पर भी पड़ रहा है।
भारत जैसे देश में लड़कियों को गर्भ में मार देने की सोच के पीछे वित्त का मनोविज्ञान जिम्मेदार है। यह मनोविज्ञान इस आधार पर काम करता है कि पुरुष ही आमदनी का मुख्य स्रोत है। ऐसे में उसकी सुख-सुविधा में कमी उत्पादकता पर असर डालेगी, लिहाजा महिलाएं अपनी जरूरतों में कटौती कर लेती हैं और बाद में यह क्रिया पीढ़ियों का हिस्सा बन जाती है।
रिपोर्ट बताती है कि मंदी लड़कियों की थाली से निवाले की संख्या भी घटा देती है। जिस वजह से महिलाओं को पोषक तत्वों से भरपूर खाना नहीं मिलता, जो गर्भवती महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा घातक सिद्ध होता है। भारतीय रसोइयों में तो वैसे भी घर के मुखिया और पुरुषों को खिला देने के बाद बचे खाने में महिलाओं का नंबर आता है। इन सबका परोक्ष असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
महिलाओं की स्थिति भारत में भी बदतर है। महिलाओं पर पड़ने वाला यह असर महज आर्थिक न होकर बहुआयामी होता है, जो एक ऐसे दुष्चक्र का निर्माण करता है, जिससे किसी भी देश का सामजिक-आर्थिक ढांचा प्रभावित होता है और आर्थिक असंतुलन के वक्त इसका सबसे बड़ा शिकार महिलाएं होती हैं।
सीवन एंडरसन और देवराज रे नामक दो अर्थशास्त्रियों ने अपने शोधपत्र 'मिसिंग वूमेन एज ऐंड डिजीज' में आकलन किया है कि भारत में हर साल बीस लाख से ज्यादा महिलाएं लापता हो जाती हैं। इस मामले में दो राज्य हरियाणा और राजस्थान अव्वल हैं।
शोधपत्र के अनुसार, ज्यादातर महिलाओं की मौत जख्मों से होती है, जिससे यह पता चलता है कि उनके साथ हिंसा होती है। वर्ष 2011 के पुलिस आंकड़े बताते हैं कि देश में लड़कियों के अपहरण के मामले 19.4 प्रतिशत बढ़े हैं, जबकि दहेज मामलों में महिलाओं की मौत में 2.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि लड़कियों की तस्करी के मामले 122 प्रतिशत बढ़े हैं।
रिपोर्ट के अनुसार मंदी के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और उनकी जरूरतों को नजरंदाज करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। लड़कियों की कम उम्र में शादी इसलिए कर दी जा रही है, ताकि उनके खाने का खर्चा बचाया जा सके।
भारत में इस समस्या से निपटने के लिए जेंडर बजटिंग की शुरुआत की है, पर कई राज्यों में अभी इस तरह की पहल होनी बाकी है, जिससे जमीनी स्तर पर बड़ा बदलाव दिखे। नन्हे हाथों से बर्तनों की कालिख छुड़ाती, बचपन की कमर पर पानी का मटका भरकर लाती और सारे घर को बुहारती बिटिया हो या घर का सारा काम निपटाती गृहिणी, फिलवक्त दोनों ही बदलाव के इंतजार में हैं। अगर हम वास्तव में बराबरी और समृद्धि का समाज चाहते हैं, तो हमें इस आधी आबादी को उसका हक देना ही होगा।