पिछला दशक शहरी मध्यवर्ग में बढ़ते एक्टिविज्म का गवाह रहा है, जैसा कि इंडिया अंगेस्ट करप्शन के ऐतिहासिक आंदोलन के दौरान देखा गया था। इसी आंदोलन से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ है, जिसे भारत का पहला वर्ग आधारित शहरी राजनीतिक दल कहा जा सकता है। 2014 के आम चुनाव में देखा गया कि मध्यवर्ग ने हाल के इतिहास में पहली बार गरीबों की तुलना में कहीं अधिक संख्या में मतदान में हिस्सा लिया था। यह कहा जा सकता है कि 2014 की भाजपा की चुनावी सफलता का मुख्य कारण नीतिगत मुद्दों पर वैचारिक विभाजन था और यह राज्य के नियंत्रणों के प्रति मध्यवर्ग की जागरूकता से उपजा था। शहरीकरण के बढ़ने और आय में वृद्धि होने के कारण जनसांख्यिकी भी बदल रही है और उसकी वजह से भविष्य में भी यह रूझान बढ़ सकता है। अभी भारत की शहरी आबादी 32 फीसदी है, जिसके 2050 तक दोगुना हो जाने की संभावना है। इसी तरह से 2025 तक मध्यवर्ग में एक अरब और लोग जुड़ सकते हैं।
इन तथ्यों के बावजूद शहरी मध्यवर्ग के प्रति लोकप्रिय और विद्वतापूर्ण अवधारणा यही है कि इस वर्ग में चुनावी राजनीति को लेकर उपेक्षा का भाव है। हम अक्सर सुनते हैं कि मध्यवर्ग एक्टिविज्म के जरिये अपने नागरिक अधिकारों पर जोर देता है, ताकि उसका जीवन बेहतर हो सके, जबकि चुनाव राजनीति मुख्यतः गरीबों पर केंद्रित होती है। हालांकि मध्यवर्ग में शामिल कुछ वर्ग रेसिडेंट वेलफेयर सोसाइटी से लेकर नगर पालिका के चुनाव तक दलगत राजनीति में सक्रिय हैं; कुछ तो आप और लोक सत्ता जैसे राजनीतिक दलों में भी सक्रिय हैं। इस विरोधाभासी आकलन को किस तरह से देखना चाहिए? मध्यवर्ग में शामिल कौन लोग चुनाव लड़ रहे हैं? कौन लोग सिविल सोसाइटी में सक्रिय हैं? और पिछले कुछ वर्षों में मध्यवर्ग के बढ़ते एक्टिविज्म की वजह क्या है?
दिल्ली में 2006-14 के दौरान किए गए शोध के दौरान मैंने पाया कि मध्यवर्ग की लामबंदी की दो वजहें हैं। पहली, इसकी कथित चुनावी क्षमता और दूसरी, राज्य के भीतर इसका पूर्वनिर्मित प्रसार। राजनीतिक व्यवस्था द्वारा मध्यवर्ग के जिस हिस्से को चुनावी रूप से अहम माना जाता है, वह राज्य में मतदाता के रूप में अधिक सक्रिय होता है। राजनीतिक प्रतिनिधि और मध्यवर्ग अधिकांश विवादों को मौजूदा संस्थागत कड़ियों के जरिये सुलझाने में सक्षम हैं। इसमें मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा शामिल है, जो विशेषरूप से शहर के अनधिकृत हिस्सों में सार्वजनिक सेवाओं और सुरक्षा के लिए राज्य पर निर्भर है। लोकप्रिय अवधारणा के विपरीत लोकनीति के आंकड़े बताते हैं कि मध्यवर्ग अमीरों और शहरी गरीबों की तुलना में चुनावों में कहीं अधिक सक्रियता दिखाता है। सबसे अहम यह है कि राजनीतिक दल मध्यवर्ग को महत्वपूर्ण वर्ग के तौर पर देखते हैं और झुग्गियों के वोटरों की तुलना में इस वर्ग के मतदाताओं के बीच कहीं अधिक प्रचार करते हैं।
वर्ष 2000-07 के दौरान दिल्ली में 90 फीसदी जनहित याचिकाएं मध्यवर्ग से जुड़े संगठनों ने दायर की थीं। ये याचिकाएं सार्वजनिक जगहों पर अतिक्रमण जैसे मुद्दों से जुड़ी थीं। मध्यवर्ग का यह हिस्सा मीडिया और डिजिटल टेक्नोलॉजी के जरिये लामबंदी करता है। यदि 90 के दशक में सामाजिक रूप से वंचितों के बीच राजनीतिक भागीदारी के विस्तार को दूसरी लोकतांत्रिक लहर करार दिया गया था, तो शहरी मध्यवर्ग की बढ़ती भागीदारी को आने वाले वर्षों में भारत की तीसरी लोकतांत्रिक लहर कहा सकता है।
- ब्राउन विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस की शोधार्थी
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