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ग्रामीण मतदाता कितने समझदार

मार्क श्नाइडर Updated Mon, 05 Feb 2018 06:43 PM IST

ग्रामीण भारतीय मतदाता क्या स्थानीय चुनाव की जटिलताओं को समझने के लिए पर्याप्त रूप से समझदार हैं? 1992 में पारित 73वें संशोधन ने ग्राम पंचायतों (ग्रामीण भारत की सबसे निम्नस्तरीय सरकार) को सांविधानिक दर्जा दिया और ग्राम पंचायत सदस्यों, प्रधानों के नियमित चुनाव को अनिवार्य बना दिया।  नतीजतन लाखों लोग निर्वाचित होकर स्थानीय शासन में शामिल हुए।  इसने सरकारी कार्यक्रमों के स्थानीय क्रियान्वयन पर पर्याप्त विवेकशीलता के साथ स्थानीय नेताओं, खासकर सरपंचों को सशक्त बनाया। इसके साथ राज्य सरकारों ने  स्थानीय सार्वजनिक चीजों, जैसे  स्कूल, सड़क, मनरेगा की परियोजनाओं के लिए धन आवंटन पर अपना विवेकाधिकार बरकरार रखा। अनुसंधान से पता चलता है कि भारत में सरकार के विभिन्न स्तरों में शामिल राजनेता सरकारी संसाधनों के आवंटन में अपने समर्थकों का पक्ष लेते हैं। 73वें संशोधन के जरिये जो बहुस्तरीय प्रणाली बनाई गई है, उसमें मतदाताओं के लिए एक सरपंच का चुनाव बहुत कठिन कार्य है। मसलन, मेरे शोध स्थल राजस्थान में भाजपा का शासन है और कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है। इसका मतलब है कि कांग्रेस सरपंच भाजपा समर्थकों के बजाय कांग्रेस समर्थकों का पक्ष लेगा, पर जब विभिन्न परियोजनाओं के लिए धन आवंटन की बात आएगी, तो भाजपा शासित राज्य सरकार द्वारा उनके गांव की उपेक्षा की जा सकती है। इसलिए सरपंच चुनते समय राजस्थान के मतदाताओं को न सिर्फ सरपंच उम्मीदवारों की पार्टी पर विचार करना चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि राज्य में किस पार्टी की सरकार है। क्या ग्रामीण मतदाताओं को इतना जागरूक बनाया गया है कि वे यह समझ सकें कि किस तरह से बहुस्तरीय राजनीतिक संदर्भ राज्य के लाभों तक उनकी पहुंच को प्रभावित कर सकता है और सरपंच चुनाव में उनकी वोट वरीयता पर क्या इसका कोई प्रभाव पड़ता है?


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