समूचा विश्व इन दिनों एक संक्रामक महामारी से जंग लड़ रहा है। एक महामारी से विश्व की इस तरह जंग का यह पहला अनुभव है। देर-सबेर जब स्थितियां सामान्य होंगी, राष्ट्रीय स्तर पर आपदा तंत्र की समीक्षा करनी पड़ेगी।
एक पत्रकार के नाते मैंने यह पाया है कि हिंदुस्तानी नागरिक संकट की घड़ियों में जबरदस्त परिपक्वता का परिचय देते हैं, लेकिन हमारा आपदा तंत्र हर बार लड़खड़ाया सा नजर आता है। इस आपदा तंत्र को अभी तक पेशेवर दक्षता हासिल नहीं हुई है।
राह चलते व्यक्ति के हाथ में दूध की थैली या सब्जी का झोला दिखने पर लाठी क्यों बरसनी चाहिए? गाड़ी रोकते ही उसमें बैठा व्यक्ति परिचय देता है और बाहर निकलने की मजबूरी बताता है तो उसे सलाह देने के स्थान पर पीट देना, मुर्गा बनाना या उठक-बैठक लगवाना मौलिक अधिकारों का हनन नहीं तो और क्या है?
किसी के सड़क पर आने की सूरत में तो हुक्मरान को यह बेचैनी होनी चाहिए कि उसे क्या परेशानी है, जो वह घर से बाहर आया है। दूसरी बात आफत के समय केंद्र और राज्यों के राहत और पुनर्वास विभागों में अंदरूनी तालमेल बिखर जाता है।
मौजूदा स्थितियों में सरकारी अस्पताल काम तो कर रहे हैं, पर उनका प्रबंधन यह नहीं सोच रहा कि कोरोना के अलावा अन्य बीमारियों से पीड़ित मरीजों का क्या होगा? इसी तरह रोजमर्रा की वस्तुओं, दूध, सब्जी, पानी और किराना का वैकल्पिक तंत्र विकसित किए बिना सेवाओं को अपाहिज बना देने की क्या तुक है?
विडंबना यह कि छोटी-छोटी दुकानों से दो-चार दिन की सामग्री तो मिल सकती है, मगर शहर की सीमाओं को सील करने से आपूर्ति कैसे होगी। इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है।
पलायन का दंश
स्वतंत्रता के समय भारत विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में पलायन देखा गया था। उसके बाद कोरोना में लॉकडाउन के कारण लाखों लोग गांवों-कस्बों के लिए पैदल निकल पड़े हैं। इन दैनिक श्रमिकों के लिए आपदा के दिनों में इंतजाम क्यों नहीं होना चाहिए? वर्तमान संकट तो कुछ महीने बाद समाप्त हो जाएगा, पर इसके बाद आपदा प्रबंधन का चुस्त-दुरुस्त चेहरा देखने को मिलेगा। हम ऐसी आशा कर सकते हैं।
समूचा विश्व इन दिनों एक संक्रामक महामारी से जंग लड़ रहा है। एक महामारी से विश्व की इस तरह जंग का यह पहला अनुभव है। देर-सबेर जब स्थितियां सामान्य होंगी, राष्ट्रीय स्तर पर आपदा तंत्र की समीक्षा करनी पड़ेगी।
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एक पत्रकार के नाते मैंने यह पाया है कि हिंदुस्तानी नागरिक संकट की घड़ियों में जबरदस्त परिपक्वता का परिचय देते हैं, लेकिन हमारा आपदा तंत्र हर बार लड़खड़ाया सा नजर आता है। इस आपदा तंत्र को अभी तक पेशेवर दक्षता हासिल नहीं हुई है।
राह चलते व्यक्ति के हाथ में दूध की थैली या सब्जी का झोला दिखने पर लाठी क्यों बरसनी चाहिए? गाड़ी रोकते ही उसमें बैठा व्यक्ति परिचय देता है और बाहर निकलने की मजबूरी बताता है तो उसे सलाह देने के स्थान पर पीट देना, मुर्गा बनाना या उठक-बैठक लगवाना मौलिक अधिकारों का हनन नहीं तो और क्या है?
किसी के सड़क पर आने की सूरत में तो हुक्मरान को यह बेचैनी होनी चाहिए कि उसे क्या परेशानी है, जो वह घर से बाहर आया है। दूसरी बात आफत के समय केंद्र और राज्यों के राहत और पुनर्वास विभागों में अंदरूनी तालमेल बिखर जाता है।
मौजूदा स्थितियों में सरकारी अस्पताल काम तो कर रहे हैं, पर उनका प्रबंधन यह नहीं सोच रहा कि कोरोना के अलावा अन्य बीमारियों से पीड़ित मरीजों का क्या होगा? इसी तरह रोजमर्रा की वस्तुओं, दूध, सब्जी, पानी और किराना का वैकल्पिक तंत्र विकसित किए बिना सेवाओं को अपाहिज बना देने की क्या तुक है?
विडंबना यह कि छोटी-छोटी दुकानों से दो-चार दिन की सामग्री तो मिल सकती है, मगर शहर की सीमाओं को सील करने से आपूर्ति कैसे होगी। इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है।
पलायन का दंश
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