विश्व में पर्यावरण स्तर पर जलवायु बदलाव का संकट सबसे चर्चित है और आजीविका स्तर पर छोटे व मध्यम किसानों की आजीविका का संकट चुनौतीपूर्ण है। आज जरूरत ऐसी नीतियों की है, जो दोनों संकटों को एक साथ कम कर सकें। यदि मिट्टी के जैविक या आर्गेनिक हिस्से को बचाया जाए, तो इसमें कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने या समेटने की बहुत क्षमता होती है। दूसरा पक्ष यह है कि वृक्षों, वनों, घास, चरागाह के रूप में हरियाली को बचाया व बढ़ाया जाए, तो इसमें भी कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की बहुत क्षमता है। ये दोनों उपाय किसानों व अन्य गांववासियों के सहयोग व भागीदारी से होने चाहिए। विश्व स्तर पर प्रस्तावित है कि जो भी समुदाय ग्रीन हाऊस गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान देंगे, उनके लिए आर्थिक सहायता की व्यवस्था होगी। भारत सरकार को चाहिए कि वह इस सहायता का एक बड़ा हिस्सा देश के उन ग्रामीण समुदायों, किसानों, भूमिहीनों व आदिवासियों के लिए प्राप्त करे, जो मिट्टी का जैविक हिस्सा व हरियाली बढ़ाकर अपना योगदान इसमें देते हैं।
विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों में बताया गया कि पिछली शताब्दी में कृषि भूमि की मिट्टी में 30 से 75 प्रतिशत जैविक तत्व का ह्रास हुआ है व चरागाह व घास मैदानों में 50 प्रतिशत हिस्से का ह्रास हुआ है। यह क्षति 150 से 200 अरब टन की हुई है, व इसके कारण 200 से 300 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन विश्व स्तर पर हुआ है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की अतिरिक्त मात्रा या अधिकता का 25 से 40 प्रतिशत भाग इस मिट्टी की क्षति से हुआ है। दूसरी ओर इसी मिट्टी की क्षति के कारण कृषि भूमि का प्राकृतिक उपजाऊपन कम हुआ है व न्यूनतम खर्च पर उचित उत्पादकता प्राप्त करने की किसानों की क्षमता कम हुई है। अतः मिट्टी का जैविक तत्व बढ़ेगा, तो किसानों का संकट भी कम होगा व जलवायु बदलाव का संकट भी कम होगा। मिट्टी का जैविक तत्व बढ़ाने में कृषि की परंपरागत तकनीक व उपाय बहुत उपयोगी हैं, जिनमें गोबर-पत्ती की खाद, हरी खाद, मिश्रित खेती, फसल-चक्र के चुनाव, मिट्टी व जल संरक्षण के विभिन्न उपायों का विशेष महत्व है, जो सस्ते व आत्मनिर्भरता बढ़ाने वाले उपाय हैं। जिस तरह पिछले कुछ दशकों में इन परंपरागत तौर-तरीके को छोड़ने से जैविक तत्वों का ह्रास हुआ, वैसे ही अगले कुछ वर्षों में इन उपायों से हम पुनः मिट्टी के जैविक तत्व की पहले जैसी मात्रा को प्राप्त कर सकते हैं, जिससे किसानों का लाभ होगा व जलवायु बदलाव का संकट भी कम होगा।
मृदा वैज्ञानिक चार्ली बोस्ट ने अनेक अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष दिया है कि रासायनिक खाद के उपयोग से मिट्टी के जैविक कार्बन तत्व में कमी होती है। इंटरनेशनल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज के अनुसार, रासायनिक नाइट्रोजन खाद के उपयोग से वायुमंडल में नाइट्रस ऑक्साइड में वृद्धि होती है व ग्रीनहाउस गैस के रूप में इसे कार्बन डाइऑक्साइड से 300 गुना अधिक विध्वंसक पाया गया है। मिट्टी में जैविक तत्व वृद्धि के साथ प्राकृतिक वनों की रक्षा, स्थानीय प्रकृति व चौड़ी पत्ती के घने वृक्षों को पनपाना, वनों की आग को रोकने के असरदार उपाय करना, चरागाहों व घास के मैदानों की हरियाली बढ़ाना व इनकी रक्षा करना-यह सब ऐसे कार्य हैं, जिसमें किसानों व गांववासियों को भी लाभ मिलता है व जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में भी सहायता मिलती है।
विशेषकर आदिवासी व पर्वतीय गांवों के संदर्भ में इनका महत्व और भी अधिक है। जलवायु बदलाव के इस दौर में आज नहीं, तो कल इस बारे में जागरूकता बढ़नी ही है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने वाली खेती को अपनाया जाए व यदि इसे अपनाने से खर्च कम होते हैं, आत्मनिर्भरता बढ़ती है, उत्पादन भी ठीक होता है, तो फिर किसान ऐसी खेती को अवश्य ही अपनाना चाहेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम ऐसी स्थितियां उत्पन्न करें, जिससे यह सब व्यवहारिक स्तर पर संभव हो और इसका प्रसार हो सके।
विश्व में पर्यावरण स्तर पर जलवायु बदलाव का संकट सबसे चर्चित है और आजीविका स्तर पर छोटे व मध्यम किसानों की आजीविका का संकट चुनौतीपूर्ण है। आज जरूरत ऐसी नीतियों की है, जो दोनों संकटों को एक साथ कम कर सकें। यदि मिट्टी के जैविक या आर्गेनिक हिस्से को बचाया जाए, तो इसमें कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने या समेटने की बहुत क्षमता होती है। दूसरा पक्ष यह है कि वृक्षों, वनों, घास, चरागाह के रूप में हरियाली को बचाया व बढ़ाया जाए, तो इसमें भी कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की बहुत क्षमता है। ये दोनों उपाय किसानों व अन्य गांववासियों के सहयोग व भागीदारी से होने चाहिए। विश्व स्तर पर प्रस्तावित है कि जो भी समुदाय ग्रीन हाऊस गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान देंगे, उनके लिए आर्थिक सहायता की व्यवस्था होगी। भारत सरकार को चाहिए कि वह इस सहायता का एक बड़ा हिस्सा देश के उन ग्रामीण समुदायों, किसानों, भूमिहीनों व आदिवासियों के लिए प्राप्त करे, जो मिट्टी का जैविक हिस्सा व हरियाली बढ़ाकर अपना योगदान इसमें देते हैं।
विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों में बताया गया कि पिछली शताब्दी में कृषि भूमि की मिट्टी में 30 से 75 प्रतिशत जैविक तत्व का ह्रास हुआ है व चरागाह व घास मैदानों में 50 प्रतिशत हिस्से का ह्रास हुआ है। यह क्षति 150 से 200 अरब टन की हुई है, व इसके कारण 200 से 300 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन विश्व स्तर पर हुआ है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की अतिरिक्त मात्रा या अधिकता का 25 से 40 प्रतिशत भाग इस मिट्टी की क्षति से हुआ है। दूसरी ओर इसी मिट्टी की क्षति के कारण कृषि भूमि का प्राकृतिक उपजाऊपन कम हुआ है व न्यूनतम खर्च पर उचित उत्पादकता प्राप्त करने की किसानों की क्षमता कम हुई है। अतः मिट्टी का जैविक तत्व बढ़ेगा, तो किसानों का संकट भी कम होगा व जलवायु बदलाव का संकट भी कम होगा। मिट्टी का जैविक तत्व बढ़ाने में कृषि की परंपरागत तकनीक व उपाय बहुत उपयोगी हैं, जिनमें गोबर-पत्ती की खाद, हरी खाद, मिश्रित खेती, फसल-चक्र के चुनाव, मिट्टी व जल संरक्षण के विभिन्न उपायों का विशेष महत्व है, जो सस्ते व आत्मनिर्भरता बढ़ाने वाले उपाय हैं। जिस तरह पिछले कुछ दशकों में इन परंपरागत तौर-तरीके को छोड़ने से जैविक तत्वों का ह्रास हुआ, वैसे ही अगले कुछ वर्षों में इन उपायों से हम पुनः मिट्टी के जैविक तत्व की पहले जैसी मात्रा को प्राप्त कर सकते हैं, जिससे किसानों का लाभ होगा व जलवायु बदलाव का संकट भी कम होगा।
मृदा वैज्ञानिक चार्ली बोस्ट ने अनेक अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष दिया है कि रासायनिक खाद के उपयोग से मिट्टी के जैविक कार्बन तत्व में कमी होती है। इंटरनेशनल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज के अनुसार, रासायनिक नाइट्रोजन खाद के उपयोग से वायुमंडल में नाइट्रस ऑक्साइड में वृद्धि होती है व ग्रीनहाउस गैस के रूप में इसे कार्बन डाइऑक्साइड से 300 गुना अधिक विध्वंसक पाया गया है। मिट्टी में जैविक तत्व वृद्धि के साथ प्राकृतिक वनों की रक्षा, स्थानीय प्रकृति व चौड़ी पत्ती के घने वृक्षों को पनपाना, वनों की आग को रोकने के असरदार उपाय करना, चरागाहों व घास के मैदानों की हरियाली बढ़ाना व इनकी रक्षा करना-यह सब ऐसे कार्य हैं, जिसमें किसानों व गांववासियों को भी लाभ मिलता है व जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में भी सहायता मिलती है।
विशेषकर आदिवासी व पर्वतीय गांवों के संदर्भ में इनका महत्व और भी अधिक है। जलवायु बदलाव के इस दौर में आज नहीं, तो कल इस बारे में जागरूकता बढ़नी ही है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने वाली खेती को अपनाया जाए व यदि इसे अपनाने से खर्च कम होते हैं, आत्मनिर्भरता बढ़ती है, उत्पादन भी ठीक होता है, तो फिर किसान ऐसी खेती को अवश्य ही अपनाना चाहेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम ऐसी स्थितियां उत्पन्न करें, जिससे यह सब व्यवहारिक स्तर पर संभव हो और इसका प्रसार हो सके।