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बिहार में जातीय जनगणना: राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दलों में तकरार

Sumit Awasthi सुमित अवस्थी
Updated Fri, 20 Jan 2023 10:17 AM IST
सार

जनगणना कराने का काम केन्द्र सरकार का होता है लेकिन बिहार की बीजेपी-विरोधी नीतीश सरकार इस बार मोदी सरकार की रजामंदी का इंतजार नहीं करना चाहती। मोदी सरकार ने भी अभी इरादा साफ नहीं किया है कि कोविड की वजह से दो साल पहले जो राष्ट्रीय जनगणना का काम रोका गया था वो अब कब शुरू होगा और अगर होगा भी तो उसमें जाति आधारित जनगणना होगी या नहीं?

Why Bihar is conducting caste census, Here’s All You Need To Know About this
बिहार जातीय जनगणना - फोटो : Amarujala graphic

विस्तार
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क्या देश में जाति एक सच नहीं है?


क्या देश में जाति के नाम पर भेदभाव नहीं होता?


इन दोनों सवालों का जवाब 'हां' में ही है।

तो ऐसे में कोई भी सामान्य और समझदार नागरिक यही सुझाव देगा कि जाति आधारित जनसंख्या हो ताकि पिछड़ों, वंचितों के लिए खास सरकारी स्कीम बने और उनके उत्थान के लिए काम किया जा सके। लेकिन असल सवाल यह है कि केवल क्षेत्रीय दल ही 'कास्ट सेन्सेस' की बात क्यों करते हैं? बीजेपी या कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल क्यों नहीं?

जवाब आसान है आरजेडी, जेडीयू, सपा, बसपा जैसी पार्टियां एक खास तबके के वोट बैंक के आधार पर अपनी राजनीति करती आई है। जेडीयू कुर्मी और आरजेडी/सपा यादव वोट बैंक, आईएनएलडी जैसी पार्टी जाटों और बीएसपी-एससी जाटवों को आधार बनाकर सियासत करती है और कई-कई बार अपने सूबों में सरकार भी बनाती रही हैं। इसलिए इस बार भी ये दल ही जातिगत जनगणना के पक्ष में जमकर बैटिंग कर रहे हैं। बिहार में तो जेडीयू-आरजेडी की सरकार ने अपने सूबे में जातीय जनगणना कराना शुरू भी कर दिया है।


बिहार में जातीय जनगणना 

जनगणना कराने का काम केन्द्र सरकार का होता है लेकिन बिहार की बीजेपी-विरोधी नीतीश सरकार इस बार मोदी सरकार की रजामंदी का इंतजार नहीं करना चाहती। मोदी सरकार ने भी अभी इरादा साफ नहीं किया है कि कोविड की वजह से दो साल पहले जो राष्ट्रीय जनगणना का काम रोका गया था वो अब कब शुरू होगा और अगर होगा भी तो उसमें जाति आधारित जनगणना होगी या नहीं?

लेकिन नीतीश कुमार जल्दी में हैं।  ये सर्वे कराकर वो कम से कम अपने राज्य में ओबीसी (और खासकर एमबीसी- पिछड़ों में भी पिछड़ा वर्ग यानी मोस्ट बैकवर्ड क्लास) में ये स्थापित करना चाहते हैं कि वो ही उनके असली हितैषी हैं और ये आंकड़े आने के बाद वो इस वंचित समाज के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू करेंगे, लेकिन क्या सिर्फ यही परोपकारी या सामाजिक मंशा है नीतिश कुमार की?


इस पूरे जनगणना के खेल में राजनीति को भी समझिए। बिहार के जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद नीतीश और उनके साथी, आरएसएस-बीजेपी पर चढ़ाई कर पाएंगे कि ये अगड़ों और सवर्णों के संगठन हैं। पिछड़ों का भला चाहते ही नहीं तभी जाति आधारित जनगणना नहीं कराते हैं।

नीतिश के ये सब करने के पीछे बड़ी वजह है, 2014 के बाद से बहुत बड़े ओबीसी वर्ग का बीजेपी की तरफ चले जाना। आंकड़ों से आप समझ जाएंगे कि कैसे 1996 से लेकर 2019 तक के चुनाव आते-आते रीजनल पार्टियों की जान रहा ओबीसी वर्ग अब खुलकर मोदी का बीजेपी के लिए वोट कर रहा है।

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एक कार्यक्रम में नीतीश ने बिना नाम लिए सबकुछ कह दिया। - फोटो : अमर उजाला
दरअसल भगवा परिवार (संघ और बीजेपी) की राष्ट्रवादी और राम मंदिर की राजनीति ने ओबीसी वर्ग में एक बहुत बड़ा तबका पैदा कर दिया जो अपने आपको हिंदू पहले मानने लगा और ओबीसी बाद में। इसी तबके ने 2019 के लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों को नुकसान पहुंचाया। ऊपर से मोदी की शख्सियत ने भी, खासकर उत्तर भारत के एमबीसी तबके को बीजेपी के लिए वोट करने पर मजबूर किया।

ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों को लगता है कि 2024 में जब राम मंदिर अयोध्या में बनकर तैयार होगा तो बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड का काट केवल जातीय जनगणना के आंकड़े ही कर पाएंगे, तभी बाबा साहेब अंबेडकर की बात नीतीश और उनके साथी रह-रहकर याद दिला रहे है-

जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी साझेदारी!

1881 में पहली बार अंग्रेजों ने देश में सेंसेस करवाई जोकि हर दस साल में होनी तय हुई। 1931 में पहली बार जाति आधारित जनगणना हुई। उस वक्त के आंकड़ों के हिसाब से ही आज जातीय वर्गीकरण चला आ रहा है और उसी हिसाब से अलग-अलग जातियों के लिए सरकारें योजनाएं बनाती रही हैं।


जाति आधारित जनगणना को लेकर थी आशंका

देश आजाद होने के बाद नेहरू और पटेल की कैबिनेट ने तय किया था कि जाति आधारित जनगणना से देश में हालात चिंताजनक हो सकते हैं तो केवल जनगणना के एससी-एसटी के आंकड़े ही जारी होते रहे। यहां तक की 70-80 के दशक की राजनीति में जाति व्यवस्था को खत्म करने के नाम पर लोहिया और उनके तमाम प्रशंसकों ने अपने सरनेम (टाइटेल) लगाने तक बंद कर दिए थे। 

इन शख्सियतों में लालू प्रसाद और मुलायम सिंह जैसे नेता भी थे। इन्हीं नेताओं ने ही 1990 के दौर में वीपी सिंह की सरकार में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करवाया और ओबीसी को आरक्षण दिलवाया। मंडल कमीशन के जरिए आरक्षण लागू कराने का फायदा एसपी- बीएसपी को यूपी में और आरजेडी और जनता दल को बिहार-कर्नाटक जैसे राज्यों में मिला। इन सूबों में कांग्रेस और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी की साख और संख्या दोनों में कमी आई।

बाद में इन्हीं लोगों (लालू, मुलायम और शरद यादव जैसे ओबीसी नेताओं) ने दबाव बनाकर 2010 में यूपीए सरकार के राज में जातीय जनगणना का बिल पास कराया। जनगणना के लिए बजट सेन्क्शन कराया। 2011 में जनगणना हुई भी पर आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए।

मंडल-2 का दौर

अब जब बिहार में जाति आधारित जनगणना चल रही है तो इसे मंडल -2 का दौर कहा जा रहा है।
 
मंडल-वन के दौर में बीजेपी 1996 से लेकर 2009 तक ओबीसी वोटों के मामले में जूझती ही रही, लेकिन 2014 और फिर 2019 में इस हिंदुत्ववादी पार्टी ने ओबीसी वोटों में जो जबरदस्त प्रदर्शन किया उससे क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व पर संकट छाने लगा, खासकर लोकसभा चुनावों में, इसलिए नीतीश के इस कदम को मंडल-टू कहा जा रहा है, क्योंकि कुछ लोगों को ये डर है कि ये आंकड़े अगड़ों और पिछड़ों में और खाई पैदा कर देंगे, देश में नया बवाल खड़ा हो सकता है।

बीजेपी और कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय दलों पर ये इल्जाम लगता है कि वो अपने अगड़े और सवर्णों को वोटबैंक को नाराज नहीं करना चाहती, तो ही वो देश में जातीय जनगणना कराने के लिए उत्साहित नहीं दिखती। मुंह पर विरोध भी नहीं करेगी, लेकिन ये काम पूरा हो उसमें मदद भी नहीं करेगी।

ऐसे में एक सुझाव जो शायद सबकी मदद कर दे- राष्ट्रीय दलों को ही जातीय जनगणना कराने में आगे आना चाहिए, इससे क्षेत्रीय और छोटे दलों का भरोसा जीत पाएंगे। छोटे व क्षेत्रीय दलों को ये वादा देश से करना चाहिए कि वो जातीय जनगणना के आंकड़े राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या के आंकड़े के आने के बाद ही मानेंगे। राष्ट्रव्यापी सभी दलों को तय कर लेना चाहिए कि 2047 तक जाति आधारित असमानता को देश से खत्म करने में सब मिलकर प्रयास करेंगे।


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदाई नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
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