असमय दुखद मृत्यु को प्राप्त हुए बॉलीवुड के सितारे सुशांत सिंह राजपूत के परिवार के धैर्य और संयम की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने तमाम विवादों और दबावों के बावजूद अपने सबसे प्रिय बेटे को खो देने के बावजूद अपना संयम और धैर्य नहीं खोया।
सुशांत की तेरहवीं के बाद परिवार ने अपना मौन तोड़ते हुए उन सबका आभार व्यक्त किया जो दुख की इस घड़ी में उनके साथ रहे। साथ ही यह जानकारी भी दी कि सुशांत के नाम से एक फाउंडेशन का गठन करेंगे जो बॉलीवुड के नवोदित कलाकारों को प्रोत्साहित करने का काम करेगा।साथ ही पटना में सुशांत की याद में एक संग्रहालय बनाने की भी घोषणा की गई।
लेकिन परिवार ने सुशांत की मौत को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की और न ही इस हादसे के बाद फिल्मी दुनिया और सोशल मीडिया में जारी आरोप प्रत्यारोप की विष वमन की राजनीति पर कोई टिप्पणी की।
सुशांत की दुखद मौत के बाद फिल्मी दुनिया में एक दूसरे की टांग खींचने का जो दौर शुरु हुआ उसने चमक दमक वाली इस रुपहले पर्दे की इस दुनिया को बेपर्दा करके रख दिया है। जिस तरह एक दूसरे पर कीचड़ उछाला जा रहा है और सुशांत की मौत की आड़ में नए पुराने हिसाब चुकाए जा रहे हैं।
यहां तक कि सुशांत के पिता के नाम से फर्जी ट्विटर एकाऊंट बनाकर उससे ट्वीट करके सुशांत की मौत की सीबीआई जांच की मांग की गई, जिसे बाद में सुशांत के परिवार ने गलत बताते हुए उस एकाउंट को फर्जी बताया।
इससे भी आगे बढ़ कर बॉलीवुड के ही एक गुट के द्वारा कई नामी गिरामी फिल्म निर्माताओं निर्देशकों और सितारों की फिल्मों के बहिष्कार की अपील भी की जा रही है।इससे एक बात तो साफ है कि बॉलीवुड जो कभी अपनी एकजुटता और परिवार जैसी भावना के लिए जाना जाता था, अब तार तार होकर बिखर चुका है और उसके भीतर की गंदगी बेपर्दा होकर बाहर आ गई है।
सुशांत सिंह की मौत की छानबीन मुंबई पुलिस कर रही है और प्रथम दृष्टया इसे आत्महत्या का ही मामला माना जा रहा है। इस मौत की वजह और अगर कोई जिम्मेदार है तो उस तक पहुंचना पुलिस का काम है,और यह काम मुंबई पुलिस बखूबी कर भी रही है।
मामले से जुड़े कई नामी गिरामी लोगों से पूछताछ की जा रही है। सोशल मीडिया पर बॉलीवुड में नेपोटिज्म जिसे हिन्दी में भाई भतीजावाद या परिवारवाद कहा जाता है, का आरोप बड़ी प्रमुखता से लगाया जा रहा है।
आरोप है कि बॉलीवुड में कुछ लोगों का एक एसा संगठित गुट सक्रिय है जिसमें कुछ प्रमुख फिल्मी घराने और निर्माता निर्देशक शामिल हैं और जो नवोदित कलाकारों को मौका न देते हैं और न मिलने देते हैं।सभी अच्छी फिल्में उन कलाकारों के लिए होती हैं जिनके बाप दादे फिल्मी दुनिया में मजबूती से जमे हुए हैं।
आरोप है कि भाई भतीजावाद के साथ साथ गुटबाजी इस कदर हावी है कि जो भी अभिनेता अभिनेत्री संगीतकार गीतकार लेखक इस गुट की मनमानी शर्तों को मानने से इनकार करता है उसे पूरे फिल्म उद्योग में अलग थलग कर दिया जाता है।इसका नतीजा होता है कि कई नवोदित प्रतिभाशाली कलाकारों की प्रतिभा कुंठित हो जाती है और इनमें से कुछ आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं।
आरोप लगाने वालों का कहना है कि सुशांत सिंह राजपूत इसी ताकतवर गुट की मनमानी और दबाव के शिकार होकर मौत के मुंह में चले गए। आरोप लगाने वालों में कुछ तो सीधे सीधे सुशांत की मौत को हत्या बताते हैं जबकि कुछ का कहना है कि अगर उन्होने आत्महत्या की है तो इस गुट की दादागीरी इसके लिए जिम्मेदार है।
सोशल मीडिया पर छिड़ी जंग में बॉलीवुड के कई कलाकार भी कूद पड़े हैं और उनके निशाने पर बॉलीवुड की वो सफल हस्तियां हैं जिन्होंने पिछले दो से तीन दशकों में अपना अलग मुकाम बनाया है। सुशांत की मौत की आड़ में आरोप लगाने वालों के निशाने पर सलमान खान, शाहरुख खान, निर्माता निदेर्शक करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, संजय लीला भंसाली, एकता कपूर जैसे फिल्मी दिग्गज शामिल हैं।
हालांकि निशाने पर आए दिग्गज फिल्मकारों ने सुशांत की दुखद मौत पर शोक प्रकट करने के बाद आरोपों पर अपनी चुप्पी बरकरार रखी है। लेकिन निष्पक्षता के साथ उन आरोपों का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए जो इन दिनों बॉलीवुड में एक दूसरे पर लगाए जा रहे हैं।
पहली सबसे बड़ी शिकायत है नेपोटिज्म यानी भाई भतीजावाद की।इसमें कोई शक नहीं कि फिल्मी दुनिया में शुरु से ही कुछ खानदानों का वर्चस्व रहा है और फिल्मों की चमक दमक वाली दुनिया में उन खानदानों के वारिसों के लिए प्रवेश बेहद आसान रहा है और इसका फायदा भी तमाम उन कलाकारों को मिला जिनके पिता या परिवार के दूसरे लोग पहले से ही फिल्मों में काम कर रहे थे।
लेकिन क्या यह सिर्फ बॉलीवुड तक ही सीमित है।कौन सा एसा क्षेत्र है जहां परिवारवाद नहीं है। जाने माने फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा कहते हैं कि राजनीति, उद्योग, वकालत, चिकित्सा, शिक्षा, मीडिया, व्यापार, खेल क्षेत्र में पिता की विरासत उसके बेटे या बेटी द्वारा संभालने और आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति है।
हर सफल व्यक्ति अपनी पूंजी और विरासत अपने वारिस को ही देता है। अब यह उसकी योग्यता और क्षमता पर निर्भर है कि वह इस विरासत को किस हद तक आगे ले जा पाता है या फिर असफल होकर डुबा देता है।
फिल्मों में ही 50 और साठ के दशक में जिन खानदानों और दिग्गजों का बोलबाला था, क्या उन सबके वारिस मौका मिलने के बावजूद अपना सफल मुकाम बना सके। कुछ ने बनाया भी और कुछ मौका मिलने के बावजूद गुमनामी में खो गए।
एक जमाने में फिल्मों सबसे प्रभावशाली कपूर खानदान में पृथ्वीराज कपूर और उनके तीन बेटों राज कपूर शम्मी कपूर और शशि कपूर के बाद राज कपूर के तीन बेटों रणधीर ऋषि और राजीव कपूर फिल्मों में आए। लेकिन कामयाबी सिर्फ मिली ऋषि कपूर को।
रणधीर थोड़ा बहुत चले फिर घर बैठ गए और राजीव तो राम तेरी गंगा मैली की कामयाबी के बावजूद अपनी कोई जगह नहीं बना पाए।जबकि शशि के बेटे कुणाल कपूर को विजेता फिल्म में लांच किया गया लेकिन आज वह कहां हैं इसे जानने के लिए गूगल खंगालना पड़ेगा।
एक जमाने में देवानंद चेतन आनंद और विजय आनंद की तूती बोलती थी, लेकिन आज इनके वारिस कहां हैं। जुबली स्टार राजेंद्र कुमार के पुत्र कुमार गौरव और भारत कुमार मनोज कुमार के दोनों बेटे कुणाल गोस्वामी और विशाल गोस्वामी अब कहां हैं और क्या कर रहे हैं।
जबकि कुमार गौरव की पहली फिल्म लव स्टोरी जो उनके पिता राजेंद्र कुमार ने ही बनाई थी, जबर्दस्त हिट रही थी, लेकिन कुमार गौरव उस सफलता को संभाल नहीं सके।और तो और उस फिल्म की नायिका विजेयता पंडित को भी आगे कोई सफलता नहीं मिली।
अपनी आवाज से दिलों पर दशकों तक राज करने वाले मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और मुकेश के वारिस क्या वो मुकाम हासिल कर पाए जो इन तीनों ने किया था। जबकि नितिन मुकेश और अमित कुमार ने फिल्मों में अपने पिताओं के बाद खाली हुई जगह को भरने की भरपूर कोशिश की।
बहुत सारे उदाहरण हैं जहां खानदानों और दिग्गज कलाकारों, निर्माता निर्देशकों, संगीतकारों और गीतकारों के वारिस मौका मिलने के बावजूद वो मुकाम नही बना पाए जो उनके बाप दादों ने बनाया था। जबकि कुछ ने न सिर्फ अपने बाप दादा से मिली विरासत को सफलता पूर्वक संभाला बल्कि उसमें नए आयाम भी जोड़े।
जाने माने निर्माता निर्देशक यश जौहर के पुत्र करण जौहर, यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा और जीपी सिप्पी के बेटे रमेश सिप्पी को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने पिता से मिली विरासत को संभालने के साथ साथ उसे सफलता की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।इसी तरह ताराचंद बडजात्या के पुत्र सूरज बड़जात्या, बीआर चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा, और रामानंद सागर के पुत्र आनंद सागर ने भी कुछ अच्छी फिल्में दीं।
कलाकारों में संजय दत्त, अनिल कपूर, रणवीर कपूर, अभिषेक बच्चन, करीना कपूर, करिश्मा कपूर, काजोल, अजय देवगन, अक्षय खन्ना, सलमान खान, आमिर खान, सोनाक्षी सिन्हा, रितिक रोशन, वरुण धवन, सैफ अली खान, सनी देओल, बॉबी देओल, अर्जुन कपूर, आदि को अपने फिल्मी परिवारो और परिवेश का फायदा जरूर मिला लेकिन उन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता से दर्शकों का जितना दिल जीत सकते थे, जीता और उसी हिसाब से उन्हें बॉलीवुड में अलग अलग पायदान पर रखा जा सकता है।
उदाहरण के लिए मशहूर संवाद लेखक सलीम खान का बेटा होने का फायदा सलमान, सोहेल और अरबाज तीनों को मिला लेकिन जो मुकाम सलमान ने बनाया वो दूसरे भाई नहीं बना सके। अभिषेक बच्चन को पिता अमिताभ से भरपूर सहायता मिली लेकिन अभिषेक वह मुकाम नहीं हासिल कर सके जो खुद अमिताभ ने हासिल किया या उनके समकालीन शाहरुख आमिर और सलमान ने बनाया।
फिल्मी दुनिया में खानदानों के साथ साथ गुटबाजी और गुटों के वर्चस्व का भी आरोप जोरो पर है। कहा जा रहा है कि कुछ प्रभावशाली निर्माता निर्देशक कलाकारों और व्यवसायियों का एसा गुट है जो किसी और को पनपने नहीं देता।
फिल्मों में पहले भी गुट रहे हैं और पुराने कलाकारों समीक्षकों और फिल्म प्रेमियों से बात कीजिए तो वह बताएंगे किस तरह फिल्मी दुनिया अलग अलग गुटों में बंटी थी और आज भी बंटी है। लेकिन खानदानी दबदबे और गुटों की गुटबाजी के बावजूद जब भी कोई अनाम और अनजान पृष्ठभूमि वाला अपना शहर गांव छोडकर मुंबई आया तो उसे संघर्ष जरूर करना पड़ा लेकिन अगर उसमें संघर्ष की क्षमता, अभिनय या अपनी विधा की योग्यता रही है तो उसे सफलता भी मिली है।दिलीप कुमार, राजकुमार, धर्मेंद्र, राजेंद्र कुमार, जितेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, विनोद मेहरा, शत्रुघ्न सिन्हा, डैनी डेंजोग्पा जैसे कितने नाम हैं जो बिना किसी फिल्मी पृष्ठभूमि के फिल्मों में आए और कामयाब हुए।
नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, फारुख शेख, नाना पाटेकर, अमोल पालेकर, मिथुन चक्रवर्ती, गोविंदा, जैकी श्राफ, अमरीश पुरी, मदन पुरी, गुलशन ग्रोवर, अनुपम खेर, शाहरुख खान, अक्षय कुमार, इरफान, इमरान हाशमी, अरशद वारसी, विक्की कौशल, आयुष्मान खुराना, अनु कपूर, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सोनू सूद जैसे कितने नाम गिनाए जाएं जो अपनी मेहनत, योग्यता और संघर्ष से आगे बढ़े और बढ़ रहे हैं। खुद सुशांत सिंह राजपूत ने बॉलीवुड में अपना मुकाम अपनी मेहनत और योग्यता से बनाया था।
इसी तरह अभिनेत्रियों में अनगिनत नाम हैं जो गैर फिल्मी परिवारों और परिवेश से बॉलीवुड में आईं और फिल्मों में छा गईं। पुराने जमाने की सुरैया, नाज, निम्मी, मीना कुमारी, नूतन, माला सिन्हा, वैजयंती माला, आशा पारिख, वहीदा रहमान, के बाद के युग में स्मिता पाटिल,माधुरी दीक्षित, विद्या बालन, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण, अनुष्का शर्मा, एश्वर्य राय, सुष्मिता सेन, नंदिता दास, भूमि पेडनेकर, कंगना रनौत, हुमा कुरैशी, यामी गौतम,कृति सायन, स्वरा भास्कर जैसे कई नाम गिनाए जा सकते हैं जो बिना किसी फिल्मी पारिवारिक पृष्ठभूमि के अपनी जगह बनाने में कामयाब रहीं।
जहां पुराने निर्माता निर्देशकों में विमल राय,कमाल अमरोही, के आसिफ, महबूब, प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, सुभाष घई, यश चोपड़ा, यश जौहर, जीपी सिप्पी, ह्रषिकेश मुखर्जी, श्याम बेनेगल,महेश भट्ट, गोविंद निहलानी, सागर सरहदी, राजकुमार संतोषी, शेखर कपूर, जैसे नाम हैं तो आज के निर्देशकों में संजय लीला भंसाली, राजकुमार हीरानी, रामगोपाल वर्मा, अनुराग कश्यप, कबीर खान, तिग्मांशु धूलिया, अनुभव सिन्हा, शुजित सरकार, नीरज तिवारी जैसे प्रयोगधर्मी नामों ने भारतीय फिल्मों में अपनी जगह बिना किसी फिल्मी परिवेश के बनाई है।
गायकों में मोहम्मद रफी, मुकेश और किशोर कुमार उस पहली पीढ़ी के सफलतम नाम हैं जो शिखर तक पहुंचे और दशकों तक छाये रहे।लेकिन इनके बेटे उस ऊंचाई को नहीं छू सके जबकि उदित नारायण, कुमार शानू, सुरेश वाडेकर, सोनू निगम, कैलाश खेऱ, शैलेंद्र सिंह जैसे नाम अपनी योग्यता और मधुर आवाज के जरिए लोगों के दिलों में जगह बना सके।इसी तरह गायिकाओं में दशकों तक मंगेशकर बहनों का राज रहा लेकिन आगे चलकर अलका याज्ञनिक, साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति, ऋचा शर्मा, सुरक्षणा पंडित जैसे कई नामों ने अपना मुकाम बनाया।
सवाल है कि अगर बॉलीवुड में खानदानों और गुटों का माफिया है तो इतने सारे गैर फिल्मी परिवेश वाले कैसे आगे बढ़ते रहे औऱ बढ़ रहे हैं।महाभारत धारावाहिक में युधिष्ठिर की भूमिका निभाने वाले जाने माने कलाकार गजेंद्र चौहान का कहना है कि कोई किसी भी पृष्ठभूमि से आए फिल्मी या गैर फिल्मी उसे दर्शकों के सामने खुद को साबित करना होता है और आखिरी फैसला दर्शकों का होता है।
दर्शक जिसे पसंद करते हैं वो चलता है जिसे नहीं पसंद करते वो पीछे रह जाता है। इसलिए फिल्मी और टीवी धारावाहिकों की दुनिया में धैर्य और आत्मविश्वास की बहुत जरूरत होती है क्योंकि कई बार संघर्ष लंबा होता है।लेकिन अगर व्यक्ति में योग्यता है तो उसे सफलता जरूर मिलती है।जाने माने फिल्म अभिनेता मनोज वाजपेयी कहते हैं कि बॉलीवुड में भाई भतीजावाद का सवाल उठाने वालों का जवाब मैं खुद और मेरे जैसे और कई कलाकार हैं।
बॉलीवुड में जिन्हें दिग्गज या फिल्मी माफिया या गुटबाज कहकर निशाने पर लिया जा रहा है अगर उनकी फिल्मों और कितने नए कलाकारों को उन्होंने मौका दिया और आगे बढ़ाया के नाम लिए जाएं तो खासी लंबी फेहरिस्त हो जाएगी और उनमें तमाम एसे नाम भी होंगे जो जब मुंबई आए तो गुमनाम थे लेकिन आज वह बॉलीवुड उनके नाम से पहचाना जाता है।
कुछ बड़े निर्माता निर्देशकों और कलाकारों की फिल्मों के बहिष्कार की अपील को लेकर शत्रुघ्न सिन्हां कहते हैं कि एसी बेतुकी अपील करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि फिल्मों के साथ सिर्फ निर्माता निर्देशकों और नामी कलाकारों का ही भविष्य नहीं जुड़ा होता बल्कि एक फिल्म के निर्माण में सैकड़ों लोग जुड़े होते हैं जिनमें अनेक सह कलाकार, सह निर्देशक, लाइट मैन, कैमरा मैन, साउंड एक्सपर्ट, तकनीशियन, पटकथा लेखक, संवाद लेखक, गीतकार, गायक, डांस कोरियोग्राफर, एक्शन कोरियोग्राफर, स्टंटमैन और तमाम तरह के सहायक कर्मचारी। साथ ही वितरक और सिनेमा घऱों के कर्मचारियों की रोजी रोटी भी जुडी होती है।
सिन्हा कहते हैं कि फिल्म निर्माण में निर्माता बड़ी पूंजी लगाते हैं और सारा जोखिम भी उनका होता है। इसलिए वह किसे काम देंगे इस फैसले का अधिकार भी उनका ही है।कई बार उनका फैसला सही साबित होता है और कई बार गलत।
शत्रुघ्न सिन्हा हों या गजेंद्र चौहान या कई और फिल्मी दिग्गज सब यह मानते हैं कि परिवारवाद समाज के हर क्षेत्र में है जहां पिता की विरासत उसके वारिस को ही मिलती है। राजनीति, उद्योग, व्यापार, वकालत, चिकित्सा, वित्त, न्यायपालिका,नौकरशाही हर क्षेत्र में लंबे समय तक संतानों का झुकाव अपने पिता और खानदानी पेशों की ओर ही रहा है।
उससे अलग कुछ करने वाले विरले ही होते थे। एक जमाने में नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस पर वंशवादी राजनीति का आरोप लगाने वाले नेताओं ने मौका आने पर अपना उत्तराधिकार अपने ही पुत्र पुत्रियो को सौंपा है।
अब यह उनकी क्षमता पर निर्भऱ रहा कि वह उसे कितना आगे बढ़ा पाए।नेहरू की पुत्री इंदिरा औऱ उनके बेटे राजीव प्रधानमंत्री बने। तो शिवसेना पर ठाकरे परिवार, अकाली दल पर बादल परिवार, समाजवादी पार्टी पर मुलायम परिवार, राष्ट्रीय जनता दल पर लालू परिवार, लोकजनशक्ति पार्टी पर पासवान परिवार, डीएमके पर करुणानिधि परिवार, एनसीपी पर शरद पवार परिवार, हरियाणा में देवीलाल परिवार, लोकदल में चरण सिंह के बेटे अजित सिंह, तेलुगू देशम पर एनटीआर के दामाद चंद्रबाबू नायडू, टीआरएस पर चंद्रशेखर राव और उनके पुत्र पुत्री ही काबिज हैं।
भाजपा जहां भले ही केंद्रीय नेतृत्व में परिवार वाद न हो लेकिन कई बड़े नेताओं के बेटे बेटियां अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं। इसलिए राजनीति में अब परिवारवाद का मुद्दा किसी को आकर्षित नहीं करता। इसी तरह देश के नामी गिरामी वकीलों की वकालत, नामी गिरामी डाक्टरों की विरासत भी उनके बेटे बेटियां ही संभालते हैं।तमाम जजों के बेटे जज बनते रहे हैं और आईएएस आईपीएस के बेटे बेटियां भी अपने पिताओं की राह पर चलते रहे हैं।
यह सही है उन्हें इसके लिए योग्यता की परीक्षा देनी पड़ती है लेकिन उनका पारिवारिक परिवेश उसी तरह उनके लिए साधारण परीक्षार्थियो की तुलना में ज्यादा सहायक होता है जैसै किसी फिल्मी हस्ती के बेटे बेटी के लिए फिल्मों में आसानी से मौका मिलना। लेकिन आखिरकर चाहे कोई दूसरा क्षेत्र हो या फिल्मों का क्षेत्र टिकता वही है जिसमें क्षमता धैर्य और योग्यता होती है।जिसे जनता स्वीकार करती है। जनता की अपेक्षाओं की कसौटी पर हर छोटी बड़ी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले को खरा उतरना होता है चाहे वह राजनीति हो या कला का क्षेत्र।
आमतौर पर देखा गया है कि कई बार लोग अपनी असफलताओ और कुंठाओं का ठीकरा फोड़ने के लिए किसी दूसरे का सिर खोजते हैं और इसके लिए उनके अपने क्षेत्र के सफलतम व्यक्तियों पर निशाना लगाकर आरोप लगाना सबसे आसान होता है। बॉलीवुड में इन दिनों यही हो रहा है।
अगर सोशल मीडिया पर नजर डाली जाए तो करण जौहर, संजय लीला भंसाली, आदित्य चोपड़ा, एकता कपूर जैसे सफल फिल्म निर्माता निर्देशकों और सलमान खान, शाहरुख खान, अक्षय कुमार, रणवीर सिंह जैसे कामयाब सितारों पर निशाना लगाने वालों जो जोर शोर से शामिल हैं उनमें एक दो अपवादों को छोड़कर ज्यादातर वही नाम हैं जो इन दिनों हाशिए पर हैं या बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर पाए हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की मौत को मोहरा बनाकर भाई -भतीजावाद और कथित फिल्मी माफिया के खिलाफ चल रही यह कथित जंग कितनी जायद है कि सुशांत से पहले इसी कोरोना काल में मुंबई में टीवी धारावाहिकों के दो सितारों ने काम की कमी और अवसाद से ग्रस्त होकर आत्महत्या की, लेकिन तब किसी के कान पर कोई जूं नहीं रेंगी। शायद वो बड़ा नाम नहीं थे और उनकी मौत इतनी सुर्खियां भी नहीं बटोरती इसलिए उन्हें अनदेखा कर दिया गया।
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के कारणों की छानबीन पुलिस कर रही है और जांच के बाद वह जिस निष्कर्ष पर पहुंचेगी उस पर भी अदालत का फैसला आखिरी होगा। इसलिए अपना हिसाब किताब चुकाने के इस खेल को अब बंद किया जाना चाहिए क्योंकि परते उघाड़ने के इस सिलसिले में पूरे बॉलीवुड के बेपर्दा होने का खतरा है जो न भारतीय फिल्म उद्योग के लिए ठीक है और न ही उस जनता के लिए जो बॉलीवुड के नायकों को अपने भगवान या देवता की तरह पूजती है।
अगर विष वमन की इस घटिया राजनीति में बॉलीवुड की वो मीनारें जिन पर निशाने साधे जा रहें और जिन पर इस समय फिल्म उद्योग का बड़ा हिस्सा टिका हुआ है, अगर ढह गईं तो निशाना साधने वालों को भी पैर टिकाने के लिए ठौर नहीं मिलेगा। क्योंकि फिल्म निर्माण बड़े पूंजी निवेश का खेल है और पूंजी वहीं आती है जहां सबकुछ सामान्य होता है।
झगड़े झंझट से पूंजी निवेश थम जाता है और धीरे धीरे वह उद्योग मरने लगता है।मुंबई, कोलकाता, कानपुर, सूरत और अहमदाबाद जैसे पुराने औद्योगिक केंद्रों में श्रमिक आंदोलनों ने एक हद के बाद उन उद्योगों को ही बंद होने पर मजबूर कर दिया जिनसे हजारों लाखों मजदूरों को रोजी रोटी मिलती थी।
नतीजा सामने है इन शहरों की पुरानी मिलें जिनकी इमारतें भुतही हो चुकी हैं, अपने हाल पर रो रही हैं। भारत ही नहीं दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग बॉलीवुड को तबाही के इस रास्ते पर मत ले जाइए।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें
[email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
सार
आरोप है कि बॉलीवुड में कुछ लोगों का एक एसा संगठित गुट सक्रिय है जिसमें कुछ प्रमुख फिल्मी घराने और निर्माता निर्देशक शामिल हैं और जो नवोदित कलाकारों को मौका न देते हैं और न मिलने देते हैं।सभी अच्छी फिल्में उन कलाकारों के लिए होती हैं जिनके बाप दादे फिल्मी दुनिया में मजबूती से जमे हुए हैं।
विस्तार
असमय दुखद मृत्यु को प्राप्त हुए बॉलीवुड के सितारे सुशांत सिंह राजपूत के परिवार के धैर्य और संयम की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने तमाम विवादों और दबावों के बावजूद अपने सबसे प्रिय बेटे को खो देने के बावजूद अपना संयम और धैर्य नहीं खोया।
सुशांत की तेरहवीं के बाद परिवार ने अपना मौन तोड़ते हुए उन सबका आभार व्यक्त किया जो दुख की इस घड़ी में उनके साथ रहे। साथ ही यह जानकारी भी दी कि सुशांत के नाम से एक फाउंडेशन का गठन करेंगे जो बॉलीवुड के नवोदित कलाकारों को प्रोत्साहित करने का काम करेगा।साथ ही पटना में सुशांत की याद में एक संग्रहालय बनाने की भी घोषणा की गई।
लेकिन परिवार ने सुशांत की मौत को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की और न ही इस हादसे के बाद फिल्मी दुनिया और सोशल मीडिया में जारी आरोप प्रत्यारोप की विष वमन की राजनीति पर कोई टिप्पणी की।
सुशांत की दुखद मौत के बाद फिल्मी दुनिया में एक दूसरे की टांग खींचने का जो दौर शुरु हुआ उसने चमक दमक वाली इस रुपहले पर्दे की इस दुनिया को बेपर्दा करके रख दिया है। जिस तरह एक दूसरे पर कीचड़ उछाला जा रहा है और सुशांत की मौत की आड़ में नए पुराने हिसाब चुकाए जा रहे हैं।
यहां तक कि सुशांत के पिता के नाम से फर्जी ट्विटर एकाऊंट बनाकर उससे ट्वीट करके सुशांत की मौत की सीबीआई जांच की मांग की गई, जिसे बाद में सुशांत के परिवार ने गलत बताते हुए उस एकाउंट को फर्जी बताया।
इससे भी आगे बढ़ कर बॉलीवुड के ही एक गुट के द्वारा कई नामी गिरामी फिल्म निर्माताओं निर्देशकों और सितारों की फिल्मों के बहिष्कार की अपील भी की जा रही है।इससे एक बात तो साफ है कि बॉलीवुड जो कभी अपनी एकजुटता और परिवार जैसी भावना के लिए जाना जाता था, अब तार तार होकर बिखर चुका है और उसके भीतर की गंदगी बेपर्दा होकर बाहर आ गई है।
सुशांत सिंह की मौत की छानबीन मुंबई पुलिस कर रही है और प्रथम दृष्टया इसे आत्महत्या का ही मामला माना जा रहा है। इस मौत की वजह और अगर कोई जिम्मेदार है तो उस तक पहुंचना पुलिस का काम है,और यह काम मुंबई पुलिस बखूबी कर भी रही है।
मामले से जुड़े कई नामी गिरामी लोगों से पूछताछ की जा रही है। सोशल मीडिया पर बॉलीवुड में नेपोटिज्म जिसे हिन्दी में भाई भतीजावाद या परिवारवाद कहा जाता है, का आरोप बड़ी प्रमुखता से लगाया जा रहा है।
आरोप है कि बॉलीवुड में कुछ लोगों का एक एसा संगठित गुट सक्रिय है जिसमें कुछ प्रमुख फिल्मी घराने और निर्माता निर्देशक शामिल हैं और जो नवोदित कलाकारों को मौका न देते हैं और न मिलने देते हैं।सभी अच्छी फिल्में उन कलाकारों के लिए होती हैं जिनके बाप दादे फिल्मी दुनिया में मजबूती से जमे हुए हैं।
आरोप है कि भाई भतीजावाद के साथ साथ गुटबाजी इस कदर हावी है कि जो भी अभिनेता अभिनेत्री संगीतकार गीतकार लेखक इस गुट की मनमानी शर्तों को मानने से इनकार करता है उसे पूरे फिल्म उद्योग में अलग थलग कर दिया जाता है।इसका नतीजा होता है कि कई नवोदित प्रतिभाशाली कलाकारों की प्रतिभा कुंठित हो जाती है और इनमें से कुछ आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं।
हर सफल व्यक्ति अपनी पूंजी और विरासत अपने वारिस को ही देता है...
कुछ तो सीधे सीधे सुशांत की मौत को हत्या बताते हैं- फाइल फोटो
- फोटो : Social Media
आरोप लगाने वालों का कहना है कि सुशांत सिंह राजपूत इसी ताकतवर गुट की मनमानी और दबाव के शिकार होकर मौत के मुंह में चले गए। आरोप लगाने वालों में कुछ तो सीधे सीधे सुशांत की मौत को हत्या बताते हैं जबकि कुछ का कहना है कि अगर उन्होने आत्महत्या की है तो इस गुट की दादागीरी इसके लिए जिम्मेदार है।
सोशल मीडिया पर छिड़ी जंग में बॉलीवुड के कई कलाकार भी कूद पड़े हैं और उनके निशाने पर बॉलीवुड की वो सफल हस्तियां हैं जिन्होंने पिछले दो से तीन दशकों में अपना अलग मुकाम बनाया है। सुशांत की मौत की आड़ में आरोप लगाने वालों के निशाने पर सलमान खान, शाहरुख खान, निर्माता निदेर्शक करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, संजय लीला भंसाली, एकता कपूर जैसे फिल्मी दिग्गज शामिल हैं।
हालांकि निशाने पर आए दिग्गज फिल्मकारों ने सुशांत की दुखद मौत पर शोक प्रकट करने के बाद आरोपों पर अपनी चुप्पी बरकरार रखी है। लेकिन निष्पक्षता के साथ उन आरोपों का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए जो इन दिनों बॉलीवुड में एक दूसरे पर लगाए जा रहे हैं।
पहली सबसे बड़ी शिकायत है नेपोटिज्म यानी भाई भतीजावाद की।इसमें कोई शक नहीं कि फिल्मी दुनिया में शुरु से ही कुछ खानदानों का वर्चस्व रहा है और फिल्मों की चमक दमक वाली दुनिया में उन खानदानों के वारिसों के लिए प्रवेश बेहद आसान रहा है और इसका फायदा भी तमाम उन कलाकारों को मिला जिनके पिता या परिवार के दूसरे लोग पहले से ही फिल्मों में काम कर रहे थे।
लेकिन क्या यह सिर्फ बॉलीवुड तक ही सीमित है।कौन सा एसा क्षेत्र है जहां परिवारवाद नहीं है। जाने माने फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा कहते हैं कि राजनीति, उद्योग, वकालत, चिकित्सा, शिक्षा, मीडिया, व्यापार, खेल क्षेत्र में पिता की विरासत उसके बेटे या बेटी द्वारा संभालने और आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति है।
हर सफल व्यक्ति अपनी पूंजी और विरासत अपने वारिस को ही देता है। अब यह उसकी योग्यता और क्षमता पर निर्भर है कि वह इस विरासत को किस हद तक आगे ले जा पाता है या फिर असफल होकर डुबा देता है।
फिल्मों में ही 50 और साठ के दशक में जिन खानदानों और दिग्गजों का बोलबाला था, क्या उन सबके वारिस मौका मिलने के बावजूद अपना सफल मुकाम बना सके। कुछ ने बनाया भी और कुछ मौका मिलने के बावजूद गुमनामी में खो गए।
एक जमाने में फिल्मों सबसे प्रभावशाली कपूर खानदान में पृथ्वीराज कपूर और उनके तीन बेटों राज कपूर शम्मी कपूर और शशि कपूर के बाद राज कपूर के तीन बेटों रणधीर ऋषि और राजीव कपूर फिल्मों में आए। लेकिन कामयाबी सिर्फ मिली ऋषि कपूर को।
रणधीर थोड़ा बहुत चले फिर घर बैठ गए और राजीव तो राम तेरी गंगा मैली की कामयाबी के बावजूद अपनी कोई जगह नहीं बना पाए।जबकि शशि के बेटे कुणाल कपूर को विजेता फिल्म में लांच किया गया लेकिन आज वह कहां हैं इसे जानने के लिए गूगल खंगालना पड़ेगा।
एक जमाने में देवानंद चेतन आनंद और विजय आनंद की तूती बोलती थी, लेकिन आज इनके वारिस कहां हैं। जुबली स्टार राजेंद्र कुमार के पुत्र कुमार गौरव और भारत कुमार मनोज कुमार के दोनों बेटे कुणाल गोस्वामी और विशाल गोस्वामी अब कहां हैं और क्या कर रहे हैं।
जबकि कुमार गौरव की पहली फिल्म लव स्टोरी जो उनके पिता राजेंद्र कुमार ने ही बनाई थी, जबर्दस्त हिट रही थी, लेकिन कुमार गौरव उस सफलता को संभाल नहीं सके।और तो और उस फिल्म की नायिका विजेयता पंडित को भी आगे कोई सफलता नहीं मिली।
फिल्मों में पहले भी गुट रहे हैं और पुराने कलाकारों समीक्षकों और फिल्म प्रेमियों से बात कीजिए तो वह बताएंगे किस तरह फिल्मी दुनिया अलग अलग गुटों में बंटी थी...
सुशांत सिंह राजपूत ने बॉलीवुड में अपना मुकाम अपनी मेहनत और योग्यता से बनाया था- फाइल फोटो
- फोटो : Social Media
अपनी आवाज से दिलों पर दशकों तक राज करने वाले मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और मुकेश के वारिस क्या वो मुकाम हासिल कर पाए जो इन तीनों ने किया था। जबकि नितिन मुकेश और अमित कुमार ने फिल्मों में अपने पिताओं के बाद खाली हुई जगह को भरने की भरपूर कोशिश की।
बहुत सारे उदाहरण हैं जहां खानदानों और दिग्गज कलाकारों, निर्माता निर्देशकों, संगीतकारों और गीतकारों के वारिस मौका मिलने के बावजूद वो मुकाम नही बना पाए जो उनके बाप दादों ने बनाया था। जबकि कुछ ने न सिर्फ अपने बाप दादा से मिली विरासत को सफलता पूर्वक संभाला बल्कि उसमें नए आयाम भी जोड़े।
जाने माने निर्माता निर्देशक यश जौहर के पुत्र करण जौहर, यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा और जीपी सिप्पी के बेटे रमेश सिप्पी को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने पिता से मिली विरासत को संभालने के साथ साथ उसे सफलता की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।इसी तरह ताराचंद बडजात्या के पुत्र सूरज बड़जात्या, बीआर चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा, और रामानंद सागर के पुत्र आनंद सागर ने भी कुछ अच्छी फिल्में दीं।
कलाकारों में संजय दत्त, अनिल कपूर, रणवीर कपूर, अभिषेक बच्चन, करीना कपूर, करिश्मा कपूर, काजोल, अजय देवगन, अक्षय खन्ना, सलमान खान, आमिर खान, सोनाक्षी सिन्हा, रितिक रोशन, वरुण धवन, सैफ अली खान, सनी देओल, बॉबी देओल, अर्जुन कपूर, आदि को अपने फिल्मी परिवारो और परिवेश का फायदा जरूर मिला लेकिन उन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता से दर्शकों का जितना दिल जीत सकते थे, जीता और उसी हिसाब से उन्हें बॉलीवुड में अलग अलग पायदान पर रखा जा सकता है।
उदाहरण के लिए मशहूर संवाद लेखक सलीम खान का बेटा होने का फायदा सलमान, सोहेल और अरबाज तीनों को मिला लेकिन जो मुकाम सलमान ने बनाया वो दूसरे भाई नहीं बना सके। अभिषेक बच्चन को पिता अमिताभ से भरपूर सहायता मिली लेकिन अभिषेक वह मुकाम नहीं हासिल कर सके जो खुद अमिताभ ने हासिल किया या उनके समकालीन शाहरुख आमिर और सलमान ने बनाया।
फिल्मी दुनिया में खानदानों के साथ साथ गुटबाजी और गुटों के वर्चस्व का भी आरोप जोरो पर है। कहा जा रहा है कि कुछ प्रभावशाली निर्माता निर्देशक कलाकारों और व्यवसायियों का एसा गुट है जो किसी और को पनपने नहीं देता।
फिल्मों में पहले भी गुट रहे हैं और पुराने कलाकारों समीक्षकों और फिल्म प्रेमियों से बात कीजिए तो वह बताएंगे किस तरह फिल्मी दुनिया अलग अलग गुटों में बंटी थी और आज भी बंटी है। लेकिन खानदानी दबदबे और गुटों की गुटबाजी के बावजूद जब भी कोई अनाम और अनजान पृष्ठभूमि वाला अपना शहर गांव छोडकर मुंबई आया तो उसे संघर्ष जरूर करना पड़ा लेकिन अगर उसमें संघर्ष की क्षमता, अभिनय या अपनी विधा की योग्यता रही है तो उसे सफलता भी मिली है।दिलीप कुमार, राजकुमार, धर्मेंद्र, राजेंद्र कुमार, जितेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, विनोद मेहरा, शत्रुघ्न सिन्हा, डैनी डेंजोग्पा जैसे कितने नाम हैं जो बिना किसी फिल्मी पृष्ठभूमि के फिल्मों में आए और कामयाब हुए।
नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, फारुख शेख, नाना पाटेकर, अमोल पालेकर, मिथुन चक्रवर्ती, गोविंदा, जैकी श्राफ, अमरीश पुरी, मदन पुरी, गुलशन ग्रोवर, अनुपम खेर, शाहरुख खान, अक्षय कुमार, इरफान, इमरान हाशमी, अरशद वारसी, विक्की कौशल, आयुष्मान खुराना, अनु कपूर, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सोनू सूद जैसे कितने नाम गिनाए जाएं जो अपनी मेहनत, योग्यता और संघर्ष से आगे बढ़े और बढ़ रहे हैं। खुद सुशांत सिंह राजपूत ने बॉलीवुड में अपना मुकाम अपनी मेहनत और योग्यता से बनाया था।
बॉलीवुड में जिन्हें दिग्गज या फिल्मी माफिया या गुटबाज कहकर निशाने पर लिया जा रहा है अगर उनकी फिल्मों...
फिल्मी और टीवी धारावाहिकों की दुनिया में धैर्य और आत्मविश्वास की बहुत जरूरत होती है- सांकेतिक तस्वीर
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
इसी तरह अभिनेत्रियों में अनगिनत नाम हैं जो गैर फिल्मी परिवारों और परिवेश से बॉलीवुड में आईं और फिल्मों में छा गईं। पुराने जमाने की सुरैया, नाज, निम्मी, मीना कुमारी, नूतन, माला सिन्हा, वैजयंती माला, आशा पारिख, वहीदा रहमान, के बाद के युग में स्मिता पाटिल,माधुरी दीक्षित, विद्या बालन, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण, अनुष्का शर्मा, एश्वर्य राय, सुष्मिता सेन, नंदिता दास, भूमि पेडनेकर, कंगना रनौत, हुमा कुरैशी, यामी गौतम,कृति सायन, स्वरा भास्कर जैसे कई नाम गिनाए जा सकते हैं जो बिना किसी फिल्मी पारिवारिक पृष्ठभूमि के अपनी जगह बनाने में कामयाब रहीं।
जहां पुराने निर्माता निर्देशकों में विमल राय,कमाल अमरोही, के आसिफ, महबूब, प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, सुभाष घई, यश चोपड़ा, यश जौहर, जीपी सिप्पी, ह्रषिकेश मुखर्जी, श्याम बेनेगल,महेश भट्ट, गोविंद निहलानी, सागर सरहदी, राजकुमार संतोषी, शेखर कपूर, जैसे नाम हैं तो आज के निर्देशकों में संजय लीला भंसाली, राजकुमार हीरानी, रामगोपाल वर्मा, अनुराग कश्यप, कबीर खान, तिग्मांशु धूलिया, अनुभव सिन्हा, शुजित सरकार, नीरज तिवारी जैसे प्रयोगधर्मी नामों ने भारतीय फिल्मों में अपनी जगह बिना किसी फिल्मी परिवेश के बनाई है।
गायकों में मोहम्मद रफी, मुकेश और किशोर कुमार उस पहली पीढ़ी के सफलतम नाम हैं जो शिखर तक पहुंचे और दशकों तक छाये रहे।लेकिन इनके बेटे उस ऊंचाई को नहीं छू सके जबकि उदित नारायण, कुमार शानू, सुरेश वाडेकर, सोनू निगम, कैलाश खेऱ, शैलेंद्र सिंह जैसे नाम अपनी योग्यता और मधुर आवाज के जरिए लोगों के दिलों में जगह बना सके।इसी तरह गायिकाओं में दशकों तक मंगेशकर बहनों का राज रहा लेकिन आगे चलकर अलका याज्ञनिक, साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति, ऋचा शर्मा, सुरक्षणा पंडित जैसे कई नामों ने अपना मुकाम बनाया।
सवाल है कि अगर बॉलीवुड में खानदानों और गुटों का माफिया है तो इतने सारे गैर फिल्मी परिवेश वाले कैसे आगे बढ़ते रहे औऱ बढ़ रहे हैं।महाभारत धारावाहिक में युधिष्ठिर की भूमिका निभाने वाले जाने माने कलाकार गजेंद्र चौहान का कहना है कि कोई किसी भी पृष्ठभूमि से आए फिल्मी या गैर फिल्मी उसे दर्शकों के सामने खुद को साबित करना होता है और आखिरी फैसला दर्शकों का होता है।
दर्शक जिसे पसंद करते हैं वो चलता है जिसे नहीं पसंद करते वो पीछे रह जाता है। इसलिए फिल्मी और टीवी धारावाहिकों की दुनिया में धैर्य और आत्मविश्वास की बहुत जरूरत होती है क्योंकि कई बार संघर्ष लंबा होता है।लेकिन अगर व्यक्ति में योग्यता है तो उसे सफलता जरूर मिलती है।जाने माने फिल्म अभिनेता मनोज वाजपेयी कहते हैं कि बॉलीवुड में भाई भतीजावाद का सवाल उठाने वालों का जवाब मैं खुद और मेरे जैसे और कई कलाकार हैं।
बॉलीवुड में जिन्हें दिग्गज या फिल्मी माफिया या गुटबाज कहकर निशाने पर लिया जा रहा है अगर उनकी फिल्मों और कितने नए कलाकारों को उन्होंने मौका दिया और आगे बढ़ाया के नाम लिए जाएं तो खासी लंबी फेहरिस्त हो जाएगी और उनमें तमाम एसे नाम भी होंगे जो जब मुंबई आए तो गुमनाम थे लेकिन आज वह बॉलीवुड उनके नाम से पहचाना जाता है।
कई बार लोग अपनी असफलताओ और कुंठाओं का ठीकरा फोड़ने के लिए किसी दूसरे का सिर खोजते हैं...
एक फिल्म के निर्माण में सैकड़ों लोग जुड़े होते हैं- सांकेतिक तस्वीर
- फोटो : अमर उजाला
कुछ बड़े निर्माता निर्देशकों और कलाकारों की फिल्मों के बहिष्कार की अपील को लेकर शत्रुघ्न सिन्हां कहते हैं कि एसी बेतुकी अपील करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि फिल्मों के साथ सिर्फ निर्माता निर्देशकों और नामी कलाकारों का ही भविष्य नहीं जुड़ा होता बल्कि एक फिल्म के निर्माण में सैकड़ों लोग जुड़े होते हैं जिनमें अनेक सह कलाकार, सह निर्देशक, लाइट मैन, कैमरा मैन, साउंड एक्सपर्ट, तकनीशियन, पटकथा लेखक, संवाद लेखक, गीतकार, गायक, डांस कोरियोग्राफर, एक्शन कोरियोग्राफर, स्टंटमैन और तमाम तरह के सहायक कर्मचारी। साथ ही वितरक और सिनेमा घऱों के कर्मचारियों की रोजी रोटी भी जुडी होती है।
सिन्हा कहते हैं कि फिल्म निर्माण में निर्माता बड़ी पूंजी लगाते हैं और सारा जोखिम भी उनका होता है। इसलिए वह किसे काम देंगे इस फैसले का अधिकार भी उनका ही है।कई बार उनका फैसला सही साबित होता है और कई बार गलत।
शत्रुघ्न सिन्हा हों या गजेंद्र चौहान या कई और फिल्मी दिग्गज सब यह मानते हैं कि परिवारवाद समाज के हर क्षेत्र में है जहां पिता की विरासत उसके वारिस को ही मिलती है। राजनीति, उद्योग, व्यापार, वकालत, चिकित्सा, वित्त, न्यायपालिका,नौकरशाही हर क्षेत्र में लंबे समय तक संतानों का झुकाव अपने पिता और खानदानी पेशों की ओर ही रहा है।
उससे अलग कुछ करने वाले विरले ही होते थे। एक जमाने में नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस पर वंशवादी राजनीति का आरोप लगाने वाले नेताओं ने मौका आने पर अपना उत्तराधिकार अपने ही पुत्र पुत्रियो को सौंपा है।
अब यह उनकी क्षमता पर निर्भऱ रहा कि वह उसे कितना आगे बढ़ा पाए।नेहरू की पुत्री इंदिरा औऱ उनके बेटे राजीव प्रधानमंत्री बने। तो शिवसेना पर ठाकरे परिवार, अकाली दल पर बादल परिवार, समाजवादी पार्टी पर मुलायम परिवार, राष्ट्रीय जनता दल पर लालू परिवार, लोकजनशक्ति पार्टी पर पासवान परिवार, डीएमके पर करुणानिधि परिवार, एनसीपी पर शरद पवार परिवार, हरियाणा में देवीलाल परिवार, लोकदल में चरण सिंह के बेटे अजित सिंह, तेलुगू देशम पर एनटीआर के दामाद चंद्रबाबू नायडू, टीआरएस पर चंद्रशेखर राव और उनके पुत्र पुत्री ही काबिज हैं।
भाजपा जहां भले ही केंद्रीय नेतृत्व में परिवार वाद न हो लेकिन कई बड़े नेताओं के बेटे बेटियां अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं। इसलिए राजनीति में अब परिवारवाद का मुद्दा किसी को आकर्षित नहीं करता। इसी तरह देश के नामी गिरामी वकीलों की वकालत, नामी गिरामी डाक्टरों की विरासत भी उनके बेटे बेटियां ही संभालते हैं।तमाम जजों के बेटे जज बनते रहे हैं और आईएएस आईपीएस के बेटे बेटियां भी अपने पिताओं की राह पर चलते रहे हैं।
यह सही है उन्हें इसके लिए योग्यता की परीक्षा देनी पड़ती है लेकिन उनका पारिवारिक परिवेश उसी तरह उनके लिए साधारण परीक्षार्थियो की तुलना में ज्यादा सहायक होता है जैसै किसी फिल्मी हस्ती के बेटे बेटी के लिए फिल्मों में आसानी से मौका मिलना। लेकिन आखिरकर चाहे कोई दूसरा क्षेत्र हो या फिल्मों का क्षेत्र टिकता वही है जिसमें क्षमता धैर्य और योग्यता होती है।जिसे जनता स्वीकार करती है। जनता की अपेक्षाओं की कसौटी पर हर छोटी बड़ी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले को खरा उतरना होता है चाहे वह राजनीति हो या कला का क्षेत्र।
आमतौर पर देखा गया है कि कई बार लोग अपनी असफलताओ और कुंठाओं का ठीकरा फोड़ने के लिए किसी दूसरे का सिर खोजते हैं और इसके लिए उनके अपने क्षेत्र के सफलतम व्यक्तियों पर निशाना लगाकर आरोप लगाना सबसे आसान होता है। बॉलीवुड में इन दिनों यही हो रहा है।
सुशांत सिंह राजपूत की मौत को मोहरा बनाकर भाई -भतीजावाद और कथित फिल्मी माफिया के खिलाफ चल रही यह कथित जंग...
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के कारणों की छानबीन पुलिस कर रही है- फाइल फोटो
- फोटो : अमर उजाला
अगर सोशल मीडिया पर नजर डाली जाए तो करण जौहर, संजय लीला भंसाली, आदित्य चोपड़ा, एकता कपूर जैसे सफल फिल्म निर्माता निर्देशकों और सलमान खान, शाहरुख खान, अक्षय कुमार, रणवीर सिंह जैसे कामयाब सितारों पर निशाना लगाने वालों जो जोर शोर से शामिल हैं उनमें एक दो अपवादों को छोड़कर ज्यादातर वही नाम हैं जो इन दिनों हाशिए पर हैं या बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर पाए हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की मौत को मोहरा बनाकर भाई -भतीजावाद और कथित फिल्मी माफिया के खिलाफ चल रही यह कथित जंग कितनी जायद है कि सुशांत से पहले इसी कोरोना काल में मुंबई में टीवी धारावाहिकों के दो सितारों ने काम की कमी और अवसाद से ग्रस्त होकर आत्महत्या की, लेकिन तब किसी के कान पर कोई जूं नहीं रेंगी। शायद वो बड़ा नाम नहीं थे और उनकी मौत इतनी सुर्खियां भी नहीं बटोरती इसलिए उन्हें अनदेखा कर दिया गया।
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के कारणों की छानबीन पुलिस कर रही है और जांच के बाद वह जिस निष्कर्ष पर पहुंचेगी उस पर भी अदालत का फैसला आखिरी होगा। इसलिए अपना हिसाब किताब चुकाने के इस खेल को अब बंद किया जाना चाहिए क्योंकि परते उघाड़ने के इस सिलसिले में पूरे बॉलीवुड के बेपर्दा होने का खतरा है जो न भारतीय फिल्म उद्योग के लिए ठीक है और न ही उस जनता के लिए जो बॉलीवुड के नायकों को अपने भगवान या देवता की तरह पूजती है।
अगर विष वमन की इस घटिया राजनीति में बॉलीवुड की वो मीनारें जिन पर निशाने साधे जा रहें और जिन पर इस समय फिल्म उद्योग का बड़ा हिस्सा टिका हुआ है, अगर ढह गईं तो निशाना साधने वालों को भी पैर टिकाने के लिए ठौर नहीं मिलेगा। क्योंकि फिल्म निर्माण बड़े पूंजी निवेश का खेल है और पूंजी वहीं आती है जहां सबकुछ सामान्य होता है।
झगड़े झंझट से पूंजी निवेश थम जाता है और धीरे धीरे वह उद्योग मरने लगता है।मुंबई, कोलकाता, कानपुर, सूरत और अहमदाबाद जैसे पुराने औद्योगिक केंद्रों में श्रमिक आंदोलनों ने एक हद के बाद उन उद्योगों को ही बंद होने पर मजबूर कर दिया जिनसे हजारों लाखों मजदूरों को रोजी रोटी मिलती थी।
नतीजा सामने है इन शहरों की पुरानी मिलें जिनकी इमारतें भुतही हो चुकी हैं, अपने हाल पर रो रही हैं। भारत ही नहीं दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग बॉलीवुड को तबाही के इस रास्ते पर मत ले जाइए।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें
[email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।