कभी एनडीए के साथ थे नवीन पटनायक लेकिन ऐसे टूट गए थे रिश्ते, कैसे बने ओडिशा के मसीहा?
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ज्योति बसु, माणिक सरकार, पवन चामलिंग और नवीन पटनायक में आखिर क्या समानताएं है? सिर्फ यही कि ये तमाम हस्तियां सबसे लंबे समय तक अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री रहे हैं? या फिर उनकी सादगी और अपने राज्य को लेकर वह समर्पण जिसकी बदौलत वहां की जनता ने उन्हें अपना मसीहा मान लिया? लेफ्ट का किला बेशक अब पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में ढह चुका हो, लेकिन ज्योति बाबू और माणिक सरकार आज भी वहां के लिए एक आईकॉन तो हैं ही।
सियासत के आईकॉन नवीन पटनायक
ऐसे ही आईकॉन बनकर एक बार फिर उभरे हैं नवीन पटनायक। अगर आपने नवीन बाबू का कोई भाषण सुना हो या इंटरव्यू देखा हो तो याद कीजिए आपने उन्हें कभी ज्यादा बोलते हुए और अपनी शेखी बघारते हुए नहीं देखा होगा। वह किसी भी सवाल का बेहद संक्षिप्त जवाब देते हैं, कभी भी 4 या 5 मिनट से लंबा भाषण नहीं देते हैं,लेकिन उड़ीसा में जहां भी जाते हैं, उनकी सादगी उन्हें आम आदमी के बहुत करीब ला खड़ा करती है। इसलिए कि वो सिर्फ और सिर्फ उड़ीसा की बात करते हैं। उनके लिए ये मायने नहीं रखता कि केन्द्र में एनडीए की सरकार है या यूपीए की, बीजेपी है या कांग्रेस.. वह सीधे तौर पर यही कहते हैं कि जो उनके राज्य के लिए सोचेगा, उसके विकास में मदद करेगा, विशेष पैकेज देगा, वह उसी का साथ देंगे।
दरअसल उड़ीसा पिछले डेढ़-दो दशकों में काफी बदला है। जो उड़ीसा कालाहांडी और अपने तमाम पिछड़े इलाकों की वजह से दुनिया में बदनाम था, वहां की तस्वीर धीरे-धीरे बदली है। जो उड़ीसा वहां आने वाले समुद्री तूफानों से तबाह हो जाता था और कई साल पीछे चला जाता था, अब वहां हर साल आने वाले नये-नये तूफानों का सामना करने और उससे निपटने के रास्ते तलाशे गए हैं। पहले से सावधानियां बरती जाती हैं।
प्राकृतिक आपदाओं को नवीन पटनायक या कोई भी सरकार रोक भले ही न पाए, लेकिन उसके लिए एहतियात बरतने, जान माल के कम से कम नुकसान की गारंटी तो दे ही सकती है। नवीन पटनायक ने वह काम किया। चुनावों के दौरान आए फैनी तूफान से प्रभावित लोगों को भी नवीन पटनायक ने काफी राहत दी, एहतियात इतनी बरती कि नुकसान कम से कम हुआ।
आखिर क्यों लोकप्रिय हैं नवीन पटनायक
एक ज़माने में बीजू पटनायक के राजनीतिक सचिव रहे और उड़ीसा की राजनीति को करीब से जानने वाले आरसी मिश्रा मानते हैं कि नवीन पटनायक ने चुनाव से पहले किसानों के लिए जो कालिया योजना लागू की और हर किसान को पांच-पांच हजार रुपए की पहली किस्त दी, उसका बड़ा असर हुआ है। साथ ही फैनी तूफान के दौरान उनकी सक्रियता ने उड़ीसा के लोगों का भरोसा उनपर और बढ़ाया है।
उड़ीसा के वरिष्ठ पत्रकार एनआर मोहंथी का कहना है कि नवीन पटनायक के लिए कोई भी पार्टी चुनौती नहीं थी,साथ ही उन्होंने हर वर्ग के लिए जितनी योजनाएं बनाईं, उड़ीसा से पलायन रोका, बड़े उद्योगपतियों को बुलाकर औद्योगिक विकास और रोजगार बढ़ाए, गरीबों को एक रुपए किलो चावल दिया और वहां का जीवन स्तर सुधारा, ये नतीजे उसी वजह से आए हैं।
क्या कहता है उड़ीसा का राजनीतिक इतिहास
दरअसल, 1997 में बीजू पटनायक के निधन के बाद जब नवीन पटनायक 50 साल की उम्र में राजनीति में आए तो लोगों ने यही कहा था कि उन्हें उड़ीसा से कोई लेना-देना नहीं, हमेशा दिल्ली और विदेश में रहे, भला उन्हें क्यों चुनें। लेकिन बीजू पटनायक के बेटे होने का फायदा उन्हें मिला। 1998 में जनता दल टूटने के बाद पार्टी भी उन्होंने अपने पिता के नामपर ही बनाई – बीजू जनता दल।
बीजू बाबू का असर ही ऐसा था कि 1998 में अस्का लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर वाजपेयी की एनडीए सरकार में खनन मंत्री बन गए। पहले उन्हें राजनीति में दिलचस्पी नहीं थी, किताबें लिखते थे, पेज थ्री पार्टियों की हस्ती थे। वो हमेशा से कम बोलने वाले और सौम्य दिखने वाले रहे। लेकिन सन् 2000 में हुए उड़ीसा विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी खूब लड़ी और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब रही। नवीन पटनायक केन्द्र की कुर्सी छोड़कर उड़ीसा के मुख्यमंत्री बन गए। अस्का क्षेत्र के ही हिन्जली विधानसभा सीट से उपचुनाव जीतकर आए और तब से यहीं से जीतते रहे।
एनडीए से रिश्ते तल्ख होने की कहानी
एनडीए से रिश्ते तल्ख होने का सिलसिला शुरू हो गया था। 2004 से ही जब कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बाद वहां बड़े पैमाने पर ईसाई विरोधी दंगे हुए जिसमें बजरंग दल और हिन्दूवादी संगठनों की भूमिका सामने आई। 2005 का चुनाव तो भाजपा के साथ ही लड़े, लेकिन 2009 में एनडीए से रिश्ता तोड़ लिया। 2009 में अकेले लड़े और 147 में से 103 सीटें जीतकर सरकार बनाई। तब से अपने दम पर उड़ीसा को आगे बढ़ाने में लगे हैं।
इस बार मोदी लहर का उन्हें अंदेशा था। इसीलिए अपनी परंपरागत हिन्जली सीट के साथ-साथ नवीन पटनायक बीजापुर से भी लड़े, लेकिन बीजेपी को रोकने में इस बार भी कामयाब हो गए। 147 में से 112 सीटें उन्हें मिलीं और पांचवी बार उड़ीसा की जनता ने उन्हीं को फिर से अपना मसीहा मान लिया।
भाजपा को इस बार उड़ीसा और बंगाल से जितनी सीटों की उम्मीद थी, वह लोकसभा में तो कामयाब रही, लेकिन उड़ीसा में इस बार सरकार नहीं बना सकी। प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह नवीन पटनायक के साथ तूफान प्रभावित इलाकों का दौरा किया था उससे लग रहा था कि हो सकता है बीजेडी एक बार फिर एनडीए के साथ आ जाए, लेकिन नवीन पटनायक ने इस बार ऐसा नहीं होने दिया।
बेहद अलहदा है नवीन पटनायक का व्यक्तित्व
ज्योति दा, माणिक सरकार और पवन चामलिंग की तरह आखिर नवीन पटनायक के व्यक्तित्व में ऐसी क्या खासियत है कि जनता उन्हें बार-बार चुनती है और उनपर अपना पूरा भरोसा जता देती है। जाहिर है ये उनकी सादगी है, अपने राज्य को लेकर उनकी चिंता और लगाव है, साथ ही जब से वो मुख्यमंत्री बने,तब से उड़ीसा के लोगों के भीतर ये भरोसा जगा दिया कि जिसे वो अपनी मिट्टी से जुड़ा नहीं मानते थे,वह सिर्फ और सिर्फ वहीं का होकर रह गया। कभी कहीं बाहर नहीं जाता।
किसी से रिश्ते नहीं बिगाड़ता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा का शिकार नहीं है। उसने उड़ीसा की तस्वीर बदली, वहां के लोगों में आत्मसम्मान और काम का भरोसा दिया, बुजुर्गों और महिलाओं के लिए बहुत कुछ किया और लगातार आज भी सिर्फ और सिर्फ उड़ीसा की बात करता है। जाहिर है नवीन पटनायक यूं ही नहीं बन गए अपने लोगों के मसीहा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। आप भी अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
ज्योति बसु, माणिक सरकार, पवन चामलिंग और नवीन पटनायक में आखिर क्या समानताएं है? सिर्फ यही कि ये तमाम हस्तियां सबसे लंबे समय तक अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री रहे हैं? या फिर उनकी सादगी और अपने राज्य को लेकर वह समर्पण जिसकी बदौलत वहां की जनता ने उन्हें अपना मसीहा मान लिया? लेफ्ट का किला बेशक अब पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में ढह चुका हो, लेकिन ज्योति बाबू और माणिक सरकार आज भी वहां के लिए एक आईकॉन तो हैं ही।
सियासत के आईकॉन नवीन पटनायक
ऐसे ही आईकॉन बनकर एक बार फिर उभरे हैं नवीन पटनायक। अगर आपने नवीन बाबू का कोई भाषण सुना हो या इंटरव्यू देखा हो तो याद कीजिए आपने उन्हें कभी ज्यादा बोलते हुए और अपनी शेखी बघारते हुए नहीं देखा होगा। वह किसी भी सवाल का बेहद संक्षिप्त जवाब देते हैं, कभी भी 4 या 5 मिनट से लंबा भाषण नहीं देते हैं,लेकिन उड़ीसा में जहां भी जाते हैं, उनकी सादगी उन्हें आम आदमी के बहुत करीब ला खड़ा करती है। इसलिए कि वो सिर्फ और सिर्फ उड़ीसा की बात करते हैं। उनके लिए ये मायने नहीं रखता कि केन्द्र में एनडीए की सरकार है या यूपीए की, बीजेपी है या कांग्रेस.. वह सीधे तौर पर यही कहते हैं कि जो उनके राज्य के लिए सोचेगा, उसके विकास में मदद करेगा, विशेष पैकेज देगा, वह उसी का साथ देंगे।
दरअसल उड़ीसा पिछले डेढ़-दो दशकों में काफी बदला है। जो उड़ीसा कालाहांडी और अपने तमाम पिछड़े इलाकों की वजह से दुनिया में बदनाम था, वहां की तस्वीर धीरे-धीरे बदली है। जो उड़ीसा वहां आने वाले समुद्री तूफानों से तबाह हो जाता था और कई साल पीछे चला जाता था, अब वहां हर साल आने वाले नये-नये तूफानों का सामना करने और उससे निपटने के रास्ते तलाशे गए हैं। पहले से सावधानियां बरती जाती हैं।
प्राकृतिक आपदाओं को नवीन पटनायक या कोई भी सरकार रोक भले ही न पाए, लेकिन उसके लिए एहतियात बरतने, जान माल के कम से कम नुकसान की गारंटी तो दे ही सकती है। नवीन पटनायक ने वह काम किया। चुनावों के दौरान आए फैनी तूफान से प्रभावित लोगों को भी नवीन पटनायक ने काफी राहत दी, एहतियात इतनी बरती कि नुकसान कम से कम हुआ।
ज्योति बसु, माणिक सरकार, पवन चामलिंग और नवीन पटनायक में आखिर क्या समानताएं है?
- फोटो : फाइल फोटो
आखिर क्यों लोकप्रिय हैं नवीन पटनायक
एक ज़माने में बीजू पटनायक के राजनीतिक सचिव रहे और उड़ीसा की राजनीति को करीब से जानने वाले आरसी मिश्रा मानते हैं कि नवीन पटनायक ने चुनाव से पहले किसानों के लिए जो कालिया योजना लागू की और हर किसान को पांच-पांच हजार रुपए की पहली किस्त दी, उसका बड़ा असर हुआ है। साथ ही फैनी तूफान के दौरान उनकी सक्रियता ने उड़ीसा के लोगों का भरोसा उनपर और बढ़ाया है।
उड़ीसा के वरिष्ठ पत्रकार एनआर मोहंथी का कहना है कि नवीन पटनायक के लिए कोई भी पार्टी चुनौती नहीं थी,साथ ही उन्होंने हर वर्ग के लिए जितनी योजनाएं बनाईं, उड़ीसा से पलायन रोका, बड़े उद्योगपतियों को बुलाकर औद्योगिक विकास और रोजगार बढ़ाए, गरीबों को एक रुपए किलो चावल दिया और वहां का जीवन स्तर सुधारा, ये नतीजे उसी वजह से आए हैं।
क्या कहता है उड़ीसा का राजनीतिक इतिहास
दरअसल, 1997 में बीजू पटनायक के निधन के बाद जब नवीन पटनायक 50 साल की उम्र में राजनीति में आए तो लोगों ने यही कहा था कि उन्हें उड़ीसा से कोई लेना-देना नहीं, हमेशा दिल्ली और विदेश में रहे, भला उन्हें क्यों चुनें। लेकिन बीजू पटनायक के बेटे होने का फायदा उन्हें मिला। 1998 में जनता दल टूटने के बाद पार्टी भी उन्होंने अपने पिता के नामपर ही बनाई – बीजू जनता दल।
बीजू बाबू का असर ही ऐसा था कि 1998 में अस्का लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर वाजपेयी की एनडीए सरकार में खनन मंत्री बन गए। पहले उन्हें राजनीति में दिलचस्पी नहीं थी, किताबें लिखते थे, पेज थ्री पार्टियों की हस्ती थे। वो हमेशा से कम बोलने वाले और सौम्य दिखने वाले रहे। लेकिन सन् 2000 में हुए उड़ीसा विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी खूब लड़ी और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब रही। नवीन पटनायक केन्द्र की कुर्सी छोड़कर उड़ीसा के मुख्यमंत्री बन गए। अस्का क्षेत्र के ही हिन्जली विधानसभा सीट से उपचुनाव जीतकर आए और तब से यहीं से जीतते रहे।
मेहमानों के साथ ओडिशा के सीएम
- फोटो : फाइल फोटो
एनडीए से रिश्ते तल्ख होने की कहानी
एनडीए से रिश्ते तल्ख होने का सिलसिला शुरू हो गया था। 2004 से ही जब कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बाद वहां बड़े पैमाने पर ईसाई विरोधी दंगे हुए जिसमें बजरंग दल और हिन्दूवादी संगठनों की भूमिका सामने आई। 2005 का चुनाव तो भाजपा के साथ ही लड़े, लेकिन 2009 में एनडीए से रिश्ता तोड़ लिया। 2009 में अकेले लड़े और 147 में से 103 सीटें जीतकर सरकार बनाई। तब से अपने दम पर उड़ीसा को आगे बढ़ाने में लगे हैं।
इस बार मोदी लहर का उन्हें अंदेशा था। इसीलिए अपनी परंपरागत हिन्जली सीट के साथ-साथ नवीन पटनायक बीजापुर से भी लड़े, लेकिन बीजेपी को रोकने में इस बार भी कामयाब हो गए। 147 में से 112 सीटें उन्हें मिलीं और पांचवी बार उड़ीसा की जनता ने उन्हीं को फिर से अपना मसीहा मान लिया।
भाजपा को इस बार उड़ीसा और बंगाल से जितनी सीटों की उम्मीद थी, वह लोकसभा में तो कामयाब रही, लेकिन उड़ीसा में इस बार सरकार नहीं बना सकी। प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह नवीन पटनायक के साथ तूफान प्रभावित इलाकों का दौरा किया था उससे लग रहा था कि हो सकता है बीजेडी एक बार फिर एनडीए के साथ आ जाए, लेकिन नवीन पटनायक ने इस बार ऐसा नहीं होने दिया।
बेहद अलहदा है नवीन पटनायक का व्यक्तित्व
ज्योति दा, माणिक सरकार और पवन चामलिंग की तरह आखिर नवीन पटनायक के व्यक्तित्व में ऐसी क्या खासियत है कि जनता उन्हें बार-बार चुनती है और उनपर अपना पूरा भरोसा जता देती है। जाहिर है ये उनकी सादगी है, अपने राज्य को लेकर उनकी चिंता और लगाव है, साथ ही जब से वो मुख्यमंत्री बने,तब से उड़ीसा के लोगों के भीतर ये भरोसा जगा दिया कि जिसे वो अपनी मिट्टी से जुड़ा नहीं मानते थे,वह सिर्फ और सिर्फ वहीं का होकर रह गया। कभी कहीं बाहर नहीं जाता।
किसी से रिश्ते नहीं बिगाड़ता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा का शिकार नहीं है। उसने उड़ीसा की तस्वीर बदली, वहां के लोगों में आत्मसम्मान और काम का भरोसा दिया, बुजुर्गों और महिलाओं के लिए बहुत कुछ किया और लगातार आज भी सिर्फ और सिर्फ उड़ीसा की बात करता है। जाहिर है नवीन पटनायक यूं ही नहीं बन गए अपने लोगों के मसीहा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। आप भी अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।