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पड़ोसी देश
मालदीव पर आए सियासी संकट पर भारत लगातार निगाहें बनाये हुए है। भारतीय सेनाओं को भी अलर्ट दे दिया गया है कि वह मालदीव के प्रस्थान के लिए तैयार रहें। अगर सेना को मालदीव जाने के संकेत मिलते हैं तो ऐसा पहली बार नहीं होगा जब भारतीय सेनाओं ने इस प्रकार से मदद करेगा। ऐसे पहले भी हो चुका है। जिसे इतिहास में ऑपरेशन कैक्टस के नाम से याद किया जाता है।
30 साल पहले 1988 में भारतीय सेना ने इसी प्रकार से मदद की थी। 3 नवंबर 1988 में श्रीलंका के उग्रवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन ऑफ तमिल ईलम मालदीव पहुंचे। यह उग्रवादी पर्यटकों के भेष में मालदीव पहुंचे थे। श्रीलंका में रहने वाले एक मालदीव नागरिक अब्दुल्ला लथुफी ने तख्ता पटल की प्लानिंग की थी और इसी प्लानिंग के तहत उग्रवादियों को मालदीव में दाखिल कराया गया था।
मालदीव में दाखिल होते ही उग्रवादियों ने राजधानी माले की सरकारी भवनों को अपने कब्जे में ले लिया। देखते ही देखते माले के एयरपोर्ट, टेलीविजन केंद्र और बंदरगाह पर उग्रवादियों का कब्जा हो गया। उग्रवादियों की यह टुकड़ी तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गय्यूम तक पहुंचना चाहते थे। गय्यूम को जैसे ही इस खतरे का आभास हुआ, उन्होंने कई देशों के शीर्षों को इमरजेंसी मैसेज भेजा। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जैसे ही संदेश मिला, वह एक्शन में आ गए। मालदीव की मदद करने वाले देशों में भारत पहला देश रहा।
प्रधानमंत्री से निर्देश मिलते ही 300 जवान, मालदीव की राजधानी माले के लिए रवाना हो गये। भारत की सेना
मालदीव के हुलहुले एयरपोर्ट पर पहुंची, क्योंकि यह एयरपोर्ट मालदीव की सेना के नियंत्रण में था। पहले आगरा छावनी से टुकड़ी को रवाना किया गया था। इस टुकड़ी के मालदीव में पहुंचने के बाद कोच्चि से भी एक टुकड़ी को हरी झंडी दे दी गई। भारतीय सेना के दाखिल होने भर से उग्रवादियों के हौसले डगमगा गए। भारतीय सेना ने भी वहां पहुंचते ही एक्शन में आना शुरू कर दिया। आते ही माले के एयरपोर्ट पर अपना कब्जा जमा लिया और तत्कालीन राष्ट्रपति गय्यूम को सुरक्षित किया।
एक तरफ तो राजधानी के आसमान पर भारतीय वायुसेना के मिराज विमान उड़ते हुए दिखाई दे रहे थे तो दूसरी तरफ भारतीय नौसेना के युद्धपोत गोदावरी और बेतवा भी हरकत में आ चुकी थी। नौसेना ने सबसे पहले श्रीलंका और मालदीव के बीच उग्रवादियों की सप्लाई लाइन को काट दिया।
अब चारों तरफ भारतीय सेना का कब्जा था, उग्रवादियों को खदेड़ना शुरू किया तो वह बदहवासी में श्रीलंका की तरफ भागे। जाते जाते उन्होंने एक जहाज को अगवा कर लिया। यहां भी मोर्चा भारतीय सेना ने संभाला। नौसेना को आदेश दिया गया, आईएनएस गोदावरी हरकत में आया और एक हेलिकॉप्टर इसकी मदद के लिए उड़ा। जहाज के पास भारत के नौसेना जवानों को उतार दिया गया, जहां जबरदस्त मुठभेड़ हुई और 19 लोगों की मौत हुई। इनमें से ज्यादातर उग्रवादी थे।
आजादी के बाद
विदेशी सरजमीं पर यह भारत का पहला सैन्य अभियान था जिसनें कामयाबी भी मिली। इसी ऑपरेशन को ऑपरेशन कैक्टस का नाम दिया गया था। इस ऑपरेशन के बाद ज्यादातर सैनिक भारतीय सरजमीं पर लौट आए लेकिन 150 सैनिक मालदीव में करीब एक साल तक पोस्टेड रहे। ऑपरेशन कैक्टस का नाम आज भी दुनिया के सफल ऑपरेशन में गिना जाता है।
पड़ोसी देश
मालदीव पर आए सियासी संकट पर भारत लगातार निगाहें बनाये हुए है। भारतीय सेनाओं को भी अलर्ट दे दिया गया है कि वह मालदीव के प्रस्थान के लिए तैयार रहें। अगर सेना को मालदीव जाने के संकेत मिलते हैं तो ऐसा पहली बार नहीं होगा जब भारतीय सेनाओं ने इस प्रकार से मदद करेगा। ऐसे पहले भी हो चुका है। जिसे इतिहास में ऑपरेशन कैक्टस के नाम से याद किया जाता है।
30 साल पहले 1988 में भारतीय सेना ने इसी प्रकार से मदद की थी। 3 नवंबर 1988 में श्रीलंका के उग्रवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन ऑफ तमिल ईलम मालदीव पहुंचे। यह उग्रवादी पर्यटकों के भेष में मालदीव पहुंचे थे। श्रीलंका में रहने वाले एक मालदीव नागरिक अब्दुल्ला लथुफी ने तख्ता पटल की प्लानिंग की थी और इसी प्लानिंग के तहत उग्रवादियों को मालदीव में दाखिल कराया गया था।
मालदीव में दाखिल होते ही उग्रवादियों ने राजधानी माले की सरकारी भवनों को अपने कब्जे में ले लिया। देखते ही देखते माले के एयरपोर्ट, टेलीविजन केंद्र और बंदरगाह पर उग्रवादियों का कब्जा हो गया। उग्रवादियों की यह टुकड़ी तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गय्यूम तक पहुंचना चाहते थे। गय्यूम को जैसे ही इस खतरे का आभास हुआ, उन्होंने कई देशों के शीर्षों को इमरजेंसी मैसेज भेजा। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जैसे ही संदेश मिला, वह एक्शन में आ गए। मालदीव की मदद करने वाले देशों में भारत पहला देश रहा।
प्रधानमंत्री से निर्देश मिलते ही 300 जवान, मालदीव की राजधानी माले के लिए रवाना हो गये। भारत की सेना
मालदीव के हुलहुले एयरपोर्ट पर पहुंची, क्योंकि यह एयरपोर्ट मालदीव की सेना के नियंत्रण में था। पहले आगरा छावनी से टुकड़ी को रवाना किया गया था। इस टुकड़ी के मालदीव में पहुंचने के बाद कोच्चि से भी एक टुकड़ी को हरी झंडी दे दी गई। भारतीय सेना के दाखिल होने भर से उग्रवादियों के हौसले डगमगा गए। भारतीय सेना ने भी वहां पहुंचते ही एक्शन में आना शुरू कर दिया। आते ही माले के एयरपोर्ट पर अपना कब्जा जमा लिया और तत्कालीन राष्ट्रपति गय्यूम को सुरक्षित किया।
एक तरफ तो राजधानी के आसमान पर भारतीय वायुसेना के मिराज विमान उड़ते हुए दिखाई दे रहे थे तो दूसरी तरफ भारतीय नौसेना के युद्धपोत गोदावरी और बेतवा भी हरकत में आ चुकी थी। नौसेना ने सबसे पहले श्रीलंका और मालदीव के बीच उग्रवादियों की सप्लाई लाइन को काट दिया।
अब चारों तरफ भारतीय सेना का कब्जा था, उग्रवादियों को खदेड़ना शुरू किया तो वह बदहवासी में श्रीलंका की तरफ भागे। जाते जाते उन्होंने एक जहाज को अगवा कर लिया। यहां भी मोर्चा भारतीय सेना ने संभाला। नौसेना को आदेश दिया गया, आईएनएस गोदावरी हरकत में आया और एक हेलिकॉप्टर इसकी मदद के लिए उड़ा। जहाज के पास भारत के नौसेना जवानों को उतार दिया गया, जहां जबरदस्त मुठभेड़ हुई और 19 लोगों की मौत हुई। इनमें से ज्यादातर उग्रवादी थे।
आजादी के बाद
विदेशी सरजमीं पर यह भारत का पहला सैन्य अभियान था जिसनें कामयाबी भी मिली। इसी ऑपरेशन को ऑपरेशन कैक्टस का नाम दिया गया था। इस ऑपरेशन के बाद ज्यादातर सैनिक भारतीय सरजमीं पर लौट आए लेकिन 150 सैनिक मालदीव में करीब एक साल तक पोस्टेड रहे। ऑपरेशन कैक्टस का नाम आज भी दुनिया के सफल ऑपरेशन में गिना जाता है।