मध्यकालीन भक्त संत कुंभनदास का जीवन पूरी तरह प्रभु समर्पित था। त्याग तपस्या की प्रतिमूर्ति संत कुंभनदास ब्रज के पास जमुनावतो गांव में खेती कर जीविका चलाते, श्रीनाथ की सेवा में लगे रहते, महाप्रभु वल्लभाचार्य के पास कीर्तन सुनाया करते थे। एक समय बादशाह अकबर के दरबार से महाराज मानसिंह आए। जिस समय वह श्रीनाथ जी का आरती-दर्शन करने आए, उस समय महात्मा कुंभनदास वीणा और मृदंग बजाते हुए प्रेमोन्मत्त होकर कीर्तन कर रहे थे। राजा मानसिंह उनके कीर्तन से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने संत के निवास स्थान पर जाकर मिलने का निश्चय किया।
राजा मानसिंह उनके घर गए। कुंभनदास स्नान करके तिलक आदि लगा रहे थे कि मानसिंह ने उन्हें प्रणाम किया। मेरा दर्पण और आसनी तो लाओ, कुंभनदास ने अपनी भतीजी से कहा। भतीजी ने बताया कि दर्पण पड़िया ने पी लिया है और आसनी भी खा गई। कुंभनदास चुप हो गए, लेकिन मानसिंह को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। कुंभनदास ने पानी में मुंह देखकर तिलक लगाया और पुआल से आसनी का काम लिया।
मानसिंह श्रद्धा से अभिभूत हो गए। उन्होंने सोने से मढ़ा अपना दर्पण कुंभनदास के हाथ में रख दिया। महात्मा ने यह कहते हुए दर्पण लौटा दिया कि मेरा घर तो एक झोपड़ी मात्र है। इसे कहां रखूंगा। फिर इस दर्पण से मेरी शांति नष्ट हो जाएगी। चोर-डाकू जान लेने पर तुल जाएंगे।’ मानसिंह संत की निष्ठा आगे नतमस्तक था। मानसिंह बोले, महाराज! मेरी बड़ी इच्छा है कि जमुनावतो ग्राम आपके नाम लग जाए। पर कुंभनदास ने विनम्रता से उनका अनुरोध ठुकरा दिया।
राजा मानसिंह ने मोहरों की थैली भेंट में दी। संत ने वह थैली लौटा दी और कहा, नरेश! ब्रज के करील और बेर ही सबसे बड़े प्रसाद हैं। यह सुन मानसिंह का रोम-रोम पुलकित हो उठा। मन ही मन वह बोले, भगवान को समर्पित यह जीवन धन्य है।
मध्यकालीन भक्त संत कुंभनदास का जीवन पूरी तरह प्रभु समर्पित था। त्याग तपस्या की प्रतिमूर्ति संत कुंभनदास ब्रज के पास जमुनावतो गांव में खेती कर जीविका चलाते, श्रीनाथ की सेवा में लगे रहते, महाप्रभु वल्लभाचार्य के पास कीर्तन सुनाया करते थे। एक समय बादशाह अकबर के दरबार से महाराज मानसिंह आए। जिस समय वह श्रीनाथ जी का आरती-दर्शन करने आए, उस समय महात्मा कुंभनदास वीणा और मृदंग बजाते हुए प्रेमोन्मत्त होकर कीर्तन कर रहे थे। राजा मानसिंह उनके कीर्तन से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने संत के निवास स्थान पर जाकर मिलने का निश्चय किया।
राजा मानसिंह उनके घर गए। कुंभनदास स्नान करके तिलक आदि लगा रहे थे कि मानसिंह ने उन्हें प्रणाम किया। मेरा दर्पण और आसनी तो लाओ, कुंभनदास ने अपनी भतीजी से कहा। भतीजी ने बताया कि दर्पण पड़िया ने पी लिया है और आसनी भी खा गई। कुंभनदास चुप हो गए, लेकिन मानसिंह को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। कुंभनदास ने पानी में मुंह देखकर तिलक लगाया और पुआल से आसनी का काम लिया।
मानसिंह श्रद्धा से अभिभूत हो गए। उन्होंने सोने से मढ़ा अपना दर्पण कुंभनदास के हाथ में रख दिया। महात्मा ने यह कहते हुए दर्पण लौटा दिया कि मेरा घर तो एक झोपड़ी मात्र है। इसे कहां रखूंगा। फिर इस दर्पण से मेरी शांति नष्ट हो जाएगी। चोर-डाकू जान लेने पर तुल जाएंगे।’ मानसिंह संत की निष्ठा आगे नतमस्तक था। मानसिंह बोले, महाराज! मेरी बड़ी इच्छा है कि जमुनावतो ग्राम आपके नाम लग जाए। पर कुंभनदास ने विनम्रता से उनका अनुरोध ठुकरा दिया।
राजा मानसिंह ने मोहरों की थैली भेंट में दी। संत ने वह थैली लौटा दी और कहा, नरेश! ब्रज के करील और बेर ही सबसे बड़े प्रसाद हैं। यह सुन मानसिंह का रोम-रोम पुलकित हो उठा। मन ही मन वह बोले, भगवान को समर्पित यह जीवन धन्य है।