संसार में रोशनी का आधार सूर्य है इसलिए
ज्योतिषशास्त्र में सूर्य को आंखों की रोशनी और नेत्र संबंधी रोग का कारक
ग्रह माना गया है। चन्द्रमा और शुक्र ये दोनों ग्रह इस रोग में सहायक की
भूमिका निभाते हैं। ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि जन्मकुण्डली का
दूसरा घर दायें आंख और बारहवां घर बायें आंख से संबंधित स्थितियों को
दर्शाता है।
कुण्डली के दोनों घरों में से जिसमें सूर्य अथवा शुक्र
बैठा होता है उस आंख में तकलीफ होने की संभावना अधिक रहती है।
ज्योतिषशास्त्र के ग्रंथ सारावली में बताया गया है कि जिनकी कुण्डली में
सूर्य और चन्द्रमा एक साथ बारहवें घर में होते हैं उन्हें नेत्र रोग होता
है। ये दोनों घर मंगल, शनि, राहु एवं केतु के अशुभ प्रभाव में होने पर भी
आंखों की रोशनी प्रभावित होती है।
नेत्र रोग के कई योग
ज्योतिषशास्त्र में बताये गये हैं। साथ ही बताया गया है कि मंत्रों एवं
ग्रहों के उपायों से नेत्र रोग देने वाले अशुभ योगों के प्रभाव को कम किया
जा सकता है। इनमें सबसे आसान उपाय है नियमित सूर्योदय के समय उगते सूर्य को
तांबे के बर्तन में जल भरकर अर्पित करना। नियमित ऐसा करने से नेत्र रोग
होने की संभावना कम रहती है।
कृष्ण यजुर्वेद साखा का एक उपनिषद् है
चाक्षुषोपनिषद। इस उपनिषद् में आंखों को स्वस्थ रखने के लिए सूर्य
प्रार्थना का मंत्र दिया गया है। माना जाता है कि इस मंत्र का नियमित पाठ
करने से नेत्र रोग से बचाव होता है। जिन लोगों की आंखों की रोशनी अल्पायु
में ही कमज़ोर हो गयी है, उन्हें भी इस मंत्र के जप से लाभ मिलता है।
आंखों को स्वस्थ रखने वाला सूर्य मंत्र
विनियोग : -
ॐ
अस्याश्चाक्षुषीविद्याया अहिर्बुध्न्य ऋषिः, गायत्री छन्दः, सूर्यो देवता,
ॐ बीजम्, नमः शक्तिः, स्वाहा कीलकम्, चक्षूरोगनिवृत्तये जपे विनियोगः।
चक्षुष्मती विद्या:-
ॐ चक्षुः चक्षुः चक्षुः तेजस्थिरोभव ।
मां पाहि पाहि । त्वरितम् चक्षूरोगान् शमय शमय ।
ममाजातरूपं तेजो दर्शय दर्शय ।
यथाहमंधोनस्यां तथा कल्पय कल्पय ।
कल्याण कुरु कुरु यानि मम पूर्वजन्मोपार्जितानि चक्षुः प्रतिरोधक दुष्कृतानि सर्वाणि निर्मूलय निर्मूलय ।
ॐ नमश्चक्षुस्तेजोदात्रे दिव्याय भास्कराय ।
ॐ नमः कल्याणकराय अमृताय ॐ नमः सूर्याय ।
ॐ नमो भगवते सूर्याय अक्षितेजसे नमः ।
खेचराय नमः महते नमः रजसे नमः तमसे नमः ।
असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय ।
उष्णो भगवान्छुचिरूपः हंसो भगवान् शुचिप्रतिरूपः ।
ॐ विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं
हिरण्मयं ज्योतिरूपं तपन्तम्।
सहस्त्ररश्मिः शतधा वर्तमानः
पुरः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।।
ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यायादित्यायाऽक्षितेजसेऽहोवाहिनिवाहिनि स्वाहा।।
ॐ वयः सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रं
प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि-
चक्षुर्मुग्ध्यस्मान्निधयेव बद्धान्।।
ॐ
पुण्डरीकाक्षाय नमः। ॐ पुष्करेक्षणाय नमः। ॐ कमलेक्षणाय नमः। ॐ विश्वरूपाय
नमः। ॐ श्रीमहाविष्णवे नमः। ॐ सूर्यनारायणाय नमः।। ॐ शान्तिः शान्तिः
शान्तिः।।
य इमां चाक्षुष्मतीं विद्यां ब्राह्मणो नित्यमधीयते न तस्य अक्षिरोगो भवति।
न तस्य कुले अंधो भवति न तस्य कुले अंधो भवति।
अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा विद्यासिद्धिर्भवति ।
विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं हिरण्मयं पुरुषं ज्योतीरूपं तपंतं सहस्ररश्मिः
शतधावर्तमानः पुरःप्रजानामुदयत्येष सूर्यः ॐ नमो भगवते आदित्याय।