यह लेख लिखते वक्त तक देश में कोरोना वायरस से करीब 1.15 लाख लोगों की मौत हो चुकी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक, भारत में कोरोना वायरस से होने वाली मौतों में सत्तर फीसदी हिस्सेदारी पुरुष मरीजों की है। लेकिन क्या यह आंकड़ा पूरी कहानी बयान कर रहा है? हम जानते हैं कि कोविड-19 के आंकड़ों में अनिश्चितता जारी है। देश के सभी राज्य कोविड-19 संक्रमण और उससे होने वाली मौतों का व्यवस्थित रूप से लैंगिक आधार पर आंकड़ा जारी नहीं कर रहे। इसके अलावा मौतें महामारी की भीषणता का केवल एक हिस्सा हैं। भले ही वायरस ने पुरुषों की ज्यादा जान ली हो, पर कोविड संकट में महिलाएं असंतुलन की हद तक सामाजिक और आर्थिक नतीजे झेल रही हैं।
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भारत में एक चौथाई से भी कम महिलाएं श्रमबल में शामिल हैं, लेकिन स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसे भंगुर क्षेत्रों तथा कृषि जैसे अनौपचारिक क्षेत्र में, जहां सुरक्षा का कोई उपाय नहीं है, उनका प्रतिनिधित्व बहुत अधिक है। नर्सों से लेकर सामुदायिक स्वास्थ्यकर्ताओं तक महिलाएं कोविड-19 मामलों के प्रबंधन और स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के क्षेत्र में अग्रणी मोर्चे पर काम करती हैं। भारत में ज्यादातर नर्सें महिलाएं हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य सेवाकर्मियों का काम भी पूरी तरह से महिलाओं पर निर्भर है, जिनमें 10 लाख से ज्यादा आशा कार्यकर्ता और 26 लाख से ज्यादा आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहयोगी शामिल हैं।
कोविड-19 से संबंधित कार्य आशा कार्यकर्ता, एएनएम और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा निष्पादित किए जाते हैं, जिसके कारण उनमें वायरस से संक्रमित होने का खतरा ज्यादा होता है। केंद्र सरकार ने बताया है कि विगत मार्च से अगस्त तक 3.04 करोड़ से ज्यादा एन-95 मास्क और 1.28 करोड़ से ज्यादा पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) राज्यों/ केंद्र शासित
प्रदेशों / केंद्रीय संस्थानों के बीच निःशुल्क वितरित किए गए हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर नर्सों और अग्रणी स्वास्थ्यकर्मियों के बारे में कई ऐसी खबरें आई हैं कि वे बिना उचित रक्षात्मक उपकरणों और सामाजिक सुरक्षा के निरंतर काम कर रही हैं। अपने सामान्य कर्तव्य के अलावा वे अब घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने, कोरोना वायरस के लक्षणों वाले लोगों की पहचान करने, जरूरी सावधानी बरतने को लेकर लोगों को जागरूक करने, प्रवासियों की गतिविधियों की निगरानी करने, संपर्क का पता लगाने और लोगों के यात्रा विवरणों एवं अन्य आंकड़े इकट्ठा करने के काम में शामिल हैं।
इनमें से अनेक महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जो कोविड-19 रक्षा की पहली पंक्ति में खड़ी हैं, अपने परिवार के लोगों द्वारा अपमान, संदिग्ध मरीजों के दुर्व्यवहार और कलंक का सामना करती हैं। स्वास्थ्यकर्मियों पर हमलों के जवाब में केंद्र सरकार ने महामारी रोग अधिनियम, 1897 में संशोधन को मंजूरी दी,, जिसमें ऐसे अपराधों के लिए सात साल की कैद और भारी जुर्माने का प्रावधान किया गया है, इसके बावजूद जमीनी स्तर पर महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की चुनौती लगातार बनी हुई है।
इस दौरान नर्सों और आशा कार्यकर्ताओं की मौत भी हुई है। देश के सबसे बड़े नर्सिंग संघ, द ट्रेंड नर्सेस एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. रॉय जॉर्ज ने बताया कि मार्च से 12 अक्तूबर तक कोविड-19 से 48 नर्सों की मौत हो गई। उनमें से ज्यादातर महिलाएं थीं। उन्होंने बताया कि इनमें से ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में काम करती थीं, ऐसे में यह आंकड़ा आंशिक ही हो सकता है, क्योंकि मार्च से जून तक कोविड-19 के मरीजों का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही होता था और निजी अस्पतालों में काम करने वाली नर्सें बाद में वायरस से संक्रमित होने लगीं। इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि कितनी नर्सों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की मौत हुई। लेकिन जमीनी स्तर की चुनौतियां सर्वविदित हैं। हिंसा के अलावा कोविड-19 को संभालने के लिए प्रशिक्षण की कमी आशा कार्यकर्ताओं के लिए एक और परेशानी है। उनके लिए केंद्र सरकार के अधिकांश प्रशिक्षण ऑनलाइन सत्रों तक ही सीमित रहे हैं और हर कोई यह प्रशिक्षण लेने में सक्षम नहीं है।
क्लीनिकल नर्सिंग ऐंड रिसर्च सोसाइटी की उपाध्यक्ष, सेवा शक्ति हेल्थकेयर कंसल्टेन्सी की सीईओ और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की विजिटिंग फैकल्टी डॉ. स्वाति राणे नर्सों से संबंधित जिन प्रमुख चुनौतियों के बारे में बताती हैं, वे हैं, उपयुक्त सुरक्षा उपकरणों की कमी, स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोटोकॉल (एसओपी) के लिए पर्याप्त दिशा-निर्देश का अभाव, अनुपालन
की कमी, उपयोग किए गए सुरक्षात्मक उपकरण को शीघ्र दूर हटाने के लिए कर्मियों की कमी तथा खासकर खाते वक्त और इस तरह की अन्य गतिविधियों के दौरान सामाजिक दूरी का अभाव।
कुछ नर्सों की शिकायत है कि छोटे और निजी अस्पताओं में घटिया किस्म के पीपीई किट मिलते हैं, लेकिन वे सजा के भय से बोलने में डरती हैं। महिलाओं को अपनी नौकरियां खोने और काम से हटाए जाने की आशंका ज्यादा है, क्योंकि मौजूदा संकट के दौर में अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है। व्यापक लॉकडाउन के दौरान बच्चों और घर के बुजुर्ग सदस्यों की देखभाल के साथ-साथ उन्हें घरेलू हिंसा और उसके फलस्वरूप उच्च स्तर के तनाव से भी गुजरना पड़ा। देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान प्रमुख स्वास्थ्य सेवाएं बाधित रहीं। ऐसी कई खबरें मिलीं कि उस दौरान गर्भवर्ती महिलाओं को स्वास्थ्य सेवा हासिल करने के लिए परेशानियों का सामना करना पड़ा।
साफ है कि कोविड के कारण उभरते सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए अपनी योजना बनाते समय भारत समेत अधिकांश देशों ने लैंगिक स्तर पर विचार नहीं किया। यह बदलाव का समय है। यह राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों के लिए इसे विश्लेषित करने का वक्त है कि कोविड-19 ने महिलाओं और पुरुषों को किस तरह प्रभावित किया, उन्हें इस संबंध में जानकारी सावर्जनिक रूप से उपलब्ध करानी चाहिए और साक्ष्य-आधारित लैंगिक समावेशी नीतियों को आगे बढ़ाना चाहिए।