कृषि कानूनों पर सरकार और किसान संगठनों की बातचीत के बीच सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद मामला और उलझ गया है। आंदोलनकारी किसानों को आशंका थी कि अदालत में जाने से चीजें उलझ जाएंगी। इन कृषि कानूनों के आर्थिक आधार को समझने की जरूरत है। सरकार के मुताबिक, ये कानून किसानों के हित में हैं, इससे उन्हें विकल्प मिलेंगे। कृषि क्षेत्र मुक्त व्यापार के दायरे में आ जाएगा। वास्तविकता यह है कि आर्थिक रूप से न तो कृषि क्षेत्र मुक्त बाजार बन सकता है, न ही छोटे किसानों को विकल्प मिल सकता है। इसकी वजह है कृषि उपज के बाजार का कार, जूता, टेक्सटाइल्स आदि के बाजारों से भिन्न होना। इन बाजारों में मूल्य निर्धारण व्यवस्था अलग होती है, जिसमें लागत मूल्य और बिक्री मूल्य के आधार पर लाभ मिलता है। जबकि कृषि क्षेत्र मांग और आपूर्ति पर निर्धारित होता है। देशभर के किसानों को कभी अच्छी, तो कभी खराब फसल का सामना करना पड़ता है। उसकी उपज का मूल्य बाजार निर्धारित करता है। फसल उत्पादन के लिए प्रतिवर्ष किसानों को उधार लेना पड़ता है। सेठ, साहूकार या ट्रेडर, जिससे वे उधार लेते हैं, फसल उन्हीं को बेचनी पड़ती है। अक्सर किसान यह कहते हैं कि उनको लाभ के बजाय घाटा हो रहा है।
आर्थिक परिभाषा में कृषि क्षेत्र बाजार मुक्त नहीं, बल्कि किसान और सेठ, साहूकार और ट्रेडर के बीच आपस में जुड़ा हुआ बाजार है। सरकार कह रही है कि अब किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकते हैं। ऐसा फिलहाल संभव नहीं है, क्योंकि किसानों की स्थिति खराब है। उनको फसल उत्पादन के लिए उधार लेना ही पड़ेगा, और उन्हीं को बेचना पड़ेगा। हालांकि छोटे किसान एमएसपी का लाभ नहीं ले पाते। लेकिन एमएसपी बाजार में एक बेंचमार्क मूल्य बनाती है। और सेठ, साहूकार, ट्रेडर द्वारा फसल के मूल्य निर्धारण की एक सीमा तय हो जाती है। अगर यह बेंचमार्क मूल्य खत्म हुआ, तो नुकसान किसानों का ही है। हालांकि सरकार कह रही है कि वह एमएसपी या एपीएमसी खत्म नहीं कर रही। पर जब वैकल्पिक बाजार होगा, तो शुरुआत में किसानों को लुभावने अवसर दिए जाएंगे।
जैसे-जैसे एपीएमसी निष्क्रिय होंगी, एमएसपी भी खत्म होगी। यह आर्थिक प्रक्रिया है, जो कुछ वर्षों में अपना असर दिखाएगी। कृषि बाजार में जब बड़े खिलाड़ी आएंगे, तो वे ट्रेडर से ही माल खरीदेंगे। कंपनियां पहले ट्रेडर को एक दाम देंगी, फिर ट्रेडर किसानों का दाम निर्धारित करेगा। इससे किसानों की हालत और खराब हो जाएगी। अनुबंिधत खेती के पेच छोटे किसानों कि समझ नहीं आते हैं। इससे उन पर दोहरी मार पड़ेगी। कनूनी दांव पेच में उन्हें उलझना पड़ेगा। बाजार शक्ति व पूंजी से चलता है। जो कमजोर होता है, वह पिस जाता है। ऑनलाइन टैक्सी सर्विस प्रदाता कंपनियों के परिणाम हम देख चुके हैं। कैसे छह रुपये प्रति किलोमीटर से अब वे पंद्रह रुपये प्रति किलोमीटर तक किराया ले रही हैं। संसद में ये कानून पारित हो गए, पर किसान कह रहे है कि नए कानूनों में उनकी राय नहीं मांगी गई। मसला यह है कि जब तक आप कर्ज बाजार, श्रम बाजार, भूमि बाजार और उपज बाजार को नहीं ठीक नहीं करेंगे, तब तक कृषि क्षेत्र मुक्त बाजार नहीं बन सकता।
अब सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी बना दी। कमेटी के चारों सदस्य इन कानूनों के पक्ष में हैं। किसान शुरू से ही कह रहे थी कि हम किसी कमेटी के सामने नहीं जाएंगे, क्योंकि उनको पता था कि बात टल जाएगी। अदालत के सामने मामले को सुलझाने का यह एक बेहतर अवसर था, कि वह एक ऐसी कमेटी बनाती जिसमें निरपेक्ष लोग होते क्योंकि सरकार व किसान के बीच मामला अटक हुआ था। पर इसका उल्टा हो रहा है। आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि जिस कानून में बुनियादी खामियां हों, उसमें क्या बदलाव हो सकता है? ऐसे में सरकार को किसानों से कहना चाहिए कि हम इन कानूनों को अभी रोकते हैं। किसानों से बात करते हैं, राज्यों से बात करते हैं, फिर एक नया अध्यादेश बनाते हैं। फिर इन कानूनों को वापस लेकर नए कानून को पारित करा लेते हैं। अगर सही तरीके से एक कमेटी गठित हो, जिसमें पक्ष, विपक्ष व कुछ निरपेक्ष लोग हों, तब एक समाधान निकल सकता है। क्योंकि कानून तो संसद में ही बनेगा, उसे कोई कमेटी या अदालत नहीं बना सकती।
सार
आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि जिस कानून में बुनियादी खामियां हों, उसमें बदलाव क्या हो सकता है।
विस्तार
कृषि कानूनों पर सरकार और किसान संगठनों की बातचीत के बीच सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद मामला और उलझ गया है। आंदोलनकारी किसानों को आशंका थी कि अदालत में जाने से चीजें उलझ जाएंगी। इन कृषि कानूनों के आर्थिक आधार को समझने की जरूरत है। सरकार के मुताबिक, ये कानून किसानों के हित में हैं, इससे उन्हें विकल्प मिलेंगे। कृषि क्षेत्र मुक्त व्यापार के दायरे में आ जाएगा। वास्तविकता यह है कि आर्थिक रूप से न तो कृषि क्षेत्र मुक्त बाजार बन सकता है, न ही छोटे किसानों को विकल्प मिल सकता है। इसकी वजह है कृषि उपज के बाजार का कार, जूता, टेक्सटाइल्स आदि के बाजारों से भिन्न होना। इन बाजारों में मूल्य निर्धारण व्यवस्था अलग होती है, जिसमें लागत मूल्य और बिक्री मूल्य के आधार पर लाभ मिलता है। जबकि कृषि क्षेत्र मांग और आपूर्ति पर निर्धारित होता है। देशभर के किसानों को कभी अच्छी, तो कभी खराब फसल का सामना करना पड़ता है। उसकी उपज का मूल्य बाजार निर्धारित करता है। फसल उत्पादन के लिए प्रतिवर्ष किसानों को उधार लेना पड़ता है। सेठ, साहूकार या ट्रेडर, जिससे वे उधार लेते हैं, फसल उन्हीं को बेचनी पड़ती है। अक्सर किसान यह कहते हैं कि उनको लाभ के बजाय घाटा हो रहा है।
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आर्थिक परिभाषा में कृषि क्षेत्र बाजार मुक्त नहीं, बल्कि किसान और सेठ, साहूकार और ट्रेडर के बीच आपस में जुड़ा हुआ बाजार है। सरकार कह रही है कि अब किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकते हैं। ऐसा फिलहाल संभव नहीं है, क्योंकि किसानों की स्थिति खराब है। उनको फसल उत्पादन के लिए उधार लेना ही पड़ेगा, और उन्हीं को बेचना पड़ेगा। हालांकि छोटे किसान एमएसपी का लाभ नहीं ले पाते। लेकिन एमएसपी बाजार में एक बेंचमार्क मूल्य बनाती है। और सेठ, साहूकार, ट्रेडर द्वारा फसल के मूल्य निर्धारण की एक सीमा तय हो जाती है। अगर यह बेंचमार्क मूल्य खत्म हुआ, तो नुकसान किसानों का ही है। हालांकि सरकार कह रही है कि वह एमएसपी या एपीएमसी खत्म नहीं कर रही। पर जब वैकल्पिक बाजार होगा, तो शुरुआत में किसानों को लुभावने अवसर दिए जाएंगे।
जैसे-जैसे एपीएमसी निष्क्रिय होंगी, एमएसपी भी खत्म होगी। यह आर्थिक प्रक्रिया है, जो कुछ वर्षों में अपना असर दिखाएगी। कृषि बाजार में जब बड़े खिलाड़ी आएंगे, तो वे ट्रेडर से ही माल खरीदेंगे। कंपनियां पहले ट्रेडर को एक दाम देंगी, फिर ट्रेडर किसानों का दाम निर्धारित करेगा। इससे किसानों की हालत और खराब हो जाएगी। अनुबंिधत खेती के पेच छोटे किसानों कि समझ नहीं आते हैं। इससे उन पर दोहरी मार पड़ेगी। कनूनी दांव पेच में उन्हें उलझना पड़ेगा। बाजार शक्ति व पूंजी से चलता है। जो कमजोर होता है, वह पिस जाता है। ऑनलाइन टैक्सी सर्विस प्रदाता कंपनियों के परिणाम हम देख चुके हैं। कैसे छह रुपये प्रति किलोमीटर से अब वे पंद्रह रुपये प्रति किलोमीटर तक किराया ले रही हैं। संसद में ये कानून पारित हो गए, पर किसान कह रहे है कि नए कानूनों में उनकी राय नहीं मांगी गई। मसला यह है कि जब तक आप कर्ज बाजार, श्रम बाजार, भूमि बाजार और उपज बाजार को नहीं ठीक नहीं करेंगे, तब तक कृषि क्षेत्र मुक्त बाजार नहीं बन सकता।
अब सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी बना दी। कमेटी के चारों सदस्य इन कानूनों के पक्ष में हैं। किसान शुरू से ही कह रहे थी कि हम किसी कमेटी के सामने नहीं जाएंगे, क्योंकि उनको पता था कि बात टल जाएगी। अदालत के सामने मामले को सुलझाने का यह एक बेहतर अवसर था, कि वह एक ऐसी कमेटी बनाती जिसमें निरपेक्ष लोग होते क्योंकि सरकार व किसान के बीच मामला अटक हुआ था। पर इसका उल्टा हो रहा है। आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि जिस कानून में बुनियादी खामियां हों, उसमें क्या बदलाव हो सकता है? ऐसे में सरकार को किसानों से कहना चाहिए कि हम इन कानूनों को अभी रोकते हैं। किसानों से बात करते हैं, राज्यों से बात करते हैं, फिर एक नया अध्यादेश बनाते हैं। फिर इन कानूनों को वापस लेकर नए कानून को पारित करा लेते हैं। अगर सही तरीके से एक कमेटी गठित हो, जिसमें पक्ष, विपक्ष व कुछ निरपेक्ष लोग हों, तब एक समाधान निकल सकता है। क्योंकि कानून तो संसद में ही बनेगा, उसे कोई कमेटी या अदालत नहीं बना सकती।
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