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संतों का वसंत है इन दिनों तीर्थराज प्रयाग में। तुलसी बाबा ने यों ही नहीं कहा- को कहि सकै प्रयाग प्रभाऊ। इंद्र-पुत्र जयंत की अनुकंपा से जो अमृत यहां छलका, उसका पुण्य न सिर्फ घर-गिरस्ती वाले कमा रहे हैं, बल्कि नाना प्रकार के बाबा भी लूट रहे हैं। बारह बरस बाद इलाहाबाद के दिन फिरे हैं। जित देखो तित संतई संता।
नाना प्रकार के बाबा के किसिम-किसम के अखाड़े। भव्यता के बौराये संत अपने-अपने नगाड़े पीट रहे हैं, जिसके कोलाहल में आस्था का मारा गृहस्थ ‘अपने सपनों का मेला’ तलाश रहा है। गंगा किनारे बसा यह लघु नगर लघुता का बोध नहीं कराता। विरक्त संतों ने तो भव्य कुटिया बना रखी है।
विदेशी गाड़ियां, आधुनिक संचार के उपकरण, अटैच्ड लैट्रीन-बाथरूम वाली स्विस कॉटेज वैराग्य और तपस्या को गौरव प्रदान करते हैं। चिंतन यह नहीं कि आत्मा और परमात्मा का संगम कैसे हो, बल्कि चिंता ये कि हमारी भव्यता कैसे अगले से अधिक रहे।
कोई बाबा एक पैर पर खड़ा है, तो कोई नाखून बढ़ाए हुए है, कोई वर्षों से तप में एक हाथ उठाए, तो कोई घुट मुंड बाबा, जिनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। ढके बाबा से लेकर नागा बाबा के बीच सबसे अनूठे ऊ-लाला के गवैया भप्पी दा से मेल खाते एक ‘गोल्डन बाबा’ भी इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज कराए हुए हैं। राजसी ठाठ में कथित ‘सात्विक चोला’। जय हो ओरिजिनल बाबा भोलेनाथ की।
पोतियों के जनमते ही मैं भी बाबा बन चुका हूं, लेकिन उम्र के इस पड़ाव में अखाड़ा बनाना नामुमकिन है। नई पीढ़ी के दांव-पेच के सामने पुरानी मान्यताओं की पहलवानी चित्त हो जाती है। मेले में पधारे बाबाओं की बात अलग है। वे अब भी हठ ठानते हैं और चिंतित रहते हैं कि उनके अखाड़े की पेशवाई और शाही स्नान बाकी से बेहतर कैसे हो।
यहां भारतीय साधना और संस्कृति का अदभुत कोलाज नजर आता है। माचिस की एक ही तीली से बीड़ी और गुग्गल जलाते पंडे, दान के लिए पिंड बनाने को विक्स की डिबिया से घी और पेप्सी की बोतल से गंगाजल निकालते ग्रामीण, यूरिया की बोरी में दान का आटा-चावल भरते पंडे और मोक्ष की इच्छा से डुबकी लगाते गृहस्थ।
गंगा, यमुना और अंतःसलिला सरस्वती का संगम सबके लिए है। बिग-बाजार की 'पहले आओ, पहले पाओ' वाली घोषणा यहां नहीं लागू होती। पुण्य बांटने की स्कीम नहीं चलाती हैं गंगा मैया। उनके तो दर्शन मात्र से मुक्ति मिलती है।
संतों का वसंत है इन दिनों तीर्थराज प्रयाग में। तुलसी बाबा ने यों ही नहीं कहा- को कहि सकै प्रयाग प्रभाऊ। इंद्र-पुत्र जयंत की अनुकंपा से जो अमृत यहां छलका, उसका पुण्य न सिर्फ घर-गिरस्ती वाले कमा रहे हैं, बल्कि नाना प्रकार के बाबा भी लूट रहे हैं। बारह बरस बाद इलाहाबाद के दिन फिरे हैं। जित देखो तित संतई संता।
नाना प्रकार के बाबा के किसिम-किसम के अखाड़े। भव्यता के बौराये संत अपने-अपने नगाड़े पीट रहे हैं, जिसके कोलाहल में आस्था का मारा गृहस्थ ‘अपने सपनों का मेला’ तलाश रहा है। गंगा किनारे बसा यह लघु नगर लघुता का बोध नहीं कराता। विरक्त संतों ने तो भव्य कुटिया बना रखी है।
विदेशी गाड़ियां, आधुनिक संचार के उपकरण, अटैच्ड लैट्रीन-बाथरूम वाली स्विस कॉटेज वैराग्य और तपस्या को गौरव प्रदान करते हैं। चिंतन यह नहीं कि आत्मा और परमात्मा का संगम कैसे हो, बल्कि चिंता ये कि हमारी भव्यता कैसे अगले से अधिक रहे।
कोई बाबा एक पैर पर खड़ा है, तो कोई नाखून बढ़ाए हुए है, कोई वर्षों से तप में एक हाथ उठाए, तो कोई घुट मुंड बाबा, जिनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। ढके बाबा से लेकर नागा बाबा के बीच सबसे अनूठे ऊ-लाला के गवैया भप्पी दा से मेल खाते एक ‘गोल्डन बाबा’ भी इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज कराए हुए हैं। राजसी ठाठ में कथित ‘सात्विक चोला’। जय हो ओरिजिनल बाबा भोलेनाथ की।
पोतियों के जनमते ही मैं भी बाबा बन चुका हूं, लेकिन उम्र के इस पड़ाव में अखाड़ा बनाना नामुमकिन है। नई पीढ़ी के दांव-पेच के सामने पुरानी मान्यताओं की पहलवानी चित्त हो जाती है। मेले में पधारे बाबाओं की बात अलग है। वे अब भी हठ ठानते हैं और चिंतित रहते हैं कि उनके अखाड़े की पेशवाई और शाही स्नान बाकी से बेहतर कैसे हो।
यहां भारतीय साधना और संस्कृति का अदभुत कोलाज नजर आता है। माचिस की एक ही तीली से बीड़ी और गुग्गल जलाते पंडे, दान के लिए पिंड बनाने को विक्स की डिबिया से घी और पेप्सी की बोतल से गंगाजल निकालते ग्रामीण, यूरिया की बोरी में दान का आटा-चावल भरते पंडे और मोक्ष की इच्छा से डुबकी लगाते गृहस्थ।
गंगा, यमुना और अंतःसलिला सरस्वती का संगम सबके लिए है। बिग-बाजार की 'पहले आओ, पहले पाओ' वाली घोषणा यहां नहीं लागू होती। पुण्य बांटने की स्कीम नहीं चलाती हैं गंगा मैया। उनके तो दर्शन मात्र से मुक्ति मिलती है।