मुकुंद लाठ का बिछोह कला-संस्कृति और साहित्य के चिंतन की उस समृद्ध परंपरा से बिछोह है, जो इस समय विलुप्त प्रायः है। पंडित जसराज के शिष्य मुकुंद लाठ भारतीय संगीत, नृत्य, नाट्य कला और साहित्य के इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान ही नहीं थे, बल्कि विरल शब्द साधक, गायक और चित्रकार भी थे। इधर पिछले कुछ समय से वह कैनवास पर अनुभूतियों का रंगाकाश रच रहे थे।
कुछ समय पहले जयपुर स्थित उनके निवास पर जब उनसे भेंट हुई, तो अपनी सिरजी बहुत-सी कलाकृतियां भी पहली बार एक साथ देखने को मिलीं। हाल के वर्षों में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह अनरहनी रहने दो तथा अंधेरे के रंग की आवरण कलाकृतियां स्वयं उनकी ही सिरजी हुई थीं। पौराणिक ग्रंथों और भारतीय संस्कृति पर चिंतन के साथ संगीत का उनका विमर्श अनुभव के अनूठे भाव में प्रवेश कराता है।
मुकुंद लाठ के चिंतन में संगीत की परंपरागत अवधारणाओं के बजाय विचार की बढ़त है। राग, धुन, आलाप की संगीत शब्दावली के सैद्धांतिक पक्ष के बजाय वह उसके वैचारिक अंतर्निहित में नया आलोक देते थे। उनसे बतियाना भी संस्कृति के मर्म में प्रवेश करना होता था। साहित्य और कलाओं के अछूते संदर्भों की उनके पास भरमार थी, तो जीवन से जुड़ी संवेदनाओं का काव्य राग भी उनके पास था। रजा फाउंडेशन ने कुछ समय पहले उनकी साहित्य और कलाओं का अनुशीलन भावन प्रकाशित किया था।
साहित्य, संस्कृति और कलाओं की भारतीय परंपरा को अपने मौलिक चिंतन से इसमें उन्होंने एक तरह से पुनर्नवा किया। काण्ट के दर्शन का तात्पर्य कृति में उन्होंने कृष्णचंद्र भट्टाचार्य के विचार स्वातंत्र्य को उन्होंने गहरी सूझ से व्याख्यायित किया, तो काव्याचार्य राजशेखर के दिए शब्द स्वीकरण के आलोक में प्राचीन शास्त्र और लोक के सुमधुर मेल की मौलिक गगनवट जैसी कृति हमें दी। बनारसीदास कृत भारत की पहली आत्मकथा अर्द्धकथानक की उनकी व्याख्या बहुत पहले प्रकाशित हुई थी, जो इधर फिर से नए रूप में छपकर आई थी। अज्ञेय ने कभी वत्सल निधि के तहत लेखकों के लिए भागवतभूमि यात्रा का आयोजन किया था।
यात्रा में मुकुंद जी भी साथ थे। अज्ञेय ने मुकुंद जी के होने को याद करते उनके गान पर भी तब बहुत कुछ कहा, अनुभूत करते उसे शब्दों में पिरोया था। मुकुंद जी संकोची थे और अपने बारे में बहुत कम कहते थे। पंडित जसराज जी के साथ, घर में उनकी पत्नी नीरजा लाठ के साथ और भी बहुत से अवसरों पर उनसे बतियाने का जब भी सुयोग होता, मन संपन्न होता, पर हर बार यह भी लगता कि संवाद कुछ और होता।
बहरहाल, मुकुंद जी ने देश-विदेश के कलाकारों की कलाकृतियां, वाद्य यंत्र और संस्कृति से जुड़ी वस्तुओं का दुर्लभ संग्रह किया था। एक दफा ‘सामगान’ पर उनसे लंबी चर्चा हुई थी। उन्होंने इसे प्राचीन संगीत ही नहीं, परवर्ती राग-संगीत का जनक बताया था। हमारे यहां चिंतन में संगीत कहीं नहीं दिखता, पर मुकुंद लाठ ने सदा ही अपनी मौलिक दृष्टि में इसे जीवंत किया। वह संगीत को परंपरागत सैद्धांतिक दायरों से बाहर निकाल उसमें विचार के नए उन्मेष जगाते रहे।
मुकुंद जी ने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को सर्वथा नवीन दृष्टि से व्याख्यायित किया, तो भारतीय कलाओं के इतिहास, संगीत, नृत्य और नाट्य के वह चिंतक थे। यह महज संयोग नहीं है कि उन्हें पढ़ते हुए परंपरा आधुनिकता में हमसे संवाद करती है। उनके चिंतन में कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े सृजन की संभावनाओं का वैसा ही सहज विस्तार है, जैसा भारतीय रागदारी में होता है। मुकुंद लाठ ने दत्तिल मुनि के ढाई सौ श्लोकों के संस्कृत के प्राचीन संगीत ग्रंथ दत्तिलम का अनुवाद और विवेचन किया, तो जैन व्यापारी और आध्यात्मिक कवि बनारसीदास की आत्मकथा का अनुवाद करते भारत में आत्मकथा लेखन का सूक्ष्म अध्ययन और विवेचन भी किया।
वीनांद कालावर्त के साथ निर्गुण कवि नामदेव के मूल पाठ का विस्तृत शोध एवं अनुवाद करते प्राचीनतम पाठ की गेय परंपराओं का सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने किया। पद्मश्री, प्रतिष्ठित शंकर पुरस्कार और नरेश मेहता वाङ्मय पुरस्कार से सम्मानित मुकुंद लाठ संगीत नाट्य अकादेमी के फेलो भी थे। उनका बिछोह भारतीय संस्कृति और कला के एक युग का अवसान है।
मुकुंद लाठ का बिछोह कला-संस्कृति और साहित्य के चिंतन की उस समृद्ध परंपरा से बिछोह है, जो इस समय विलुप्त प्रायः है। पंडित जसराज के शिष्य मुकुंद लाठ भारतीय संगीत, नृत्य, नाट्य कला और साहित्य के इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान ही नहीं थे, बल्कि विरल शब्द साधक, गायक और चित्रकार भी थे। इधर पिछले कुछ समय से वह कैनवास पर अनुभूतियों का रंगाकाश रच रहे थे।
कुछ समय पहले जयपुर स्थित उनके निवास पर जब उनसे भेंट हुई, तो अपनी सिरजी बहुत-सी कलाकृतियां भी पहली बार एक साथ देखने को मिलीं। हाल के वर्षों में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह अनरहनी रहने दो तथा अंधेरे के रंग की आवरण कलाकृतियां स्वयं उनकी ही सिरजी हुई थीं। पौराणिक ग्रंथों और भारतीय संस्कृति पर चिंतन के साथ संगीत का उनका विमर्श अनुभव के अनूठे भाव में प्रवेश कराता है।
मुकुंद लाठ के चिंतन में संगीत की परंपरागत अवधारणाओं के बजाय विचार की बढ़त है। राग, धुन, आलाप की संगीत शब्दावली के सैद्धांतिक पक्ष के बजाय वह उसके वैचारिक अंतर्निहित में नया आलोक देते थे। उनसे बतियाना भी संस्कृति के मर्म में प्रवेश करना होता था। साहित्य और कलाओं के अछूते संदर्भों की उनके पास भरमार थी, तो जीवन से जुड़ी संवेदनाओं का काव्य राग भी उनके पास था। रजा फाउंडेशन ने कुछ समय पहले उनकी साहित्य और कलाओं का अनुशीलन भावन प्रकाशित किया था।
साहित्य, संस्कृति और कलाओं की भारतीय परंपरा को अपने मौलिक चिंतन से इसमें उन्होंने एक तरह से पुनर्नवा किया। काण्ट के दर्शन का तात्पर्य कृति में उन्होंने कृष्णचंद्र भट्टाचार्य के विचार स्वातंत्र्य को उन्होंने गहरी सूझ से व्याख्यायित किया, तो काव्याचार्य राजशेखर के दिए शब्द स्वीकरण के आलोक में प्राचीन शास्त्र और लोक के सुमधुर मेल की मौलिक गगनवट जैसी कृति हमें दी। बनारसीदास कृत भारत की पहली आत्मकथा अर्द्धकथानक की उनकी व्याख्या बहुत पहले प्रकाशित हुई थी, जो इधर फिर से नए रूप में छपकर आई थी। अज्ञेय ने कभी वत्सल निधि के तहत लेखकों के लिए भागवतभूमि यात्रा का आयोजन किया था।
यात्रा में मुकुंद जी भी साथ थे। अज्ञेय ने मुकुंद जी के होने को याद करते उनके गान पर भी तब बहुत कुछ कहा, अनुभूत करते उसे शब्दों में पिरोया था। मुकुंद जी संकोची थे और अपने बारे में बहुत कम कहते थे। पंडित जसराज जी के साथ, घर में उनकी पत्नी नीरजा लाठ के साथ और भी बहुत से अवसरों पर उनसे बतियाने का जब भी सुयोग होता, मन संपन्न होता, पर हर बार यह भी लगता कि संवाद कुछ और होता।
बहरहाल, मुकुंद जी ने देश-विदेश के कलाकारों की कलाकृतियां, वाद्य यंत्र और संस्कृति से जुड़ी वस्तुओं का दुर्लभ संग्रह किया था। एक दफा ‘सामगान’ पर उनसे लंबी चर्चा हुई थी। उन्होंने इसे प्राचीन संगीत ही नहीं, परवर्ती राग-संगीत का जनक बताया था। हमारे यहां चिंतन में संगीत कहीं नहीं दिखता, पर मुकुंद लाठ ने सदा ही अपनी मौलिक दृष्टि में इसे जीवंत किया। वह संगीत को परंपरागत सैद्धांतिक दायरों से बाहर निकाल उसमें विचार के नए उन्मेष जगाते रहे।
मुकुंद जी ने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को सर्वथा नवीन दृष्टि से व्याख्यायित किया, तो भारतीय कलाओं के इतिहास, संगीत, नृत्य और नाट्य के वह चिंतक थे। यह महज संयोग नहीं है कि उन्हें पढ़ते हुए परंपरा आधुनिकता में हमसे संवाद करती है। उनके चिंतन में कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े सृजन की संभावनाओं का वैसा ही सहज विस्तार है, जैसा भारतीय रागदारी में होता है। मुकुंद लाठ ने दत्तिल मुनि के ढाई सौ श्लोकों के संस्कृत के प्राचीन संगीत ग्रंथ दत्तिलम का अनुवाद और विवेचन किया, तो जैन व्यापारी और आध्यात्मिक कवि बनारसीदास की आत्मकथा का अनुवाद करते भारत में आत्मकथा लेखन का सूक्ष्म अध्ययन और विवेचन भी किया।
वीनांद कालावर्त के साथ निर्गुण कवि नामदेव के मूल पाठ का विस्तृत शोध एवं अनुवाद करते प्राचीनतम पाठ की गेय परंपराओं का सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने किया। पद्मश्री, प्रतिष्ठित शंकर पुरस्कार और नरेश मेहता वाङ्मय पुरस्कार से सम्मानित मुकुंद लाठ संगीत नाट्य अकादेमी के फेलो भी थे। उनका बिछोह भारतीय संस्कृति और कला के एक युग का अवसान है।