"एक शोर में अगली सीट पे था
दुनिया का सबसे मीठा गाना
एक हाथ में मींजा दिल था मेरा
एक हाथ में था दिन का खाना।"
रघुवीर सहाय प्रगतिशील काव्यधारा 'नई कविता' के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी कविताओं का मूल स्वर यथार्थ का है, जो मूल रूप से आज़ादी के बाद के भारत का यथार्थ है। अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित 'दूसरा सप्तक' के कवि के रूप में रघुवीर सहाय की साहित्यिक परिवेश में बहुत चर्चा हुई। उनके साहित्य में पत्रकारिता का और उनकी पत्रकारिता पर साहित्य का गहरा असर रहा है। रघुवीर सहाय की चेतना पत्रकार की तथा संवेदना एक कवि की है। यही कारण है कि ख़बरों का और रोज़मर्रा की हलचल का बेहद नायाब प्रयोग उनकी कविता में दिखाई पड़ता है।
पत्रकारिता एवं साहित्य कर्म में रघुवीर सहाय कोई फ़र्क़ नहीं मानते थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने एक नई और क्रिएटिव भाषा गढ़ी। भाषा को लेकर एक ख़ास चेतना और अनूठा शिल्प रघुवीर सहाय की कविताओं की अपनी अलग पहचान बनाते हैं।
आधुनिक सभ्य समाज के लिए न्याय, समता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों में उनकी गहरी आस्था थी। उन्होंने जहां भी इसका अभाव देखा, उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई।
निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हंसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कहकर आप हंसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कहकर आप हंसे
कितने आप सुरक्षित होंगे मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हंसे
रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसंबर 1929 को लखनऊ में हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय से 1951 में उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य से एम.ए. किया। लखनऊ से प्रकाशित अख़बार 'दैनिक नवजीवन' से 1949 में पत्रकारिता की शुरुआत की। 1951 में दिल्ली आ गए और एक साल तक 'प्रतीक' में बतौर सहायक संपादक काम किया। इसके बाद 1957 तक वे आकाशवाणी के समाचार विभाग में उपसंपादक रहे। उन्होंने अपनी पहली कविता 1946 में लिखी थी।
कविता संग्रह 'लोग भूल गए हैं ' के लिए 1984 में रघुवीर सहाय को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बहुत से कवि साल दर साल अपने कविता संग्रह छपवाते चले जाते हैं क्योंकि वर्षों के अभ्यास के बाद कुछ न कुछ लिखते रहना आ ही जाता है, जो कविता के आवरण में कविता जैसा लगता है। वह ऐसे गद्यकार हैं, जो अपने मौलिक ढंग से सोचते-कहते हैं।
ऐसे हमारे पास गद्यकार पहले भी कम थे अब भी कम हैं। कई लोगों को जिनमें हिंदी के आलोचक भी शामिल हैं- उनके गद्य से शिकायत रही है। कुछ उसे जलेबीनुमा बताते हैं। जो इस तरह सोचते हैं, वे दरअसल उन चिंताओं तक नहीं पहुंच पाते, जो चिंताएं रघुवीर सहाय की थीं। वे सब कुछ सीधा सरल, बना बनाया माल चाहते थे, जो कि रघुवीर सहाय दे नहीं सकते थे। एक रचनाकार ऐसा कर ही नहीं सकता, वरना वह रचना क्या कर रहा है, प्रोडक्ट लॉन्च कर रहा है।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक रघुवीर सहाय की प्रतिनिधि कविताएं में संपादक सुरेश शर्मा लिखते हैं, "उनका काव्य उनके पत्रकार व्यक्तित्व से पैदा होता है। सहाय जी का सौंदर्यशास्त्र ख़बर का सौंदर्यशास्त्र है। इसलिए उनकी भाषा ख़बर की भाषा है और ज़्यादातर कविताओं की विषयवस्तु ख़बरधर्मी। वे अपनी कविताओं के विषय समाज में मुनष्य की बदलती जीव-स्थितियों में तलाशते हैं। भारतीय लोकतंत्र पद्धति में मतदाताओं की अरक्षित-असहाय ज़िंदगी की ख़बरें उन्होंने अपनी कविताओं में लिखी हैं।
फिर जाड़ा आया फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से लू से मरने की ख़बर आई
न जाड़ा ज़्यादा था न लू ज़्यादा
तब कैसे मरे आदमी
वे खड़े रहते हैं तब नहीं दिखते
मर जाते हैं तब लोग जाड़े और लू की मौत बताते हैं
ये वे ख़बरें हैं जो अख़बारी ख़बरों की विधागत सीमा के कारण वहां नहीं समा सकती थीं। ख़बरों का यह रूप कविता में ही अभिव्यक्त हो सकता था। रघुवीर सहाय की कविता में वक्तव्य है, विवरण है, संक्षेप है। उसमें प्रतीकों और बिंबों का घटाटोप उलझाव नहीं है। वे निहायत ही पारदर्शी भाषा का इस्तेमाल करते थे।
सहाय जी की एक कविता है, 'वह कौन था' -
"वह जनसभा न थी राष्ट्रीय दिवस था
एक बड़े राष्ट्र का
कितने आरामदेह होते हैं अन्य बड़े राष्ट्रों के
राष्ट्रदिवस दिल्ली में
एक मंत्री भीड़ के बीच खोया सा सहसा मिल गया मुझे
देखते ही बोला-- अच्छे हो!
मैंने कहा-- हुज़ूर ने पहचाना!
तब कहने लगा जैसे यही पहचान हो
तुम अभी संकट से मुक्त नहीं हुए हो
फिर जैसे शक हो गया हो कि भूल की--
क्षण भर घूरा मुझे
बोला-- कल मेरे पास आना तब बाक़ी बताऊँगा
जाने कौन व्यक्ति था जिसको इसने मुझे समझा।"
लिखने का कारण पुस्तक में वे लिखते हैं, "पत्रकार और साहित्यकार में कोई अंतर है क्या? मैं मानता हूं कि नहीं है। इसलिए नहीं कि साहित्यकार रोज़ी के अख़बार में नौकरी करते हैं, बल्कि इसलिए कि पत्रकार और साहित्यकार दोनों नए मानव संबंधों की तलाश करते हैं। दोनों ही दिखाना चाहते हैं कि दो मनुष्यों के बीच नया संबंध क्या बना। पत्रकार तथ्यों को जुटाता है और उन्हें क्रमबद्ध करते हुए उन्हें उस परस्पर संबंध से नहीं अलग नहीं करता जिससे वे जुड़े हुए और क्रमबद्ध हैं। उसके उपर तो यह लाज़िमी होता है कि वो आपको तर्क से विश्वस्त करे कि यह हुआ तो यह इसका कारण है, ये तथ्य हैं और ये समय, देश, काल परिस्थिति आदि हैं जिनके कारण ये तथ्यों पूरे होते हैं। साहित्यकार इससे अलग कुछ करता है। साहित्यकार के लिए तथ्यों की जानकारी उतनी ही अनिवार्य है जितनी पत्रकार के लिए। लेकिन तथ्यों के परस्पर संबंध को जानबूझकर तोड़कर साहित्यकार उसे नए सिरे से क्रमबद्ध करता है, और इस तरह से नए संपूर्ण सत्य को रचता है, जो एक नया यथार्थ है। एक संभव यथार्थ। पत्रकार के लिए यथार्थ वही है जो संभव हो चुका है। साहित्यकार के लिए वह है जो संभव हो सकता है।"
रघुवीर सहाय की समूची काव्य-यात्रा का उद्देश्य ऐसी जनतांत्रिक व्यवस्था बनाना है जिसमें शोषण, अन्याय, हत्या, आत्महत्या, विषमता, दासता, राजनीतिक संप्रभुता, जाति-धर्म में बंटे समाज के लिए कोई जगह न हो। जिन आशाओं और सपनों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी उन्हें साकार करने में जो बाधाएं आ रही हों, उनका लगातार विरोध करना उनका रचनात्मक लक्ष्य रहा है।
रघुवीर सहाय हर तरह की ग़ैरबराबरी का विरोध करते हैं। वे लिखते हैं, "अगर इंसान और इंसान के बीच एक ग़ैरबराबरी का रिश्ता है और उस रिश्ते को कोई आदमी मानता है कि ऐसे ही रहना चाहिए, तो वह कोई रचना नहीं कर सकता।" आजादी के बाद के भारतीय समाज में ग़ैरबराबरी के सामंती मूल्य की बहुत ही बारीक़ी से पड़ताल करते हैं, क्योंकि ग़ैरबराबरी की चेतना बने रहने से लोकतंत्र का विकास नहीं हो सकता और अधिनायकवाद के पनपने के लिए ज़मीन तैयार होती है। ‘अधिनायक’ कविता में वे लिखते हैं,
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है
सहाय जी की के काव्य संसार में अगर समाज की परेशान ज़िंदगी का हाल दर्ज है तो मानव मन की सहज प्रवृतियों जैसे प्रेम, हास्य, व्यंग्य और करुणा की अभिव्यक्ति भी है। प्रकृति को उन्होंने गहरी ऐंद्रिकता के साथ चित्रित किया है। 1954 में लिखी उनकी कविता बौर को देखिए,
"नीम में बौर आया
इसकी एक सहज गंध होती है
मन को खोल देती है गंध वह
जब मति मंद होती है
प्राणों ने एक और सुख का परिचय पाया"
"कौंध । दूर घोर वन में मूसलाधार वृष्टि
दुपहर : घना ताल : ऊपर झुकी आम की डाल
बयार : खिड़की पर खड़े, आ गई फुहार
रात : उजली रेती के पार; सहसा दिखी
शान्त नदी गहरी
मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं।"
"क्या होगा इस कभी-कभी के मधुर मिलन की घड़ियों का
जीवन की टूटी-टूटी इन छोटी-छोटी कड़ियों का
कैसे इनकी विशृंखलता मुझको-तुझको जोड़ेगी
क्या कल नाता वही जुड़ेगा आज जहा यह तोड़ेगी?"
दूसरा सप्तक, सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हंसो हंसो जल्दी हंसो (कविता संग्रह), रास्ता इधर से है (कहानी संग्रह), दिल्ली मेरा परदेश और लिखने का कारण (निबंध संग्रह) सहाय जी की प्रमुख कृतियां हैं।
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5 months ago
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