तब मैं अपने झंडे गाडूं
फहर रही जो इनकी उनकी यश की ध्वजा उखाडूँ
रात दिवस ये सोचूं सबके बनते काम बिगाडूं
खुद का काम बनाने वाले मौके पल में ताडूं
दुखियारी आंखों में पढ़कर फौरन पल्ला झाडूं
साथ आंधियां दे दें फिर तो बसते नगर उजाडूं
अड़ा फ़टी में टांग फ़टी को चिथड़े चिथड़े फाडूं
- संजय नारायण
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