चौकन्ने को ही भटकाता चकाचौंध का खटका।
आँख मूँद कर पार हो गया आँख खोलकर अटका।
मैंने देखा शांत सरोवर
तट पर शांत खड़े थे तरुवर
जिनके शांत बिम्ब थे जल में
केवल मीन दिखी हलचल में
मझा मझाकर दशों दिशाएँ मार रही थी झटका।
मानो मान रही थी खुद को गहन विपिन में भटका।।
- संजय नारायण
- हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें