कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव ।
भावै गुरु की भक्ति करूं, भावै विषय कमाव ।।
अनुवाद: गुरु कबीर जी कहते हैं कि मन तो एक ही है, जहाँ अच्छा लगे वहाँ लगाओ। चाहे गुरु की भक्ति करो, चाहे विषय विकार कमाओ।
कबीर मनहिं गयन्द है, अंकुश दै दै राखु ।
विष की बेली परिहारो, अमृत का फल चाखु ।।
अनुवाद: मन मस्ताना हाथी है, इसे ज्ञान का अंकुश देकर अपने वश में रखो और विषय - विष - लता को त्यागकर स्वरूप - ज्ञानामृत का शान्ति फल चखो।
मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक।
जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक।।
अनुवाद: मन के मत में न चलो, क्योंकि मन के अनेको मत हैं। जो मन को सदैव अपने अधीन रखता है, वह साधु कोई विरला ही होता है।
मन के मारे बन गये, बन तजि बस्ती माहिं।
कहैं कबीर क्या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं ।।
अनुवाद: मन की चंचलता को रोकने के लिए वन में गये, वहाँ जब मन शांत नहीं हुआ तो फिर से बस्ती में आ गये। गुर कबीर जी कहते हैं कि जब तक मन शांत नहीं होगा, तब तक तुम क्या आत्म - कल्याण करोगे।
मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक है जाय।
विष की क्यारी बोय के, लुनता क्यों पछिताय।।
अनुवाद: जी चाहता है कि मन को पटक कर ऐसा मारूँ, कि वह चकनाचूर हों जाये। विष की क्यारी बोकर, अब उसे भोगने में क्यों पश्चाताप करता है?
मन दाता मन लालची, मन राजा मन रंक।
जो यह मन गुरु सों मिलै, तो गुरु मिलै निसंक ।।
अनुवाद: यह मन ही शुद्धि - अशुद्धि भेद से दाता - लालची, उदार - कंजूस बनता है। यदि यह मन निष्कपट होकर गुरु से मिले, तो उसे निसंदेह गुरु पद मिल जाय।
मनुवा तो पंछी भया, उड़ि के चला अकास ।
ऊपर ही ते गिरि पड़ा, मन माया के पास ।।
अनुवाद: यह मन तो पक्षी होकर भावना रूपी आकाश में उड़ चला, ऊपर पहुँच जाने पर भी यह मन, पुनः नीचे आकर माया के निकट गिर पड़ा।
मन पंछी तब लग उड़ै, विषय वासना माहिं।
ज्ञान बाज के झपट में, तब लगि आवै नाहिं ।।
अनुवाद: यह मन रूपी पक्षी विषय - वासनाओं में तभी तक उड़ता है, जब तक ज्ञान रूपी बाज के चंगुल में नहीं आता; अर्थात ज्ञान प्राप्त हो जाने पर मन विषयों की तरफ नहीं जाता।
मनवा तो फूला फिरै, कहै जो करूँ धरम।
कोटि करम सिर पै चढ़े, चेति न देखे मरम ।।
अनुवाद: मन फूला - फूला फिरता है कि में धर्म करता हूँ। करोड़ों कर्म - जाल इसके सिर पर चढ़े हैं, सावधान होकर अपनी करनी का रहस्य नहीं देखता।
मन की घाली हूँ गयी, मन की घालि जोऊँ।
सँग जो परी कुसंग के, हटै हाट बिकाऊँ ।।
अनुवाद: मन के द्वारा पतित होके पहले चौरासी में भ्रमा हूँ और मन के द्वारा भ्रम में पड़कर अब भी भ्रम रहा हूँ। कुसंगी मन - इन्द्रियों की संगत में पड़कर, चौरासी बाज़ार में बिक रहा हूँ।
महमंता मन मारि ले, घट ही माहीं घेर ।
जबही चालै पीठ दे, आँकुस दै दै फेर ।।
अनुवाद: अन्तः करण ही में घेर - घेरकर उन्मत्त मन को मार लो। जब भी भागकर चले, तभी ज्ञान अंकुश दे - देकर फेर लो।
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6 months ago
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