दीपाली अग्रवाल काव्य डेस्क, नई दिल्ली
खादी रंग की शर्ट पर आशिक़नुमा नीले रंग का स्कार्फ़ पहने एक युवक अपनी प्रेमिका के साथ कभी गाड़ी में घूमता है तो कभी समंदर किनारे बैठ जाता है। आंखों में प्रीत है, ज़ुबां पर गीत और हाथ में उस गाड़ी का स्टीयरिंग है जो उन्हें अतीत और भविष्य के तमाम जंजाल से निकालकर वर्तमान का भ्रमण करवा रही है। गाड़ी की कमान संभाले वह पीछे की सीट पर बैठी अपनी महबूबा को मोहब्बत के अलंकार में सजा रहा है।
आंखों की प्रीत की तो व्याख्या नहीं हो सकती कि जिस प्रेम को शब्दों की परिधि में बांधा जा सके वह जीवन को उन्मुक्त कैसे करेगा। लेकिन जो गीत वह गा रहा है उस पर चर्चा की जा सकती है, गीत में मन के एहसास बयां होते हैं। इससे ख़ूबसूरत सीरत की बयानगी और क्या होगी।
यहां जिस माशूक की दिल्लगी की कैफ़ियत बयां की गयी है वह फ़िल्म ‘हंसते ज़ख़्म’ का है। जो गीत वह गा रहा है उसमें दिल का ब्यौरा अपनी प्रेमिका को दे रहा है, गीत है ‘तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है ये जहां मिल गया है।’
1973 में आयी इस फ़िल्म के गीत को लिखने वाले हैं मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी, संगीत मदनमोहन का है और गायन से कर्णप्रिय रस घोलने वाले हैं मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर।
आसमान में बारिश की अलामत हो, सफ़र तवील हो और प्रेमिका का साथ हो। तो क्यूं न किसी महबूब को लगेगा कि उसे सारा जहां मिल गया इसी वक़्त, इसी सफ़र में। कि जहां के सारे रास्ते प्रेम तक ही तो जाते हैं, प्रेम ही मंज़िल है और प्रेम ही सफ़र अब चाहें भटक पहुंचे या किसी नक्शे के सहारे। सो इस गीत का किरदार भी कम-अज़-कम इस गाने में अपनी क़िस्मत तक पहुंच गया है।
चित्रण के सिवा नेपथ्य में भी गाने के साथ दिलचस्प बात है कि संगीतकार मदन की टीम में शामिल थे मशहूर गिटारवादक भूपिंदर सिंह। गीत की शुरुआत गिटार के 12 स्टिंग के साथ होती है लेकिन रिकॉर्डिंग के दौरान भूपिंदर अटक गए थे। उन्होंने गिटार को कुछ इस तरह संगीतबद्ध किया था कि उन्हें एक साथ 2 नोट्स संभालने थे। लेकिन उनका हाथ हर बार स्टिंग पर जा रहा था।
लता जी और रफ़ी साहब माइक पर तैयार थे, इससे भूपिंदर बेहद बेचैन हो गए। इस बेचैनी की परिणाम यह हुआ कि उनसे और भी ग़लती होने लगी। लेकिन किसी ने उनसे एक शब्द भी नहीं कहा। बरअक्स सही नोट का इंतज़ार किया। आख़िरकार सही नोट लगा और रिकॉर्डिंग पूरी हो गयी।
इसके बाद भूपिंदर ख़ुद पर बहुत नाराज़ हुए कि वह इतनी बड़ी ग़लती कैसे कर सकते हैं। वह अपना गिटार बंद ही कर रहे थे कि किसी ने उनकी पीठ पर मुक्के मारने शुरु किए। देखा तो वह मदन जी थे, उन्होंने कहा कि - “जाओ और एक बार रिकॉर्डिंग सुनो, तुमने मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा अच्छा काम किया है”।
बहरहाल, वापस चलते हैं नग़मे की ओर। आप पढ़ें कैफ़ी साहब के लिखे बोल और मदन जी का संगीत, फिर रफ़ी साहब और लता जी की चाशनी का बोनस तो है ही।
तुम जो मिल गए हो, तो ये लगता है
कि जहां मिल गया
एक भटके हुए राही को, कारवां मिल गया
बैठो न दूर हमसे, देखो ख़फ़ा न हो
क़िस्मत से मिल गए हो, मिलके जुदा न हो
मेरी क्या ख़ता है, होता है ये भी
कि ज़मीं से भी कभी आसमां मिल गया
तुम क्या जानो तुम क्या हो, एक सुरीला नग़्मा हो
भीगी रातों में मस्ती, तपते दिल में साया हो
अब जो आ गए हो जाने न दूंगा
कि मुझे इक हसीं मेहरबां मिल गया
तुम भी थे खोए-खोए, मैं भी बुझा-बुझा
था अजनबी ज़माना, अपना कोई न था
दिल को जो मिल गया है तेरा सहारा
इक नई ज़िंदगी का निशां मिल गया
अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली