साहिर लुधियानवी आज होते तो 100 बरस के होते लेकिन फ़नकार की उम्र कब होती है। वो उतना लंबा ज़िंदा होता है जितना उसका फ़न। जितनी दफ़ा आप सुनेंगे फ़िल्म प्यासा के गीत या कभी-कभी की नज़्म, साहिर ही तो कान में गूंजेंगे। बल्कि जितनी बार आप उन बोलों की तारीफ़ करेंगे जिन्हें साहिर ने लिखा, वो फिर ज़िंदा होंगे अपनी कलम के साथ आपके मन के भीतर।
सच, अगर इसी को कलाकारों की उम्र का पैमाना माने जाए तो साहिर अभी युगों तक ज़िंदा रहने वाले हैं। साहिर का जन्म 8 मार्च 1921 को हुआ और 25 अक्टूबर 1980 को मौत। दुनिया को अलविदा कहे चार दशक से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन आज भी नए गीतकारों से पूछें तो वे तपाक से साहिर का ही नाम लेते हैं। अतिशयोक्ति न होगी जो मैं कहूं कि साहिर गीतकारों की धरती की वो फ़लक हैं जिसके तले बैठकर कितने शजर अपने आप को बड़ा होते देखना चाहते हैं।
ऐसा फ़लक जिसके पास हर मौसम में देने के लिए कुछ न कुछ था। जितने रूमानी, उतने रूहानी, दार्शनिक जो एक पल कहता है कि
‘ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मकाम पे लाता चला गया’
तो दूसरे पल कहता है कि
‘संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक में भी पछताओगे’
साहिर का बचपन तल्ख़ियों से भरा था, ग़ालिबन इसलिए ही उनकी किताब का उनवान भी यही रहा। कितनी तल्ख़ियां थी, इस पर तो तमाम पन्ने भरे हुए हैं मसलन ज़मींदार पिता की ज़्यादती और मां के साथ बीता बचपन। लेकिन इनका नतीजा ये रहा कि उन्होंने सब-कुछ अपनी स्याही में भर दिया। उनके दो शेर हैं, यही बात कहते हैं।
‘दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं’
दूसरा यूं है कि
‘हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत
देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम’
साहिर ताउम्र अकेले रहे। इतना बड़ा गीतकार जिसके प्यार के चर्चे ख़ूब रहे चाहें सबसे मशहूर अमृता प्रीतम के साथ और सुधा मल्होत्रा के साथ उसने शादी नहीं की।
'महफ़िल से उठ जाने वालो तुम लोगों पर क्या इल्ज़ाम
तुम आबाद घरों के वासी मैं आवारा और बदनाम'
इस गीत को अमृता से जोड़ा गया और
'चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों' को सुधा मल्होत्रा के साथ।
ज़िंदगी के हादसों को गीतों में ढालने वाले साहिर का असल सच क्या था, यह राज़ तो उन्हीं के साथ दफ़्न है। प्रेम-संबंधों के अलावा एक औरत जो साहिर की ज़िंदगी में सबसे अहम रही। जिस पर होते ज़ुल्म को उन्होंने सबसे क़रीब से देखा, जिसके पसीने की मेहनत से साहिर के भीतर ख़ून के क़तरे बने वो थी उनकी मां।
साहिर अकेले होने से डरते थे, हर वक़्त अपने आस-पास दोस्तों की महफ़िल जमाए रहते। लेकिन महफ़िल कितनी देर, कुछ घंटे। उनके बाद मां ही थीं जो उनका सहारा थीं। वे दोस्तों से संजीदा बात करते, जो बात अच्छी लगती उसे फ़ौरन जाकर मां को कह सुनाते।
साहिर, लगभग 6 फुट की शख़्सियत जिनके बारे में दोस्त कहते हैं कि उन्हें पार्टी के लिए कपड़े पहनने का शऊर नहीं था। लेकिन सोचें कि इसी शख़्स के लिए बी.आर. चोपड़ा ने अपने बंगले का एक हिस्सा इसलिए दिया कि वे जब चाहें वहां आकर कुछ भी लिखें।
साहिर का क़द महज़ 6 फुट नहीं था, जिसे कपड़े पहनने का शऊर नहीं उसने दुनिया को वे गीत दिए जिन्हें गुनगुना कर लोग अदब की बात करते हैं। 100 साल जिस्म भले न ज़िंदा रहे लेकिन फिर भी कैसे होता है युगों का सफ़र साहिर बताते हैं। साहिर के बारे में और जानना है तो उनके लिखे गीत सुनें और पढ़ें उनकी नज़्में, ग़ज़लें। ज़िंदगी को कपड़ों के शऊर से नहीं कलम से कैसे बड़ा बनाया जाता है, तुम जानोगे ऐ दुनिया वालों।
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6 months ago
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