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जब निदा फ़ाज़ली ने चली चाल और ख़ुमार बाराबंकवी ने डिप्टी कमिश्नर को लताड़ा

khumar barabankvi scuffle with deputy commissioner
                
                                                                                 
                            
'अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं 

मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं 

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से 
ये क्यूं घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं' 


कुछ शायर मुशायरों में ऐसे होते हैं जिनकी मौजूदगी मुशायरे की कामयाबी की सनद मानी जाती है। ऐसे ही एक शायर थे ख़ुमार बाराबंकवी। वह जिस मुशायरे में अपना कलाम पेश करते दर्शक और श्रौताओं को अपना प्रशंसक बना लेते। 20 सितंबर 1919 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में पैदा हुए ख़ुमार बाराबंकवी का असली नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था। शराब के शौक़ीन और मधुर आवाज़ के मालिक ख़ुमार मुशायरों में तरन्नुम में पढ़ना पसंद करते थे। ख़ुमार की मधुर आवाज़ सुनकर लोग उन्हें बड़े ग़ौर से सुनते थे। लेकिन एक बार राजस्थान में मुशायरे के लिए गए ख़ुमार के साथ कुछ ऐसा हुआ कि बात गाली-गलौज से लेकर हाथापाई तक आ गई। दरअसल, इस क़िस्से की शुरुआत शायर निदा फ़ाज़ली से होती है और अंत खु़मार बारबंकवी पर। 

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित संस्मरण 'चेहरे' में निदा फ़ाज़ली लिखते हैं, "मज़ाक-मज़ाक में उस दिन 'ख़ुमार' साहिब की शेरवानी के दो बटन शहीद हो गए थे। इसका मुझे अफ़सोस था। हुआ यों राजस्थान के ख़ूबसूरत शहर उदयपुर में मुशायरा था। कुछ शायर आ चुके थे, कुछ आने वाले थे। मैं होटल के एक कमरे में हिन्दी, उर्दू के मुकामी अदीबों और शायरों और पत्रकारों से बातचीत में मसरूफ़ था कि इतने में बुलंद क़ामत, मोटा ताज़ा शख़्स पुलिस अॉफ़िसर की वर्दी में अंदर दाखिल हुआ और मुझसे निहायत बेतकल्लुफ़ी से तू-तकार के लहजे में बात करने लगा। 

"क्यों भाई कैसा है तू? अच्छा हुआ तू आ गया, लगता है, मुझे नहीं पहचान रहा बेटा। अबे ग़ौर से देख मैं तेरे वालिद का दोस्त हूं। मेरा नाम अहमद जमाल है। डिप्टी पुलिस कमिश्नर अहमद जमाल। तेरा बाप मेरा लंगोटिया यार था तुझे मैंने नंगा घूमते देखा है। पजामा पहनना तो बाद में सीखा तू,...।" 

अहमद जमाल का तू-तकार का लहजा मुझे अच्छा नहीं लगा। वह भी दूसरों के सामने। वालिद का हवाला सुनकर मैं ख़ामोश था और यूं भी वे अब इतनी दूर जा चुके थे कि उनसे अब कुछ मालूम नहीं किया जा सकता था। मालूम करने के लिए ख़ुद को नामालूम करना था। जिस बचपन का वो ज़िक्र फरमा रहे थे वह अब किसे याद था? हालांकि, इस हवाले के बावजूद मैं उन्हें पहचान नहीं पा रहा था। मेरे प्रशंसकों के सामने उनके बातचीत के अंदाज़ ने मुझे उलझन में डाल दिया। मैं अपने ग़ुस्से को छुपाना भी चाहता था और उन पर अपनी अहमियत जताना भी चाहता था। अच्छा हुआ वे दो-तीन-चार जुमले बोलकर चले गये। मैंने फ़राग़त की सांस ली, लेकिन वे थोड़ी देर बार फिर ड्राइंग रूम में नज़र आ गए और फिर वही बेतकल्लुफी़ अबे-तबे वाली!" 
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डिप्टी कमिश्नर का अबे-तबे वाला लहजा ख़ुमार बाराबंकवी के आने के बाद रुका

3 weeks ago

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