ओम थानवी अपने संस्मरण छायारूप में अज्ञेय को याद करते हुए लिखते हैं कि अज्ञेय को अपना नाम पसंद नहीं था। ओम थानवी लिखते हैं कि
उनके हाथ से जो पांडुलिपि तैयार हुई, हरेक पर 'अज्ञेय' लिखा रहता था। मुझे उनकी कुछ किताबें उन्हीं के हाथों भेंटस्वरूप पाने का पाने का सौभग्य मिला है। उन सब पर 'अज्ञेय' ही लिखा है। उद्धरण-चिह्न में। उन्हें फोन पर पूछा जाता कि अज्ञेय जी हैं, तो जवाब होता : नहीं, मैं वात्स्यायन बोल रहा हूँ! यह उनकी चुहल होती थी। वे अपने रचनाकार रूप का नाम 'अज्ञेय' स्वीकार कर चुके थे, लेकिन व्यक्ति के नाते सच्चिदानंद वात्स्यायन थे! इतना ही नहीं, कविता-कथा यानी रची हुई कृति तो 'अज्ञेय' नाम से छपवाते थे; पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखे लेख, विचार-मंथन या आलोचना आदि सब असल नाम से।लेकिन यह भी सच है कि उपनाम ने उनके जीते-जी हिंदी समाज में असल नाम की प्रतिष्ठा पा ली थी। उनके उद्धरण-चिह्न देखते-न-देखते निरर्थक हो गए।
अब यह बात जगजाहिर है कि किस तरह विकट परिस्थिति में यह नाम उनके पल्ले अनचाहे आ पड़ा। दिल्ली जेल (1930-1933) में लिखी 'साढ़े सात कहानियाँ' वात्स्यायन जी ने वहीं से जैनेंद्र कुमार को भिजवाई, आगे जागरण और विशाल भारत के संपादक प्रेमचंद ओर बनारसीदास चतुर्वेदी को पहुँचाने के लिए। प्रेमचंद को दो राजनीतिक कहानियाँ पसंद आई। पर उन पर कोई नाम नहीं था। पहले उन्हें संशय हुआ कि अनाम कहानियाँ कहीं खुद जैनेंद्र जी की न हों। उन्होंने पूछा तो जैनेंद्र जी ने लेखक का नाम 'अज्ञेय' बताया, यानी लेखक ऐसी परिस्थिति में नहीं है कि नाम उजागर किया जा सके। बाद में प्रेमचंद ने ही निर्णय किया कि लेखक की जगह 'अज्ञेय' नाम लिख दिया जाए। और 'अमरवल्लरी' कहानी उन्होंने जागरण में इस 'नाम' से प्रकाशित कर दी।
लेकिन कोई तीन दशक पहले, 1981 में, दिल्ली में मुझे अपने घर के 'जंगल' की सैर कराते हुए अज्ञेय जी ने जब बड़े सहज भाव से कहा कि ऐसा 'बेहूदा' नाम वे खुद कभी न रखते, बल्कि किसी तरह का उपनाम ही न रखते तो मैं चौंक गया था।
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