अदम गोंडवी को याद करना मेरे लिए हमेशा ही एक अजीब सी अतृप्त अनुभूति होती है। मेरा पहला परिचय उनसे उत्तर प्रदेश के इटावा में एचएमएस इस्लामिया इंटर कॉलेज कैंपस में हुआ था। कॉलेज को यूनेस्को से मान्यता हासिल थी और मैं वहां 11वीं का छात्र था। साल था 1982 और मैं कविताएं लिखने लगा था। कुछ कविताएं और गीत इटावा के अख़बारों में छपने भी लगे थे। मेरा एक प्रगाढ़ मित्र बना, जिसका नाम था अशोक अंबर। अशोक के ज़रिए इटावा के साहित्यिक व्यक्तित्वों से मिलने-जुलने का मौक़ा मिलने लगा था। साहित्यिक गतिविधियों में आना-जाना होने लगा था।
जब आप किसी एक को याद करते हैं, तब यादों की कई अदृश्य, अनोखी अतीत की बहुत सी कड़ियां-लड़ियां खुलने लगती हैं। रामनाथ सिंह अदम गोंडवी को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए मैं जब पीछे पहुंच ही गया हूं, तो उस दौर का थोड़ा सा ज़िक्र लाज़िमी है। उस समय इटावा में राधा वल्लभ दीक्षित सबसे उम्रदराज़ कवि थे। हम नौजवानों को उनका सानिध्य बहुत प्रिय था। वल्लभ जी शहर की मशहूर हस्तियों में शुमार थे। एक कोठरी में रहते थे। अशोक अंबर उनकी सेवा करता था। खाने-पीने के ध्यान के अलावा वो उनके कपड़े-लत्ते भी धो दिया करता था। वल्लभ जी की हालत ये थी कि कभी एक पैर में कोई चप्पल और दूसरे में कोई। हमने उन्हें कई बार चप्पलें दिलाईं।
वल्लभ जी बड़े क्रांतिकारी कवि थे। उनके लिखे सात गीत अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित किए थे। उन्हें गाने पर गिरफ़्तारी हो जाती थी। जो लोग उन गीतों को गाने पर पकड़े गए, वे कालांतर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कहलाए, आजीवन पैंशन और दूसरी सुविधाओं के हक़दार बने, लेकिन वल्लभ जी ने ये सब मंज़ूर नहीं किया। विडंबना की बात ये है कि देश आज़ाद होने पर उत्तर प्रदेश सरकार ने आज़ादी के गीतों का संकलन प्रकाशित किया, तो वल्लभ जी के वे सात गीत ‘अज्ञात’ नाम से प्रकाशित हुए। उनमें से एक-दो गीतों की शुरुआती लाइनें मुझे आज भी याद हैं-
“जब रण करने को निकलेंगे स्वतंत्रता के दीवाने,
धरा धंसेगी, प्रलय मेचेगी, व्योम लगेगा थर्राने।”
और
“देश प्रेम का मूल्य प्राण है, देखें कौन चुकाता है,
देखें कौन सुमन शैया तज कंटक पथ अपनाता है।”
वल्लभ जी और दामोदर विनायक सावरकर के बीच पत्राचार का लंबा सिलसिला चला था। लेकिन कोठरी में आग लग जाने की वजह से वीर सावरकर के सारे पत्र स्वाहा हो गए। इस पर वल्लभ जी बहुत दुखी हुआ करते थे। एक क़िस्सा वे हमें सुनाया करते थे कि किस तरह कानपुर में जवाहर लाल नेहरू की सभा उन्होंने लूट ली थी। हुआ ये कि भीड़ जुट चुकी थी और नेहरू के आने में देर हो रही थी। वल्लभ जी को वहां देखकर आयोजकों ने भीड़ को बांधे रखने के लिए गीत सुनाने के लिए आमंत्रित कर लिया। वल्लभ जी शुरू हो गए। गीत का मुखड़ा ही निकला था कि लोगों का मूड एकदम बदल गया। मुखड़ा इस तरह था-
“हज़ारों लाल जवाहर
सावरकर तुझ पर न्यौछावर सावरकर…”
गीत सुनकर भीड़ नेहरूमय होने की बजाए सावरकरमय हो गई और आयोजकों के पसीने छूट गए। बहरहाल, नेहरू आए, लेकिन भीड़ ने उन्हें ठंडे मन से ही सुना, जोश नहीं दिखाया। हम लोगों ने चंदा करके उनके गीतों का संकलन ‘राष्ट्रवाणी’ नाम से 1982 या 83 में प्रकाशित कराया था। मुझे याद है कि मेरा परिवार इटावा पुलिस लाइन में रहता था, जो शहर से थोड़ी दूरी पर थी। अशोक अंबर वल्लभ जी को लेकर मेरे घर आया और उन्होंने ‘राष्ट्रवाणी’ संकलन अपने कांपते हाथों से हस्ताक्षर कर मुझे दिया, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई थी। वल्लभ जी की वह किताब आज भी मेरी अल्मारी में सहेज कर रखी हुई है। अशोक अंबर ने चंदा करके ही इटावा ज़िले के सारे कवियों का एक संकलन भी प्रकाशित कराया था ‘जनपद के सुमन’ शीर्षक से। हम लोगों ने यमुना किनारे एक बैठक बुलाकर ‘सत्साहित्य संचरना समिति’ बनाई थी, जिसके बैनर तले कार्यक्रम किए जाते थे। उस वक़्त आचार्य राम शरण शास्त्री, आचार्य इंदु, लोकगीतों के अनोखे चितेरे रमन जी, ओजपूर्ण वाणी के स्वामी राम प्रकाश जी, अनूठे अंदाज़ के बग़ावती कवि विजय सिंह पाल, मैनपुरी के लाखन सिंह भदौरिया ‘सौमित्र’, दीन मोहम्मद ‘दीन’ और कई युवा साथी हमारी 24 घंटे की पहुंच में रहते थे। पोस्टकार्ड और अंतर्देशी लिफ़ाफ़ों से विचारों, रचनाओं का आदान-प्रदान होता था। अशोक अंबर का असमय निधन हो गया। वयोवृद्ध वल्लभ जी भूलोक छोड़ गए। शेष विभूतियों से गाहे-ब-गाहे आज भी बातचीत हो जाती है या उनके बारे में दूसरों से सुनने को मिल जाता है।
देखिए वही होने लगा, जो मैंने शुरूआती लाइनों में लिखा है। अमृत का कोई एक उत्स फूटता है, तो बहुत से अदृश्य स्रोतों से अतीत के बक्सों में बंद अंधेरों से रौशनी की जगमग करती अजस्र धाराएं फूटने लगती हैं। इटावा में होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों की कड़ी में एक बड़ा आयोजन 1982 में इस्लामिया इंटर कॉलेज में हुआ। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान की अर्धशताब्दी पर वो आयोजन दो या तीन दिन का था, अब याद नहीं है। उसमें ही एक शाम को हमने अदम गोंडवी को पहली बार सुना।
ओजस्वी अंदाज़ में सुनकर हम बड़े प्रभावित हुए। वैसे इस समारोह में कई क्रांतिकारी भी आए थे, जिनके भाषण हमने सुने। मुझे याद आ रहा है कि हंसराज रहबर बोलने के लिए खड़े हुए, तो उन्हें असुविधा होती देखकर कुर्सी मंच पर लाई गई थी, लेकिन उन्होंने उस पर बैठने से ये कहते हुए इनकार कर दिया था कि क्रांतिकारी कभी बूढ़ा नहीं होता। भगत सिंह के साथी जयदेव कपूर को हमने सुना। उनके छोटे भाई कुलतार सिंह को सुना। मन्मथ नाथ गुप्त को सुना। साल 1925 में 17 साल की उम्र में मन्मथ नाथ गुप्त ट्रेन से अंग्रेज़ों का ख़ज़ाना लूटने वाले 10 क्रांतिकारियों में शामिल थे। इस कांड को काकोरी कांड के नाम से जाना गया। उन्हें 14 साल की सज़ा हुई थी। राम प्रसाद बिस्लिम को इसी कांड के लिए फ़ांसी की सज़ा दी गई थी। सौंडर्स हत्याकांड के बाद भगत सिंह की पत्नी बनकर उन्हें लाहौर से फ़रार कराने वाली दुर्गा भाभी को सुना। और भी बहुत से क्रांतिकारी, लेखक, कवि और समाजसेवी आयोजन में आए थे। हमने सबको सुना, प्रेरणा ली, लेकिन अदम गोंडवी की ख़ास लहज़े में पिन्नाती आवाज़ और कालजयी रचना में निर्बाध, फिर भी सलीक़े से पिरोए गए उनके विचार मेरे ऐहसासों की छोटी सी पोटली में बंधकर रह गए। ऐसा नहीं है कि वल्लभ जी और दूसरे वरिष्ठों की कविताओं का मैं मुरीद नहीं था, लेकिन कविता की इतनी व्यापक, विराट, विभ्राट पकड़ और उसकी पहुंच यानी संप्रेषण की शक्ति से मैं पहली बार रू-ब-रू हुआ और अवाक होकर रह गया।
फटे कपड़ों से तन ढकता जिधर से कोई भी निकले
बहरहाल, हर महत्वपूर्ण या फ़िज़ूल बात की तरह यह बात भी आई-गई हो गई। मैं 1983 में पढ़ाई के लिए आगरा आ गया। फिर पढ़ाई कई जगहों पर किश्तों में पूरी हुई और 1989 में मेरा चयन टाइम्स ग्रुप में हो गया। मुंबई, दिल्ली, जयपुर होता हुआ मैं वापस दिल्ली आकर 1996 में टीवी पत्रकारिता से जुड़ा। तब दो-तीन साल पहले अशोक अंबर की मृत्यु से पहले तक मेरा साल में एकाध बार इटावा आना-जाना हुआ करता था। शाम को उसके गोदाम पर महफ़िल जमती। अपनी खिन्नताओं, प्रसन्नताओं, उदासीनताओं, सक्रियताओं, जुगुप्साओं को सुरा के साथ उदर में उड़ेलते हुए अशोक तब अदम का एक मतला क़रीब-क़रीब हर बार बड़े चाव से सुनाया करता था-
“काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में,
उतरा है रामराज्य विधायक निवास में।”
मुझे हर बार हंसी आती कि एक रिंदगी किस तरह दूसरी रिंदगी पर कटाक्ष कर रही है। आप ख़ुद ईंट के चट्टों को समतल कर बनाए गए सख़्त बिस्तर पर अख़बार पर अक्सर हाज़मोला की गोलियों और कभी-कभी चने-मुरमुरों के चखने के साथ अंग्रेज़ी या कभी-कभी देशी से जूझ रहे हैं, किसी तरह उस बुराई के जड़ से ख़ात्मे पर आमादा हैं, लेकिन विधायक निवास में अगर ऐसा ही हो रहा है, तो उस पर आपकी नज़र तंज़िया ही पड़ेगी। अशोक अदम का एक और शेर बड़े फ़ख़्र से सख़्त मुखमुद्रा के साथ छाती तानकर सुनाया करता था-
“फटे कपड़ों से तन ढकता जिधर से कोई भी निकले,
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।”
हो सकता है कि इस शेर में कुछ शब्द इधर-उधर हो गए हों, लेकिन वज़न वही है। मैंने कई बार अदम से इस शेर की बेबसी के बारे में बातचीत की। मैंने कहा कि इस शेर में बग़ावत या ख़ुद्दारी नहीं, बेबसी झांकती है, याचना जैसा कुछ भाव निकलता है। अदम कहते कि बग़ावत में अगर विनम्रता भी शामिल हो, तो कोई बुराई नहीं है। इस शेर को हालात के हू-ब-हू शब्द चित्रण के तौर पर लिया जाना चाहिए। मैं चुप हो जाता। इस पूरे बेहद लंबे अंतराल में अदम से कोई मुलाक़ात या फ़ोन पर बातचीत नहीं हो सकी, लेकिन देश भर में फैली हम फक्कड़ों की टोली अदम को अपने-अपने पास हमेशा महसूस करती रही।
साल 2007 की सर्दियों की शुरुआत में यूपी के बुलंदशहर में पत्रकारिता कर रहे मेरे कवि मित्र और अनुजवत अवनींद्र कमल का फ़ोन आया कि फ़लां तारीख़ को अदम आ रहे हैं, तुम भी आ जाओ, छोटा सा आयोजन है। ग़ाज़ियाबाद से बुलंदशहर दूर नहीं है, घंटे-डेढ़ घंटे का सफ़र है, लेकिन दोपहर तक पहुंचने के संकल्प के बावजूद मैं देर शाम तक ही पहुंचा। अक्सर होता है कि हम लंबी दूरियों तक का सफ़र समय पर पूरा करते हैं और छोटी दूरियों तक देर से ही पहुंचते हैं। हमें लगता है कि ये तो रही जगह, निकले नहीं कि पहुंचे और ये सोचते-सोचते हम अपने आप में से निकलने में बहुत देर अक्सर कर देते हैं। बहरहाल, जब मैं आयोजन में पहुंचा, कवि सम्मेलन शुरू हो चुका था। मुझे भी मंच पर बुलाया गया, लेकिन मैंने सामने बैठकर सुनना ही बेहतर समझा। अदम कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे।
मैंने देखा कि उनके बाल पक चुके थे, लेकिन व्यक्तित्व की बाल-सुलभ सादगी की भंगिमाएं हर आयाम से जस की तस थीं। मेरा आकार-प्रकार भी बहुत बदल चुका था। मेरी बारी आई, तो मैंने माइक पर 25 साल पहले इटावा में उनसे हुई मुलाक़ात का ज़िक्र किया और उनकी ओर देखा, तो वे मुस्कुरा रहे थे। मैंने महसूस किया कि अन्यमनस्क से मंच पर बैठे अदम पुराना ज़िक्र सुनकर एकाएक ख़ुश नज़र आ रहे थे। वे भी शायद 25 साल पहले इटावा के इस्लामिया इंटर कॉलेज के प्रांगण में व्यतीत हुए उन क्षणों तक जा पहुंचे थे। अदम की आंखों की चमक बढ़ गई थी। मैंने कविता पढ़ी और फिर कुर्सियों पर आ बैठा। मुझे ऐसा नहीं लग रहा था कि मैं 25 साल बाद अदम से मिल रहा हूं। हालांकि उनसे मिलने का रोमांच मन में था। जब उनकी कविता पढ़ने की बारी आई, तो मैंने फ़रमाइश कर दी- “आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को...।” उन्होंने पहले वही कविता पढ़ी और मेरा ज़िक्र करते हुए कहा कि उन्हें मेरी याद है। इसके बाद मैं पूरी रात वहां ख़ुद को वीआईपी ही समझता रहा।
मैंने महसूस किया कि अदम के सामने बैठते ही 25 साल के अंतराल की स्मृतियों का खंडहर एक पल में धड़ाम से ढह गया था, कपूर की टिकिया की तरह फक्क से जल गया था। कवि सम्मेलन के बाद क़रीब-क़रीब सारे आमंत्रित कवि और कुछ स्थानीय पत्रकार और कवि सारी रात जागे रहे। अदम को सुनते रहे, अपनी सुनाते रहे। कुछ मेज़बान और क़द्रदान तो सूर्योदय के बाद वहां से अस्त हुए। इस मुलाक़ात के बाद अदम से मेरी बहुत मुलाक़ातें हुईं। वे कई बार ग़ाज़ियाबाद में मेरे घर पर ही रुके और कई-कई दिनों तक रुके। एक बार मेरी मां ने उन्हें विदा होते वक़्त 101 रुपए दिए, तो वे गली के अंत तक उन्हें सिर पर मुट्ठी में रखकर लेते गए। ग़ाज़ियाबाद के बाहर भी कई कार्यक्रमों में उनसे मुलाक़ातें होती रहीं। संबंध कुछ इस तरह प्रगाढ़ हुए कि मुझसे उम्र में बहुत बड़े होने के बावजूद अदम मुझे ‘पिताजी’ बुलाते रहे। ऐसा क्यों था, इसकी कहानी फिर कभी। फ़ोन पर हमारी लंबी बातें अक्सर होती थीं। मैं कई कवियों को कॉन्फ़्रेंसिंग में लेकर लंबी गोष्ठियां करता रहा। हम रात के तीन बजे भी अदम को फ़ोन करते, तो तपाक से जवाब मिलता और फिर घंटों बातें होती थीं। भाई अवनींद्र कमल इन मुलाक़ातों में अहम कड़ी साबित होते थे। उनका और अदम का संबंध भी अजीब ही था। उसका वर्णन कमल के ही बस की बात है।
जब किसी का प्रारंभ होता है, तब उसका अंत भी होता ही है। लेकिन अदम का अंत इस तरह होगा, सोचा नहीं था। मौत से कुछ महीने पहले मेरे घर पर उन्होंने बिना पॉलिश की अरहर की दाल लाने का वादा किया था। कुछ दिन बाद वे बीमार पड़ गए। उनके भतीजे से मुझे बीमारी लाइलाज होने की जानकारी मिली। मैंने गौंडा में उनका इलाज कर रहे डॉक्टर से बात की और उनकी सलाह पर एम्स के उदर रोग विभाग के प्रभारी डॉक्टर से भी बात की। वे भी अदम को जानते थे। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट मंगवाकर उन्हें दिखा दूं। फिर पता चला कि हालत में सुधार है। लेकिन एक दिन पता चला कि उन्हें 12 दिसंबर, 2011 को लखनऊ में अस्पताल में भर्ती कराया गया है। तबियत ज़्यादा ख़राब है। तब मैं रांची में था। 15 दिसंबर की शाम को उनसे फ़ोन पर लंबी बात हुई। झारखंड के एक जनकवि (नाम याद नहीं आ रहा है) ने मेरे फ़ोन से उनसे बहुत सी बातें कीं। 17 दिसंबर को मैं देर शाम रांची से घर लौटा और गहरी नींद में सो गया।
... और जब पता चला कि अदम नहीं रहे
उस वक़्त किसी को पता नहीं था कि मौत अदम नाम की मंज़िल तक के सफ़र पर चुपके से निकल पड़ी है। अल्सुबह फ़ोन की घंटी बजी, देखा तो लखनऊ में अस्पताल के बिस्तर पर बुझ चुके अदम का नाम स्क्रीन पर दिपदिप कर चमक रहा था। उनींदा था, फिर भी दिल तेज़ी से धड़क गया। फ़ोन उठाने की हिम्मत नहीं हुई। बाद में पता चला कि उनके भतीजे ने मौत की ख़बर देने के लिए फ़ोन किया था। सुबह की शिफ़्ट थी। ऑफ़िस पहुंचने से पहले ही पता चल गया था कि अदम नहीं रहे।
ऑफ़िस पहुंचा, तो हेडलाइन लिखकर दी। उनके एक पुराने इंटरव्यू का कुछ हिस्सा लाइब्रेरी में मिल गया। तब मैंने सोचा कि इतनी प्रगाढ़ता और निकटता के बावजूद मेरी और अदम की कोई तस्वीर मेरे पास नहीं है। हम जब भी मिले, ऐसा कोई प्रयास किया ही नहीं गया। वे तो ख़ैर क्या करते, लेकिन स्मार्ट फ़ोन वाले हम लोगों ने कभी उनके साथ कोई तस्वीर नहीं उतारी। नेट पर तो उनकी तस्वीरें थीं, लेकिन शाम को घर आने पर जिज्ञासावश कई शहरों में मित्रों को फ़ोन किए, लेकिन उनकी कोई तस्वीर किसी के कैमरे में नहीं मिली। मुझे इस बात का बहुत अफ़सोस हुआ कि टीवी पत्रकार होते हुए भी मैं उनका कोई इंटरव्यू क्यों करके नहीं रख सका? जबकि ऑफ़िस की तरफ़ से इसमें कोई अड़चन नहीं थी। कई बार अदम के दिल्ली-एनसीआर या मेरे घर में होने के दौरान ज़िक्र छेड़ने पर मुझे कितनी भी देर का इंटरव्यू करने की छूट थी। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो पाया, यहां ज़िक्र करना सही नहीं होगा।
अदम जब भावनाओं की लहरों में पूरी तन्मयता, पूरी मस्ती से चहक-बहक कर बह रहे होते थे, मेरे लिए अपना एक शेर ज़रूर पढ़ते थे-
“मत्स्यगंधा फिर कहीं होगी किसी ऋषि का शिकार,
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिए।”
अपना ये शेर उन्हें मेरा सरनेम ‘पाराशर’ होने की वजह से याद आता था। असल में पाराशर ऋषि और मछुआरे की लड़की सत्यवती के मुक्त-प्रणय से जुड़ी एक किंवदंती महाभारत में है। बेधड़क अदम्य अदम की धड़कनें छह साल पहले 18 दिसंबर के सूर्योदय से पहले बंद हो गई थीं, लेकिन उनकी शायरी की चिंगारियां साहित्य, बदलाव और सच्चाई को प्यार करने वालों के दिलों में हमेशा धड़कती रहेंगी। उनकी पहली बरसी पर गौंडा ज़िले के गांव आटा परसपुर में हुए कार्यक्रम में मैं भी पहुंचा था। मैं फ़ैज़ाबाद होते हुए टैंपो से उस जगह तक पहुंचा था, जहां से अदम के गांव का रास्ता कटता है। वहां मुझे मशहूर गीतकार राजेंद्र राजन भी सिकुड़े हुए समौसों की दुकान पर बैठे गाड़ी का इंतज़ार करते मिले, तो कुछ सुकून हुआ। एक से भले दो। कड़कड़ाती सर्द रात का वह अनुभव, अदम के परिवार से मिलने का वह अनुभव मैं कभी भूल नहीं सकता। अदम को समर्पित मेरी ग़ज़ल का एक मतला 18 दिसंबर, 2012 की रात उनके गांव में ही हुआ था-
“दुकानों में ही शहरों की न ख़ुशबू ढूंढिए साहब,
हमारे गांव चलिए और मिट्टी सूंघिए साहब।”
यह अदम के गांव की फ़ज़ा का ही जलवा था कि इतना भारी-भरकम मतला आ गया। लेकिन ग़ज़ल के शेर आने में तीन साल लग गए। असल में बहुत से लोगों के बीच एकांत ज़्यादा देर के लिए मिला ही नहीं। जन्मदिन पर अदम को याद करना वाक़ई अतृप्त को हासिल करने जैसा है। एक निवेदन उन प्रकाशकों से ज़रूर करना है, जिन्होंने अदम की शेर-ओ-शायरी छापी है कि परिवार को रॉयल्टी ज़रूर भेजें। साल 2013 में अदम गौंडवी के बेटे आलोक ने मुझे फ़ोन कर कहा था कि एक बड़े प्रकाशक रॉयल्टी के मामले में परिवार की अनदेखी कर रहे हैं। मैंने तब निजी स्तर पर कोशिश की थी, लेकिन ज़्यादा कुछ हुआ नहीं। अदम को नमन, उनसे जुड़ी यादों का सिलसिला फ़िलहाल यहीं तक। अदम की शायरी पर फिर कभी लिखूंगा। अंत में ‘मत्स्यगंधा’ वाली अदम की पूरी ग़ज़ल पढ़ लीजिए-
“जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिए,
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिए।
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिज़ाज,
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए।
जल रहा है देश, यह बतला रही है क़ौम को,
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिए।
मतस्यगंधा फिर कहीं होगी किसी ऋषि का शिकार,
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिए।”
-अदम गोंडवी
- रवि पाराशर
(फ़्लैट नंबर 341, सेक्टर 4 सी, वार्तालोक अपार्टमेंट, वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद- 201012)
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3 महीने पहले
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