जिन्दगी के कुछ हसीन पल बनके आ गये ,
वो होठो पर मेरे गजल बनके आ गये ।।
मै तो खण्हर हो गया था जमाने के लिये ,
वो वाहो मै मेरी ताजमहल बनके आ गये ।।
कट रहा था सफर मेरा धूप मै चलते चलते,
वो रहो मै मेरी भीगे बादल बनके आ गये ।।
भूल चुका था मै शायद इश्क के अहसासो को,
वो दहलीज पर मेरी बीता कल बनके आ गये ।।
टूटे छत से बरस रही थी वूँदे तन्हायी की ,
वो सर्द रातो मै मेरी महल बनके आ गये ।।
मै भटक रहा था प्यासा रेगिस्तान मै अकेला,
वो हाथो मै मेरे मीठा जल बनके आ गये ।।
कई सबाल उठ खडे थे उनके जाने के बाद,
वो उन सारे सबालो का हल बनके आ गये ।।
एक तस्बीर मैने बनायी थी अपने हमसफर की,
वो हूँवहू उस तस्बीर की नकल बनके आ गये ।।
- हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें
कमेंट
कमेंट X