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पद्मश्री सोहन लाल द्विवेदी : कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

सोहन लाल द्विवेदी
                
                                                                                 
                            न हाथ एक शस्त्र हो, 
                                                                                                

न हाथ एक अस्त्र हो, 
न अन्न वीर वस्त्र हो, 
हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो । 

रहे समक्ष हिम-शिखर, 
तुम्हारा प्रण उठे निखर, 
भले ही जाए जन बिखर, 
रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

घटा घिरी अटूट हो, 
अधर में कालकूट हो, 
वही सुधा का घूंट हो, 
जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।


ऊर्जा और चेतना से भरपूर रचनाओं के इस रचयिता का नाम सोहनलाल द्विवेदी है । राष्ट्रीयता से भरपूर रचनाओं के लिए सोहनलाल द्विवेदी का नाम अग्रणी है। इनकी 'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती' कविता बहुत प्रसिद्ध हुई।

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


महात्मा गांधी के व्यतित्व से बहुत प्रभावित थे, उन पर भावपूर्ण रचनाएं द्विवेदीजी ने लिखी।  

चल पड़े जिधर दो डग मग में 
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि 
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर, 

जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गये उसी पर कोटि माथ;

हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु ! 
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम ! 
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि 
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम ! 

युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख,
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;

तुम बोल उठे, युग बोल उठा, 
तुम मौन बने, युग मौन बना, 
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर 
युगकर्म जगा, युगधर्म तना; 

युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
युग-संचालक, हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार!


22 फरवरी 1906 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में जन्मे सोहनलाल द्विवेदी हिंदी कविता के अमिट हस्ताक्षर हैं।  डॉ॰ हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने एक बार लिखा था- '' गाँधीजी पर केन्द्रित उनका गीत 'युगावतार' या उनकी चर्चित कृति 'भैरवी' की पंक्ति 'वन्दना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो, हो जहाँ बलि शीश अगणित एक सिर मेरा मिला लो' स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सबसे अधिक प्रेरणा गीत था।''

वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो।
राग में जब मत्त झूलो
तो कभी माँ को न भूलो,
अर्चना के रत्नकण में एक कण मेरा मिला लो।
जब हृदय का तार बोले,
शृंखला के बंद खोले;
हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक शिर मेरा मिला लो।
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5 years ago

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