'नई कविता' में मुक्तिबोध के साथ समान रूप से आदरणीय और चर्चित कवि शमशेर बहादुर सिंह की पहचान यूं तो एक समर्थ और महत्वपूर्ण कवि की है, लेकिन उनकी लिखी ग़ज़लें, रुबाइयाँ, क़ते और अशआर भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं ।
शमशेर की शायरी का रंग, उसकी तड़प और उसकी अभिव्यक्ति दरअसल साझा संस्कृति में उनकी जबरदस्त आस्था से उपजी थी। हिंदी और उर्दू को लेकर जो राजनीति उस समय की जा रही थी, शमशेर उससे गहरे आहत थे। उनका स्पष्ट मानना था कि ‘जो संस्कार मुझे अपने पूर्वजों से मिले, उनमें कम से कम उर्दू-हिंदी के बीच की दीवारें नहीं थी; बल्कि उनके बीच एक ऐसी जमीन थी जहाँ दोनों लगभग एक नज़र आती हैं।
हिंदी और उर्दू के बीच चौड़ी की जा रही खाई को वे साम्राज्यवादी षड्यंत्र के तौर पर देखते थे। उन्होंने कहा, "इन दोनों के भेदभाव के पीछे राजनीति और जातीयता के स्वार्थों का और ग़ुलामी के ज़माने की शिक्षण नीति का इतिहास है। मैं इस इतिहास का कायल नहीं हूँ।"
शमशेर अपनी रचनाओं पर बोलने में बहुत संकोची थे, और प्रकाशन को भी वे बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते थे, लेकिन अपनी ग़ज़लों को लेकर उनका बहुत ही स्पष्ट नज़रिया था, "मैं अपनी ग़ज़लों को अपनी हिंदी रचनाओं से कभी अलग नहीं रखना चाहूँगा।" ग़ज़ल एक लिरिक विधा है, जिसकी अपनी कुछ शर्तें हैं, अपना प्रतीकवाद है, अपनी जीवंत परंपरा है।
ज़ाहिर है, अपनी इस जीवंत परंपरा को वो, मीर, ग़ालिब, दाग, ज़ौक़ से ही ग्रहण करते थे। अपनी कविताओं को स्पष्ट करने के क्रम में उन्होंने एक जगह ग़ालिब के एक शेर का हवाला भी दिया है,
फरियाद की कोई लय नहीं है
नाला पाबन्दे - नै नहीं है
मतलब बाँसुरी कभी अन्तर की आह - कराह को बाँध नहीं सकती, क्योंकि नाला (कराह), बांसुरी बजाने की कला के अधीन नहीं है, इससे आज़ाद है। अपनी कविता को वे इसी आज़ादी की खोज मानते थे।
शमशेर अपनी प्रेम कविताओं को लेकर मशहूर हुए है। उनकी शायरी में भी उनका यह रूमानियत भरा अंदाज़ नज़र आता है, लेकिन अपने रूमान के स्तर को वे बहुत ऊँचाई तक ले जाते हैं-
जहां में अब तो जितने रोज अपना जीना होना है,
तुम्हारी चोटें होनी हैं, हमारा सीना होना है
वो कल आएँगे वादे पर मगर कल देखिये कब हो
ग़लत फिर हजरते दिल आपका तख़मीना होना है
शायर की रूमानियत में उसका ग़ुरूर भी छलछलाता रहता है। यहाँ गौतलब है कि अपनी प्रेम कविताओं में शमशेर जितने समर्पित प्रेमी के तौर पर आते हैं, अपनी गज़लों में उनके ‘अहम’ का तेवर भी बरक़रार रहता है।
गमें सफ़र हैं आप तो हम भी हैं भीड़ में कहीं
अपना भी काफ़िला है कुछ आप ही का काफ़िला नहीं
अगला शेर तो और भी ठसक के साथ है -
दर्द को पूछते थे वो, मेरी हँसी थमी नहीं
दिल को टटोलते थे वो मेरा जिगर हिला नहीं
ग़ज़ल की जिस शानदार परंपरा का ज़िक्र शमशेर करते हैं, परंपरा की वह ख़ासियत उनकी शायरी में पूरे उठान पर आती है। ग़ालिब और मीर तो जैसे उनके अशआर के रूह से झाँक उठते हैं-
एक फाहा भी मेरे ज़ख़्म पे रक्खा न गया
और सर पे मेरे अहसान दवा का बाँधा
मुस्कुराते हुए वह आये मेरी आँखों में
देखने क्या सरोसामन क़जा का बाँधा
कभी-कभी तो इतनी सादी और साफ़ ज़बान में शेर कहे गये हैं कि ग़ालिब की याद तो आती ही आती है-
बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है
किसे पूछते हो, किसे हम बताएँ
तुम एक ख़्वाब थे जिसमें ख़ुद खो गये हम
तुम्हें याद आएं तो क्या याद आएँ
शायर शमशेर अपने संकोची स्वभाव के कारण अपनी ग़ज़लों को पेश करते हुए थोड़े झिझकते भी हैं उनके मुताबिक़, "गज़लें मैंने थोड़ी ही और केवल अपने गाने-गुनगुनाने के लिये ही लिखीं और उसमें किसी मौलिकता का दावा भी मुझे नहीं। अगर साधारण और मेरी कुछ चीज़ों से जिनमें दो चार ग़ज़लें भी हैं, थोड़ा सा भी साहित्यिक मनोरंजन हो जाता है तो क्या वह पर्याप्त नहीं।"
लेकिन यह सिर्फ़ शमशेर की विनम्रता ही है जो उनसे ऐसा कहलवाती है, वर्ना उनके शेर तो सीधे दिल से दिल की बात कहते हुए निकलते हैं,
खामोशिए - दुआ हूँ, मुझे कुछ ख़बर नहीं
जाती हैं क्या सदाएँ तेरे आस्ताँ के पार
या फिर,
इश्क़ की इंतहा तो होती है
दर्द की इंतहा नहीं होती
यह हिंदी का या खड़ी बोली का दुर्भाग्य कहें कि हमने कविता को हिंदी और उर्दू दो खेमों में बांट कर ही दम लिया। शमशेर के तमाम आलोचकों ने उनके कवि रूप को तो ख़ूब उभारा और सराहा, लेकिन शायर शमशेर को वह तवज्जो नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। नहीं तो भला इस तरह के शायर को भी कोई भुला सकता है? उनके चंद न भुलाये जाने वाले शेर आप भी मुलाहिजा फरमायें और खुल कर दाद दें।
कभी राह में यूँ ही मिल लेने वाले
बड़े आये हैं, मेरा दिल लेने वाले
तुमसे बातें रात भर करता रहा
यह न समझा दिल कोई मेहमान है
हो चुकी जब ख़त्म अपनी ज़िंदगी की दास्ताँ
उनकी फरमाइश हुई है इसको दोबारा कहें
चुपके-चुपके उनसे मेरी चुगलियाँ खाता रहा
आइने को पहले कितना बेजबां समझा था मैं
आज के इस बिगड़ते माहौल में शायर शमशेर को याद करना, दरअसल अपनी शानदार तहजीब और परंपरा को याद करना है, उस बेचैन रूह को याद करना है, जो मानता था कि वह इस बांटने की राजनीति का वैसे ही कायल नहीं हैं, जैसे सामान्य जीवन में खड़ी बोली का व्यवहार करने वाली साधारण जनता इसकी कायल नहीं है । जिसे जनता पर इतना भरोसा था कि वह मान रहा था कि -'अब हिंदी-उर्दू के नये रूपों के इतिहास की बागडोर इसी साधारण जनता के प्रतिनिधियों के हाथों में आती जा रही है।'
बेशक शमशेर बड़े शायर थे क्योंकि शायर तो होता ही भोला और निश्छल है। नहीं तो क्या आज की जनता और क्या उसके प्रतिनिधि। और अब शमशेर को याद करें भी तो कितना याद करें जबकि उन्होंने ख़ुद फ़रमाया है -
एक खयाले-खाम हूँ, दिल से मुझे भुलाइये
आपको आ चुका हूँ याद इश्क़ तमाम हो चुका
(लेखक पेशे से प्रोफेसर हैं और चर्चित कथाकार हैं )
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4 months ago
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