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काशी में ही बापू ने रखा था असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव
Varanasi
Updated Mon, 13 Aug 2012 12:00 PM IST
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वाराणसी। महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘असहयोग आंदोलन’ इतिहास का युगांतकारी अध्याय है। यहीं से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन जनांदोलन में परिवर्तित होता है। बनारस को यह सौभाग्य है कि नए युग का उद्घाटन करने वाले इस असहयोग आंदोलन की प्रथम स्वीकृति यहीं हुई। तीस मई 1920 को लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में बनारस में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की ऐतिहासिक बैठक मोती लाल नेहरू ने पहले जलियांवाला बाग कांड की जांच रिपोर्ट पहली बार प्रस्तुत की। इसके बाद गांधी जी ने पहली बार कांग्रेस के समक्ष असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। हालांकि इसकी पुष्टि के लिए सितंबर में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बुलाने का निर्णय हुआ और सितंबर की कलकत्ता कांग्रेस ने बनारस के प्रस्ताव पर मुहर लगाई।
असहयोग आंदोलन में बनारस अग्रणी रहा। इसमें असहयोग के साथ रचनात्मक कार्यक्रम भी हुए। बहिष्कार और असहयोग का दर्शन समझाने के लिए बापू ने काशी की यात्रा की। हालांकि महामना मदन मोहन मालवीय असहयोग एवं शैक्षणिक बहिष्कार के विरोधी थे लेकिन गांधी जी उन्हीं के यहां टिके। मिलने वालों से गांधी जी बहिष्कार की अपील करते तो दूसरे कमरे में मालवीय जी बहिष्कार के नुकसान गिनाते हुए छात्रों को अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए देश सेवा की सीख देते थे। गांधी जी ने टीचर्स ट्रेनिंग कालेज में असहयोग दर्शन पर आयोजित सभा को संबोधित किया। उस व्याख्यान का लोगों पर गहरा असर पड़ा। पंडित कमलापति त्रिपाठी तथा पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ सरीखे किशोर वय छात्र जनसंग्राम में कूदे और इतिहास की महान यात्रा के सहभागी बने। आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में चार दर्जन से अधिक छात्र बहिष्कार में शामिल हए। जनवरी 1921 में संस्कृत छात्र संघर्ष समिति ने संस्कृत कालेज में परीक्षा का बहिष्कार किया। इस आंदोलन का नेतृत्व चंद्रशेखर आजाद कर रहे थे। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई और विदेशी सरकार से सहायता प्राप्त या संचालित शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार हुआ। डा. भगवान दास, शिवप्रसाद गुप्त, आचार्य कृपलानी, बाबू संपूर्णानंद, लाल बहादुर शास्त्री, शिव विनायक मिश्र, पं. कमलापति त्रिपाठी, श्री प्रकाश जी, रघुनाथ सिंह, विश्वनाथ शर्मा, विश्वेश्वर अय्यर आदि छात्र नेता लगातार जेल जाते रहे। प्रिंस आफ वेल्स के आगमन पर बनारस बंद हुआ। बीएचयू के दीक्षांत समारोह का बहिष्कार हुआ जिसमें प्रिंस को डी.लिट की मानद उपाधि दी जानी थी।
वाराणसी। महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘असहयोग आंदोलन’ इतिहास का युगांतकारी अध्याय है। यहीं से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन जनांदोलन में परिवर्तित होता है। बनारस को यह सौभाग्य है कि नए युग का उद्घाटन करने वाले इस असहयोग आंदोलन की प्रथम स्वीकृति यहीं हुई। तीस मई 1920 को लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में बनारस में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की ऐतिहासिक बैठक मोती लाल नेहरू ने पहले जलियांवाला बाग कांड की जांच रिपोर्ट पहली बार प्रस्तुत की। इसके बाद गांधी जी ने पहली बार कांग्रेस के समक्ष असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। हालांकि इसकी पुष्टि के लिए सितंबर में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बुलाने का निर्णय हुआ और सितंबर की कलकत्ता कांग्रेस ने बनारस के प्रस्ताव पर मुहर लगाई।
असहयोग आंदोलन में बनारस अग्रणी रहा। इसमें असहयोग के साथ रचनात्मक कार्यक्रम भी हुए। बहिष्कार और असहयोग का दर्शन समझाने के लिए बापू ने काशी की यात्रा की। हालांकि महामना मदन मोहन मालवीय असहयोग एवं शैक्षणिक बहिष्कार के विरोधी थे लेकिन गांधी जी उन्हीं के यहां टिके। मिलने वालों से गांधी जी बहिष्कार की अपील करते तो दूसरे कमरे में मालवीय जी बहिष्कार के नुकसान गिनाते हुए छात्रों को अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए देश सेवा की सीख देते थे। गांधी जी ने टीचर्स ट्रेनिंग कालेज में असहयोग दर्शन पर आयोजित सभा को संबोधित किया। उस व्याख्यान का लोगों पर गहरा असर पड़ा। पंडित कमलापति त्रिपाठी तथा पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ सरीखे किशोर वय छात्र जनसंग्राम में कूदे और इतिहास की महान यात्रा के सहभागी बने। आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में चार दर्जन से अधिक छात्र बहिष्कार में शामिल हए। जनवरी 1921 में संस्कृत छात्र संघर्ष समिति ने संस्कृत कालेज में परीक्षा का बहिष्कार किया। इस आंदोलन का नेतृत्व चंद्रशेखर आजाद कर रहे थे। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई और विदेशी सरकार से सहायता प्राप्त या संचालित शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार हुआ। डा. भगवान दास, शिवप्रसाद गुप्त, आचार्य कृपलानी, बाबू संपूर्णानंद, लाल बहादुर शास्त्री, शिव विनायक मिश्र, पं. कमलापति त्रिपाठी, श्री प्रकाश जी, रघुनाथ सिंह, विश्वनाथ शर्मा, विश्वेश्वर अय्यर आदि छात्र नेता लगातार जेल जाते रहे। प्रिंस आफ वेल्स के आगमन पर बनारस बंद हुआ। बीएचयू के दीक्षांत समारोह का बहिष्कार हुआ जिसमें प्रिंस को डी.लिट की मानद उपाधि दी जानी थी।