बाल साहित्यकारों से ‘अमर उजाला’ की बातचीत
- बाजारवाद ने भी पहुंचाई है क्षति
अजय अवस्थी
शाहजहांपुर। बच्चों में साहित्य के प्रति बढ़ती उपेक्षा से बाल साहित्यकार चिंतित हैं। बाल साहित्य की राह में भौतिक संपन्नता को रोड़ा बताने वाले साहित्यकारों का कहना है कि कंप्यूटर युग ने हमारी सभ्यता और संस्कृति पर हमला किया है। वहीं बाजारवाद ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी है। बाल साहित्य की दिशा और दशा पर नगर में आए बाल साहित्यकारों से अमर उजाला ने वार्ता की है। प्रस्तुत हैं बातचीत के कुछ अंश-
अंत:करण से काम लें साहित्यकार: बलजीत
वर्धमान कॉलेज बिजनौर के सेवानिवृत्त प्रवक्ता डॉ. बलजीत सिंह का मानना है कि साहित्यकारों को अंत:करण से काम लेना होगा, अन्यथा वे इस दौर में कामयाब नहीं होंगे। केवल चलन के आधार पर लिखने वाले अपने साहित्य में गति और प्रवाह नहीं ला सकते।
परंपरागत लेखन त्यागना होगा: गर्ग
भीलवाड़ा राजस्थान से प्रकाशित मासिक पत्रिका बाल वाटिका के संपादक डॉ. भैरूंलाल गर्ग का कहना है कि यह सच है कि आज का बदला परिवेश बच्चों की रुचि को प्रभावित कर रहा है, लेकिन बच्चे और अभिभावक आज भी अच्छा साहित्य तलाशते हैं।
अखबार दे सकते हैं जीवनदान: राष्ट्रबंधु
बाल साहित्य समीक्षा, कानपुर के संपादक डॉ. राष्ट्रबंधु का कहना है कि गुजराती और मराठी में इसे काफी प्रोत्साहन मिल रहा है, जबकि हिंदी में इसे नजरअंदाज किया जा रहा है। कहा, दो-तीन रुपये के अखबार में यदि अच्छा साहित्य मिलता रहे तो इससे सस्ता साहित्य अन्यत्र दुर्लभ होगा।
संस्कृति पर हावी है बाजारवाद: शकुंतला
दिल्ली विश्वविद्यालय की हिंदी प्रवक्ता और प्रख्यात बाल साहित्य लेखिका तथा समीक्षक डॉ. शकुंतला कालरा ने कहा कि पाश्चात्य संस्कृति ने पहले संस्कृत और अब हिंदी पर हमला किया है। बच्चों में वैज्ञानिक सोच बढ़ने से लोक संस्कृति, परियों और पौराणिक कथाओं का समावेश नदारद हो रहा है।