किसान हितों के मुद्दों पर ताकत बनकर उभरी भाकियू के दामन पर हिंसा के छींटे पहले भी पड़ते रहे हैं। दौर चाहे चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का रहा हो या फिर दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई अराजकता का। आंदोलनों में बवाल का भाकियू का लंबा इतिहास रहा है।
दिल्ली में प्रदर्शनकारी किसानों के ‘तांडव’ से एक बार फिर भारतीय किसान यूनियन के आंदोलन की रणनीति सवालों के कठघरे में खड़ी हो गई है। भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के ट्रैक्टर रैली निकालने से पहले किए गए दावे हिंसा में धराशायी हो गए। भाकियू के आंदोलनों में हिंसा कोई नई बात नहीं है। कई बार शांतिपूर्ण ढंग से संचालित धरने और प्रदर्शन में एकाएक ऐसे घटनाक्रम उपजे हैं, जिनमें किसानों की उग्र भीड़ को काबू करना विफल साबित हो चुका है।
करीब साढ़े तीन दशक पहले भाकियू संस्थापक चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में किसानों का पहला आंदोलन शामली जिले के करमूखेड़ी बिजलीघर पर हुआ था। विद्युत दरों के खिलाफ एक मार्च, 1987 को शांतिपूर्ण घेराव के लिए हजारों किसान पहुंच गए।
पुलिस प्रशासन से टकराव में भीड़ अनियंत्रित हो गई, तो पथराव, लाठी और गोलियां चलीं, जिसमें दो किसान जयपाल सिंह एवं अकबर अली की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद भाकियू की ताकत बढ़ती गई और चौधरी टिकैत एकछत्र किसानों के अगुवा बन गए। वर्ष 1988 में मेरठ कमिश्नरी के घेराव को 24 दिन लंबा धरना चला, लेकिन कोई अनहोनी नहीं हुई थी। सरकार के मांगे नहीं मानने के विरोध में मुरादाबाद के रजबपुर में किसानों ने रेल और सड़कों पर आवागमन रोक दी।
16 फरवरी, 1988 को उग्र प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग की। रजबपुर गोलीकांड में पांच किसान मारे गए तथा सैकड़ों घायल हो गए थे। भाकियू सुप्रीमो ने बड़ी किसान पंचायत के उपरांत जेल भरो आंदोलन शुरू किया था। हालांकि मुरादाबाद में पुलिस फायरिंग के वक्त चौधरी टिकैत मेरठ कमिश्नरी के धरने में मौजूद थे।
टिकैत के अड़ियल रुख से किसानों में संघर्ष की एकता बढ़ रही थी। 27 मई, 1989 को अलीगढ़ के खैर कस्बे में गेहूं क्रय केंद्रों पर सरकार द्वारा घोषित मूल्य पर खरीद नहीं किए जाने पर आक्रोशित भाकियू कार्यकर्ता पंचायत करने पर अड़ गए। प्रशासन ने रोक लगा दी, किसान उत्तेजित हो उठे। नतीजतन हिंसा भड़की तथा छह किसानों की मौत हो गई।
तमाम घटनाओं के बाद 90 के दशक में चौधरी टिकैत किसान राजनीति के सिरमौर बन चुके थे। सूबे की सरकारें भाकियू की मांगों पर गंभीर होने लगी थी। 23 अगस्त, 1992 को रामकोला चीनी मिल आंदोलन में बवाल के दौरान चार प्रदर्शनकारी मारे गए।
भाकियू की पीछे नहीं हटने की नीति से सरकारों से हिंसात्मक आमना-सामना होता रहा। 27 जून, 1993 को चिनहट, लखनऊ में उग्र प्रदर्शन में पुलिस फायरिंग को विवश हुई। दो भाकियू कार्यकर्ताओं को जान गंवानी पड़ी।
उत्तराखंड से हरिद्वार एवं ऊधमसिंह नगर को अलग करने को आंदोलन में मंगलौर कस्बे में कार्यकर्ता और पुलिस में खूनी संघर्ष हो गया था। दो साल पहले भाकियू ने मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने हरिद्वार से दिल्ली तक ‘किसान क्रांति यात्रा’ निकाली थी। उस समय भी ऐसे ही हालात बिगड़े थे।
किसानों को यूपी बॉर्डर पर रोक दिया गया था। एक किसान की हार्टअटैक से मौत भी हुई थी। आंसू गैस, पथराव, तोड़फोड़ और लाठियां चली,। जैसे-तैसे मोदी सरकार ने उस परिस्थिति पर काबू पा लिया था, मगर अबकी बार ऐसा नहीं हो पाया। ट्रैक्टर रैली को लेकर भाकियू की कोई रणनीति नहीं दिखी, जिसके नतीजे हिंसा के रूप में सामने आए।
विस्तार
किसान हितों के मुद्दों पर ताकत बनकर उभरी भाकियू के दामन पर हिंसा के छींटे पहले भी पड़ते रहे हैं। दौर चाहे चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का रहा हो या फिर दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई अराजकता का। आंदोलनों में बवाल का भाकियू का लंबा इतिहास रहा है।
दिल्ली में प्रदर्शनकारी किसानों के ‘तांडव’ से एक बार फिर भारतीय किसान यूनियन के आंदोलन की रणनीति सवालों के कठघरे में खड़ी हो गई है। भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के ट्रैक्टर रैली निकालने से पहले किए गए दावे हिंसा में धराशायी हो गए। भाकियू के आंदोलनों में हिंसा कोई नई बात नहीं है। कई बार शांतिपूर्ण ढंग से संचालित धरने और प्रदर्शन में एकाएक ऐसे घटनाक्रम उपजे हैं, जिनमें किसानों की उग्र भीड़ को काबू करना विफल साबित हो चुका है।
करीब साढ़े तीन दशक पहले भाकियू संस्थापक चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में किसानों का पहला आंदोलन शामली जिले के करमूखेड़ी बिजलीघर पर हुआ था। विद्युत दरों के खिलाफ एक मार्च, 1987 को शांतिपूर्ण घेराव के लिए हजारों किसान पहुंच गए।
पुलिस प्रशासन से टकराव में भीड़ अनियंत्रित हो गई, तो पथराव, लाठी और गोलियां चलीं, जिसमें दो किसान जयपाल सिंह एवं अकबर अली की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद भाकियू की ताकत बढ़ती गई और चौधरी टिकैत एकछत्र किसानों के अगुवा बन गए। वर्ष 1988 में मेरठ कमिश्नरी के घेराव को 24 दिन लंबा धरना चला, लेकिन कोई अनहोनी नहीं हुई थी। सरकार के मांगे नहीं मानने के विरोध में मुरादाबाद के रजबपुर में किसानों ने रेल और सड़कों पर आवागमन रोक दी।
16 फरवरी, 1988 को उग्र प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग की। रजबपुर गोलीकांड में पांच किसान मारे गए तथा सैकड़ों घायल हो गए थे। भाकियू सुप्रीमो ने बड़ी किसान पंचायत के उपरांत जेल भरो आंदोलन शुरू किया था। हालांकि मुरादाबाद में पुलिस फायरिंग के वक्त चौधरी टिकैत मेरठ कमिश्नरी के धरने में मौजूद थे।
टिकैत के अड़ियल रुख से किसानों में संघर्ष की एकता बढ़ रही थी। 27 मई, 1989 को अलीगढ़ के खैर कस्बे में गेहूं क्रय केंद्रों पर सरकार द्वारा घोषित मूल्य पर खरीद नहीं किए जाने पर आक्रोशित भाकियू कार्यकर्ता पंचायत करने पर अड़ गए। प्रशासन ने रोक लगा दी, किसान उत्तेजित हो उठे। नतीजतन हिंसा भड़की तथा छह किसानों की मौत हो गई।
तमाम घटनाओं के बाद 90 के दशक में चौधरी टिकैत किसान राजनीति के सिरमौर बन चुके थे। सूबे की सरकारें भाकियू की मांगों पर गंभीर होने लगी थी। 23 अगस्त, 1992 को रामकोला चीनी मिल आंदोलन में बवाल के दौरान चार प्रदर्शनकारी मारे गए।
भाकियू की पीछे नहीं हटने की नीति से सरकारों से हिंसात्मक आमना-सामना होता रहा। 27 जून, 1993 को चिनहट, लखनऊ में उग्र प्रदर्शन में पुलिस फायरिंग को विवश हुई। दो भाकियू कार्यकर्ताओं को जान गंवानी पड़ी।
उत्तराखंड से हरिद्वार एवं ऊधमसिंह नगर को अलग करने को आंदोलन में मंगलौर कस्बे में कार्यकर्ता और पुलिस में खूनी संघर्ष हो गया था। दो साल पहले भाकियू ने मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने हरिद्वार से दिल्ली तक ‘किसान क्रांति यात्रा’ निकाली थी। उस समय भी ऐसे ही हालात बिगड़े थे।
किसानों को यूपी बॉर्डर पर रोक दिया गया था। एक किसान की हार्टअटैक से मौत भी हुई थी। आंसू गैस, पथराव, तोड़फोड़ और लाठियां चली,। जैसे-तैसे मोदी सरकार ने उस परिस्थिति पर काबू पा लिया था, मगर अबकी बार ऐसा नहीं हो पाया। ट्रैक्टर रैली को लेकर भाकियू की कोई रणनीति नहीं दिखी, जिसके नतीजे हिंसा के रूप में सामने आए।